उपाधि कितने प्रकार के होते हैं? - upaadhi kitane prakaar ke hote hain?

न्यायशास्त्र के पारिभाषिक शब्द अन्वय और व्यतिरेक के आधार पर साथ रहनेवाली वस्तुओं में एक को हेतु और दूसरे को साध्य माना जाता है। कभी-कभी अन्वय-व्यतिरेक में दोष हो जाने के कारण हम वास्तविक हेतु की जगह दूसरे को हेतु मान लेते हैं। ऐसा हेतु उपाधि कहलाता है। पारिभाषिक शब्दों में जो हेतु साध्य का व्यापक हो और साधन का व्यापक न हो उसे उपाधि कहते हैं। पर्वत में धुआँ है क्योंकि वहाँ आग है, यहाँ आग से धुएँ का अनुमान नहीं हो सकता क्योंकि धुएँ के बिना भी आग संभव है। यदि यहाँ आग से गीली लकड़ी से युक्त आग का तात्पर्य हो तो धुएँ के अनुमान में आग की जगह वास्तविक हेतु 'गीली लकड़ी से युक्त होगी' होगी। गीली लकड़ी से युकत होना साध्यभूत धूम का व्यापक है और साधनभूत वह्नि का व्यापक नहीं है, अत: यही उपाधि है। क्योंकि उपधिभूत हेतु के कारण ही आग और धुएँ का संबंध हो सकत है, आग के कारण नहीं, इसलिए सोपाधिक हेतु साध्य का अनुमान नहीं किया जा सकता। हेतु का सोपाधिक होना व्याप्यत्वासिद्ध दोष कहलाता है।

वेदांतशास्त्र में शुद्ध और अनंत चैतन्य को दूषित और सीमित करनेवाले माया, अविद्या, प्रकृति आदि तत्व को उपाधि कहते हैं।

उपाधि किसे कहते हैं? इस प्रश्न का समाधान उपाधि के लक्षण से किया जाता है। जो धर्म साध्य का व्यापक हो तथा साधन का अव्यापक हो उसे उपाधि कहते हैं।[1] उदाहरणार्थ जब हम पर्वत पर धुएँ को अग्नि से सिद्ध कर रहे होते हैं तब यहाँ अग्नि हेतु उपाधि से युक्त होने के कारण व्याप्यत्वासिद्ध या व्यभिचारी होता है। व्याप्यत्व का मतलब व्याप्ति ही होता है। जिस हेतु में व्याप्ति असिद्ध हो उसे ही व्यभिचारी भी तार्किकों की आप्त परम्परा में स्वीकार किया जाता है। उपर्युक्त प्रसिद्ध व्यभिचारी हेतु वाले स्थल में आर्द्र अर्थात् गीले ईंधन के संयोग को उपाधि मानते हैं। यह आर्द्र ईंधन का संयोग जो वह्नि में है वही वास्तव में धुएँ का कारण होता है, यह हर व्यक्ति का अनुभव है। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि पर्वत में जो धुआँ है वह आग के कारण नहीं अपितु गीली लकड़ी एवं आग से सम्बन्ध के ही कारण हैं, इस तरह यह सिद्ध होता है कि जहाँ-जहाँ धुआँ रूप साध्य होता है वहाँ-वहाँ गीली लकड़ी का संयोग होता है, अत: गीली लकड़ी का संयोग, साध्य का व्यापक है। इसी प्रकार जहाँ-जहाँ आग रूप हेतु होता है वहाँ-वहाँ गीली लकड़ी का संयोग नहीं होता है, अत: गीली लकड़ी का संयोग साधन का व्यापक नहीं है अर्थात् अव्यापक है यह सिद्ध हो जाता है। अन्तत: प्रस्तुत सन्दर्भ में आर्द्र ईंधन संयोग के साध्य का व्यापक एवं साधन के अव्यापक होने के कारण गीली लकड़ी के संयोग को उपाधि की संज्ञा से विभूषित किया जाता है। इस उपाधि से युक्त होने के कारण वह्नि रूप हेतु सोपाधिक होता है। यही कारण है कि वह्नि व्यभिचारी या व्याप्यत्वासिद्ध माना जाता है।

  • कोई हेतु उपाधि के होने मात्र से व्यभिचारी एवं उपाधि के न होने से अव्यभिचारी या सद्धेतु कैसे और क्यों हो जाता है यह प्रश्न सहज रूप में समुपस्थित होता है। यद्यपि इस प्रश्न के ऊपर विस्तार से कई तार्किक ग्रन्थों में विचार है पर विस्तार भय से यहाँ संक्षेप में ही विचार करते हैं। जब प्रस्तुत प्रसंग में उपाधि-आर्द्र ईंधन का संयोग, साध्य-धूम का व्यापक है तथा साध्य का व्यापक यह आर्द्र ईंधन का संयोग प्रकृत हेतु-वह्नि का व्यापक नहीं है, यह सिद्ध हो जाता है तब यह स्वत: सिद्ध होने में कोई कठिनाई नहीं होती कि प्रकृत साध्य-धूम भी प्रकृत हेतु वह्नि का व्यापक नहीं है। फलत: हेतु में व्यभिचरितत्त्व या स्वाभाववद्वृत्तित्व सम्बन्ध से विद्यमान यह उपाधि अनायास ही साध्य के व्यभिचार का अनुमान करा देता है। इतनी चर्चा से यह स्पष्ट हो जाता है कि किसी भी हेतु में व्याप्ति तभी हो सकती है जब उस हेतु में उपाधि न हो। साध्य हेतु के मध्य सम्बन्ध व्याप्ति ही है। एक अधिकरण हेतु में यदि व्याप्ति है एवं उपाधि नहीं है तो उपाधि विधुर व्याप्ति (सम्बन्ध) हो जाती है।
  • साध्य का जो समव्याप्त होगा वह भी साध्य का व्यापक होगा ही। इसी लिए साध्य का जो समव्याप्त हो तथा साधन का अव्यापक हो उसे भी उपाधि कह सकते हैं। एक प्रकार से उपाधि के लक्षण में तीन विशेषण हैं।
  1. पहला विशेषण है 'साध्यव्यापकत्व'।
  2. दूसरा विशेषण है 'साधनाव्यापकत्व' तथा
  3. तीसरा विशेषण है 'साध्यसमव्याप्तत्व'। उपाधि के लक्षण में इन तीनों विशेषणों की उपादेयता है।[2]

उपाधि के लक्षण से यदि प्रथम विशेषण को हटा दिया जाय तो साधनाव्यापकत्व उपाधि का लक्षण होगा। शब्द:, अनित्य: कार्यत्वात् इस स्थल में घटत्व उपाधि नहीं है। परन्तु इसमें भी साधन कार्यत्व का अव्यापकत्व होने के कारण उपाधि का लक्षण समन्वित होने से अतिव्याप्ति दोष हो जाता है। इस दोष का निवारण करने के लिए साध्यव्यापकत्व उपाधि के लक्षण में विशेषण देना होगा। घटत्व साधन का अव्यापक होने पर भी साध्य-अनित्यत्व का व्यापक नहीं है अत: अतिव्याप्ति का सरलता से निरास हो जाता है।

  • उपाधि के लक्षण से यदि द्वितीय विशेषण को हटा दें तो उपाधि का लक्षण साध्यव्यापकत्व होगा। यह उपाधि का लक्षण कार्यत्व हेतु में अतिव्याप्त होने लगेगा क्योंकि अनित्यत्व का व्यापक कार्यत्व भी होता है। यदि साधनाव्यापकत्व विशेषण उपाधि के लक्षण में दे दें तो कार्यत्व अनित्यत्व के व्यापक होने पर भी कार्यत्व का अव्यापक नहीं है। फलत: अतिव्याप्ति का निराकरण हो जाता है।
  • साध्य की समव्याप्ति उपाधि में अपेक्षित है, ऐसा अगर नहीं कहेंगे तो उपर्युक्त स्थल में अश्रावणत्व में उपाधि के लक्षण की अतिव्याप्ति होने लगेगी। जहाँ जहाँ अनित्यत्व है वहाँ वहाँ अश्रावणत्व होने के कारण प्रथम विशेषण साध्यव्यापकत्व संघटित हो जाता है। साधन कार्यत्व जहाँ जहाँ है, वहाँ वहाँ और जगह अश्रावणत्व के रहने पर भी शब्द में अश्रावणत्व के न होने से अश्रावणत्व में साधनाव्यापकत्व भी है ही। फलत: उपाधि लक्षण की अतिव्याप्ति अपरिहार्य हो जाती है। इस अतिव्याप्ति का वारण साध्यसमव्याप्तत्त्व का लक्षण में निवेश कर देने से हो जाता है। अश्रावणत्व जहाँ जहाँ है वहाँ वहाँ आत्मा आदि में अनित्यत्व के न रहने से अश्रावणत्व का व्यापकत्व साध्य-अनित्यत्व में नहीं होता है। परिणामस्वरूप साध्य की समव्याप्तता अश्रावणत्व में न होने से अतिव्याप्ति सविधि निरस्त हो जाती है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. साध्यव्यापकत्वे सति साधनाव्यापकत्वम् उपाधि: तर्कसंग्रह पृ0 15
  2. अव्याप्तसाधनो य: साध्यसमव्याप्तिरुच्यते स उपाधि:। शब्देऽनित्ये साध्ये सकर्त्तृकत्वं घटत्वमश्रुण्वताम्॥ व्यावर्त्तयितुमुपात्तान्यत्र क्रमता विशेषणानि त्रीणि। तस्मादिदमनवद्यं समासमेत्यादिनोक्तमाचार्यैंश्च॥ -सर्वदर्शन संग्रह – पृ0 17

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