अपराध और दण्ड के सिद्धान्त
“उद्वेजयति तीक्ष्णेनप, मृदुना परिभूयते, तस्ताद्यथार्हतो दण्ड: जयेतपक्ष मनाश्रितः।।“ – कौटिल्य आचार्य कौटिल्य कहते हैं कि “कठोरतम दण्ड से प्रजा विचलित होती है। कोमल दण्ड से प्रजा तिरस्कार करने लगती है। अतः दण्ड की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए।“ इससे पहले कि हम दण्ड के सिद्धान्तों की बात करें, ये जान लेना समीचीन होगा कि अपराध क्या है और दण्ड किसे कहते हैं? अपराध एक ऐसा कृत्य है जो समाज विरोधी है और जिसके लिए विधायिक ने दण्ड का प्रावधान किया गया है। दण्ड शब्द का अर्थ प्रमुख रूप से राजनीतिशास्त्र और प्रशासन के सम्बंध में किया जाता है। कामंदक नीतिसार, शुक्रनीति और महाभारत के शान्तिपर्व में दी गई परिभाषा के अनुसार अपराधों का दमन दण्ड कहलाता है और किसी को दण्डित करने के लिए जिस नीति को अपनाया जाताा है उसे ही दण्डनीति या दण्ड के सिद्धांत कहते हैं। प्राचीन साहित्यों को पढ़ने पर यह पता चलता है कि दण्ड और इसके सिद्धान्तों की उत्पत्ति राज्य संस्था की उत्पत्ति के साथ हुई होगी। महाभारत के शांन्तिपर्व में कहा गया है कि मानवजाति की प्रारिम्भक स्थिति अत्यन्त पवित्र, दोषरहित कर्म, सत्प्रकृति आदि की थी जब न तो कोई राज्य था, न कोई राजा था, न दण्ड था और न दण्डी था। लोग धर्माचरण के द्वारा ही एक-दूसरे की रक्षा करते थे। श्लोक कुछ इस प्रकार है:- “न राज्यो न च राजासीत, न दण्डो न च दाण्डिका। स्वमेव प्रजाः सर्वा रक्षन्ति स्म परस्परम्य्।।“ कैली के अनुसार – अपराध उन अवैधानिक कार्यों को कहते हैं, जिनके बदले में दण्ड दिया जा सकता है और वे क्षम्य नहीं होते। स्टीफेन के अनुसार – अपराध से अभिप्राय ऐसे अधिकारों के अतिक्रमण से है, जिनका परिमाण उस अतिक्रमण से संबंधित समाज में फैली हुई दुष्कृतियों से है। आस्टिन के अनुसार – अपराध वे अवैधानिक कृत्य हैं, जिनके साबित हो जाने पर न्यायालय दण्ड देता है। अपराधों के लिए दण्ड की व्यवस्था प्राचीन समय से चली आ रही है। मनुस्मृति में अपराध को महापातक, अनुपातक तथा उपपातक आदि तीन भागों में विभाजित कर कठोर दण्ड की व्यवस्था की है। जहाँ तक दण्ड के सिद्धान्तों का प्रश्न है, यह सभ्य समाज की देन है। जैसे-जैसे मनुष्य सभ्यता की ओर अग्रसर हुआ है, दण्ड की व्यवस्था भी बदल गई है। दण्ड के मुख्यतया चार प्रयोजन माने गए हैं, जिन्हें हम दण्ड के सिद्धान्त भी कह सकते हैं:- (1) निवारणार्थ सिद्धान्त- अपराध के निवारण हेतु (2) निषेधात्मक सिद्धान्त – अपराध के निषेध हेतु (3) प्रतिकारात्मक सिद्धांत- बदला लेने हेतु (4) सुधारात्मक सिद्धान्त- अपराधी में सुधार हेतु। वर्तमान में सुधारात्मक सिद्धान्त का सबसे उपयुक्त सिद्धान्त माना जाता है। यह सिद्धान्त इस सोच पर आधारित है- “अपराध से घृणा करो, अपराधी से नहीं।“ सभ्यता के विकास के क्रम में भी यद्यपि सभी देशों में संभावित दोषियों के प्रति दोषों के गंभीर परिणाम और दंडयातनाओं का भय उपस्थित करने के लिय कठोर अवरोधक दंड दिए जाते रहे हैं, पर कभी-कभी सुधारात्मक प्रवृत्तियाँ भी उठती रही हैं। प्राचीन रोम में दोषी को जेल में डाल देना मात्र ही सबसे बड़ा दंड माना गया और उसके बाद कोई यातना आवश्यक नहीं समझी गई । भारतवर्ष में कौटिल्य की रचनाओं में अपराधी को कारगर में प्रायश्चित्त कराने और अपने पापों का बोध कराने की व्यवस्था के द्वारा उन्हें विशुद्ध कराने का उल्लेख मिलता है। अशोक ने भी अपने चतुर्थ स्तंभलेख में व्यवहारसमता और दंडसमता के साथ शुद्धचरित्र, वाले दोषियों के दंडों को कम करने का आदेश दिया है। ये बातें दंड विधान की सुधारात्मक प्रवृत्ति की ही द्योतक हैं। स्मृतियों में धिग्दंड अथवा वाग्दंड की चर्चाएँ आती हैं, जो सर्वदा कायदंड और वधदंड से पहले आता था। उसका तात्पर्य यह था कि सामाजिक निंदा मात्र से यदि काम चल जाय तो कठोर यातनाओं की आवश्यकताएँ ही क्या ? 20वीं सदी में दंडविधान को सुधारात्मक स्वरूप देने के प्रयत्न लगातार किये जा रहे हैं । 1872 ई में लन्दन में एक अंतरराष्ट्रीय जेल सुधार और दंडविधान के किसी अंतरराष्ट्रीय स्वरूप को निश्चित करने के लिये सभा का आयोजन किया गया था। धीरे धीरे कठोर दंडों के स्थान पर अपराधी के नैतिक जीवन के सुधार को ही लक्ष्य माना जाने लगा है । उसमें भय की अपेक्षा आशा अधिक रखी जाने लगी है। दंड के सुधारात्मक सिद्धांत में उसका विधान दोषी की अवस्था, सामाजिक वातावरण और स्थितिविशेष के आधार पर किया जाता है। दोषों के लिये समाज और वातावरण को भी उत्तरदायी माना जाता है। अत: दोषी को सुधारने के लिये मनोवैज्ञानिक उपायों का प्रयोग, उसका वैयक्तिक स्तर पर विचार, दोषी बालकों के लिय सुधारगृह की व्यवस्था, औद्योगिक शिक्षा, साधारण शिक्षा, नैतिक और धार्मिक व्याख्यान और अन्य सुनियोजित व्यवस्थाएँ की जाती हैं। असंभव नहीं कि कुछ सदियों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता को छीन लेना ही (जेल में रखना) सबसे बड़ा दंड माना जाए और मानव स्वभाव इतना उदात्त और पवित्र हो जाये कि मृत्यु दंड और आजीवन कारावास जैसे दंडों की आवश्यकता ही न रहे। मनमोहन जोशी महाभारत शान्ति पर्व के ‘राजधर्मानुशासन पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 69 के अनुसार दण्डनीति द्वारा युगों के निर्माण का वर्णन इस प्रकार है[1]- विषय सूची
राजा के कर्तव्य व दण्डभलीभाँति दण्ड धारण करने वाला राजा सदा धर्म का भागी होता है। निरंतर दण्ड धारण किये रहना राजा के लिए उत्तम धर्म मानकर उसकी प्रशंसा की जाती है। भरतनंदन! राजा को वेदों और वेदांगों का विद्वान, बुद्धिमान, तपस्वी, सदा दानशील और यज्ञपरायण होना चाहिये। ये सारे गुण राजा में सदा स्थिर भाव से रहना चाहिये। यदि राजा का न्यायोचित व्यवहार ही लुप्त हो गया, तो उसे कैसे स्वर्ग प्राप्त हो सकता है और कैसे यश ? बुद्धिमान पृथ्वीपालक नरेश जब किसी अत्यंत बलवान राजा से पीड़ित होने लगे, तब उसे दुर्ग का आश्रय लेना चाहिये। उस समय प्राप्त कर्तव्य पर विचार करने के लिए मित्रों का आश्रय लेकर उनकी सलाह से पहले तो अपनी रक्षा के लिए उचित व्यवस्था करे, पिर साम, भेद अथवा युद्ध में से क्या करना है, इस पर विचार करके उसके उपयुक्त कार्य करे। यदि अयुद्ध का ही निश्चय हो तो पशुशालाओं को वन से उठाकर सड़कों पर ले आवे, छोटे-छोटे गांवों को उठा दे और उन सबको शाखा नगरों (कस्बों) में मिला दे।[1] राजा की नीतियाँराज्य में जो धनी और सेना के प्रधान-प्रधान अधिकारी हों अथवा जो मुख्य-मुख्य सेनाएं हों, उन सबको बारम्बार सान्त्वना देकर ऐसे स्थानों में रख दे, जो अत्यंत गुप्त और दुर्गम हो। राजा स्वयं ही ध्यान देकर खेतों में तैयार हुई अनाज की फसल को कटवाकर किले के भीतर रखवा ले, यदि किले में लाना संभव न हो तो उन फसलों को आग लगाकर जला दे। शत्रु के खेतों में जो अनाज हों, उन्हें नष्ट करने के लिए वहीं के लोगों में फूट डाले अथवा अपनी ही सेना के द्वारा वह सब नष्ट करा दे, जिससे शत्रु के पास खाद्य सामग्री का अभाव हो जाय। नदी के मार्गों पर जो पुल पड़ते हों उन सबको तुड़वा दे। शत्रु के मार्ग में जो जलाशय हों, उनका सारा जल इधर-उधर बहा दे। जो जल बहाया न जा सके, उसे दूषित कर दे, जिससे वह पीने योग्य नह रह जाये। वर्तमान अथवा भविष्य में सदा किसी मित्र का कार्य उपस्थित हो तो उसे भी छोड़कर अपने शत्रु के उस शत्रु का आश्रय लेकर रहे जो राज्य की भूमि के निकट का निवासी हो तथा युद्ध में शत्रु पर आघात करने के लिए तैयार रहता हो। जो छोटे-छोटे दुर्ग हों (जिनमें शत्रुओं के छिपने की संभावना हो) उन सबका राजा मूलोच्छेद करा डाले और चैत्य ( देवालय संबंधी) वृक्षों को छोड़कर अन्य सभी छोटे-छोटे वृक्षों को कटवा दे। जो वृक्ष बढ़कर बहुत फैल गये हों, उनकी डालियां कटवा दे, परंतु देव संबंधी वृक्षों को सर्वथा सुरक्षित रहने दे। उनका एक पत्ता भी न गिरावे। नगर एवं दुर्ग के परकोटों पर शूरवीर रक्षा सैनिकों के बैठने के लिए स्थान बनावे, ऐसे स्थानो को प्रगण्डी कहते हैं, इन्हीं प्रगण्डियों की एक पाखवली दीवारों में बाहर की वस्तुओं को देखने के लिए छोट-छोटे छिद्र बनवावे, इन छिद्रो को ‘आकाशजननी’ कहते हैं (इनके द्वारा तोपों से गोलियां छोड़ी जाती हैं) इन सबका अच्छी तरह से निर्माण करावे। परकोटों के बाहर बनी हुई खाई में जल भरवा दे और उसमें त्रिशुलयुक्त खंभे गड़वा दे तथा मगरमच्छ और बड़े-बड़े़ मत्स्य भी डलवा दे। नगर में हवा आने-जाने के लिए परकोटों मं संकरे दरवाजे बनावे और बड़े दरवाजों की भाँति उनकी भी सब प्रकार से रक्षा करे।[1] सभी दरवाजों पर भारी-भारी यंत्र और तोप सदा लगाये रखे और उन सबको अपने अधिकार में रखें। किले के भीतर बहुत-सा ईंधन इकट्ठा कर ले और कुएं खुदवाये ।जल पीने की इच्छा वाले लोगों ने पहले जो कुएं बना रखे हो, उनका भी झरवाकर शुद्ध करा दे। घास-फूंस से छाये हुए घरों को गीली मिट्टी से लिपवा दे और चेत्र का महीना आते ही आग लगने के भय से नगर के भीतर से घास-फूंस हटवा दे। खेतों से भी तृण आदि को हटा दें। राजा को चाहिये कि वह युद्ध के अवसरों पर नगर के लोगों को रात मं ही भोजन बनाने की आज्ञा दे। दिन में अग्निहोत्र को छोड़कर और किसी काम के लिए कोई आग न जलावे। लोहार आदि की भट्टियों में और सूतिका गृहों में भी अत्यंत सुरक्षित रुप से आग जलानी चाहिये, आग को घर के भीतर ले जाकर ढककर रखना चाहिये। नगर की रक्षा के लिए यह घोषण करा दे कि जिसके यहाँ दिन मं आग जलायी जाती होगी उसे बड़ा भारी दण्ड दिया जायेगा। नरश्रेष्ठ! जब युद्ध छिड़ा हो, तब राजा को चाहिये कि वह नगर से भिखमंगों, गाड़ीवानों, हीजड़ों, पागलों और नाटक करने वालों को बाहर निकाल दे, अन्यथा वे बड़ी भारी विपत्ति ला सकते हैं। राजा को चाहिये कि वह चौराहों पर, तीर्थों में, सभाओं में और धर्मशालाओं में सबकी मनोवृति को जानने के लिए किसी शुद्ध वर्ण वाले पुरुष को (जो वर्णसंकर न हो) गुप्चर नियुक्त करे। प्रत्येक नरेश को बड़ी-बडी सड़कें बनवानी चाहिये और जहाँ जैसी आवश्यकता हो उसके अनुसार जलक्षेत्र और बाजारों की व्यवस्था करनी चाहिये। कुरुनंदन युधिष्ठिर! अन्न के भंडार, शस्त्रागार, योद्धाओं के निवास स्थान, अश्वशालाएं, गजशालाएं, सैनिक शिविर, खाई गलियां तथा राजमहल के उद्यान- इन सब स्थानों को गुप्त रीति से बनवाना चाहिये, जिससे कभी दूसरा कोई देख न सके। शत्रुओं की सेना से पीड़ित हुआ राजा धन-संचय तथा आवश्यक वस्तुओं का संग्रह करके रखे। घायलों की चिकित्सा के लिए तेल, चर्बी, मधु, घी, सब प्रकार के औषध, अंगारे, कुश, कूंज, ढाक, बाण, लेखक, घास, विष में बुझाये हुए बाणों का भी संग्रह करावे।[2]- राजा के कुछ विशेष कार्यइसी प्रकार राजा को चाहिये कि शक्ति,ऋष्टि और प्रास आदि सब प्रकार के आयुधों, कवचों तथा ऐसी ही अन्य आवश्यक वस्तुओं का संग्रह करावे। सब प्रकार के औषध, मूल ,फूल तथा विष का नाश करने वाले,घाव पर पट्टी करने वाले, रोगों को निवारण करने वाले और कृत्या का नाश करने वाले-इन चार प्रकार के वैद्यों का विशेष रूप से संग्रह करे। साधारण स्थिति में राजा को नटों, नर्तकों, पहलवानों तथा इन्द्रजाल दिखाने वालों को भी अपने यहाँ आश्रय देना चाहिये, क्यों कि ये राजधानी की शोभा बढ़ाते हैं और सबको अपने खेलों से आनन्द प्रदान करते हैं। यदि राजा को अपने किसी नौकर से ,मन्त्री से ,पुरवासियों से अथवा किसी पड़ोसी राजा से कोई संदेह हो जाय तो समयोचित उपायों द्वारा उन सबको अपने वश में कर ले। राजेन्द्र! जब कोई अभीष्ट कार्य पूरा हो जाय तो उसमे सहयोग करने वालों का बहुत-से धन, यथायोग्य पुरस्कार तथा नाना प्रकार के सान्त्वनापूर्ण मधुर वचन के द्वारा सत्कार करना चाहिये। कुरुनन्दन! राजा शत्रु को ताड़ना आदि के द्वारा खित्र कर के अथवा उसका वध करके फिर उस वंश में हुए राजा का जैसा शास्त्रों में बताया गया है, उसके अनुसार दान- मानादि द्वारा सत्कार करके उससे उऋण हो जाय।[3]- राजा द्वारा सात वस्तुओं की रक्षाकुरूनन्दन! राजा को उचित है कि सात वस्तुओं की अवश्य रक्षा करे। वे सात कौन है? यह मुझ से सुनो। राजा का अपना शरीर, मन्त्री, कोश, दण्ड(सेना),मित्र, राष्ट्र और नगर-ये राज्य के सात अंग हैं, राजा को इन सबका प्रयत्नपूर्वक पालन करना चाहिये। पुरुष सिंह! जो राजा छः गुण, तीन वर्ग और तीन परम वर्ग-इन सबको अच्छी तरह जानता है, वही इस पृथ्वी का उपभोग कर सकता है। युधिष्ठिर! इनमें से जो छः गुण कहे गये हैं, उनका परिचय सुनो, शत्रु से संधि कर के शान्ति से बैठ जाना ,शत्रु पर चढ़ाई करना, वैर करके बैठ रहना, शत्रु को डराने के लिये आक्रमण का प्रदर्शन मात्र करके बैठ जाना, शत्रुओं में भेद डलवा देना तथा किसी दुर्ग या दुर्जय राजा का आश्रय लेना। जिन वस्तुओ को त्रिवर्ग के अन्तर्गत बताया गया हैं, उनको भी यहाँ एकचित्त होकर सुनो। क्षय, स्थान और वृद्धि- ये ही त्रिवर्ग हैं तथा धर्म, अर्थ और काम- इनको परम त्रिवर्ग कहा गया हैं। इन सबका समयानुसार सेवन करना चाहिये। राजा धर्म के अनुसार चले तो वह पृथ्वी का दीर्घकाल तक पालन कर सकता है। पृथापुत्र युधिष्ठिर! तुम्हारा कल्याण हो। इस विषय में साक्षात् बृहस्पति जी ने जो दो श्लोक कहे हैं, उन्हें भी तुम सनो। ’सारे कर्तव्यों को पूरा करके पृथ्वी का अच्छी तरह पालन तथा नगर एवं राष्ट्र की प्रजा का संरक्षण करने से राजा परलोक में सुख पाता है। ’जिस राजा ने अपनी प्रजा का अच्छी तरह पालन किया हैं, उसे तपस्या से क्या लेना हैं? उसे यज्ञों का भी अनुष्ठान करने की क्या आवश्यकता हैं? वह तो स्वयं ही सम्पूर्ण धर्मों का ज्ञाता हैं’।[3] युधिष्ठिर! इस विषय में शुक्राचार्यं के कहे हुए कुछ श्लोक हैं, उन्हें सुनो। राजन्! उन श्लोकों में जो भाव है, वह दण्डनीति तथा त्रिवर्ग का मूल है। भार्गवादिरसकर्मं, षोडशाग बल, विष, माया, दैव और पुरुषार्थं-ये सभी वस्तुएँ राजा की अर्थसिद्धि के कारण हैं। राजा को चाहिये, जिसमें पूर्वं और उत्तर दिशा की भूमि नीची हो तथा तीनों प्रकार के त्रिवर्गां से परिपूर्ण हो उस दुर्गं का आश्रय ले राज्य कार्यं का भार वहन करे। षड्वर्गं[4], पंचवर्ग[5], दस दोष[6] और आठ दोष[7]-इन सबको जीतकर त्रिवर्गयुक्त[8] एवं दस वर्गों के[9] ज्ञान से सम्पन्न हुआ राजा देवताओं द्वारा भी जीता नहीं जा सकता। राजा कभी स्त्रियों और मूर्खों से सलाह न ले। जिनकी बुद्धि दैव से मारी गयी है तथा जो वेदों के ज्ञान से शून्य हैं, उनकी बात राजा कभी न सुने; क्योंकि उन लोगों की बुद्धि नीति से विमुख होती हैं। जिन राज्यों में स्त्रियों की प्रधानता हो और जिन्हें विद्वानों ने छोड़ रखा हो; वे राज्य मूर्खं मन्त्रियों से संतप्त होकर पानी की बूँद के समान सूख जाते हैं। जो अपनी विद्वत्ता के लिये विख्यात हों, सभी कार्यों मे विश्वास के योग्य हों तथा युद्ध के अवसरों पर जिनके कार्यं देखे गये हों, ऐसे मन्त्रियों की ही बात राजा को सुननी चाहिये। दैव, पुरुषार्थं और त्रिवर्गं का आश्रय ले देवताओं तथा ब्राह्मणों को प्रणाम करकें युद्ध की यात्रा करने वाला राजा विजयी होता है।[10]- राजा की दण्डनीतियुधिष्ठिर ने पूछा-पितामह! दण्डनीति तथा राजा दोनों मिलकर ही कार्यं करते हैं। इनमें से किसके क्या करने से कार्यं-सिद्धि होती है? यह मुझे बताइये। भीष्म जी बोले-राजन्! भरतनन्दन! दण्डनीति से राजा और प्रजा के जिस महान् सौभाग्य का उदय होता है, उसका मैं लोकप्रसिद्ध एवं युक्तियुक्त शब्दों द्वारा वर्णन करता हूँ, तुम यथावत् रूप से यहाँ उसें सुनो। यदि राजा दण्डनीति का उत्तम रीति से प्रयोग करे तो वह चारों वर्णों को अपने-अपने धर्म में बलपूर्वक लगाती है और उन्हें अधर्म की ओर जाने से रोक देती हैं।[10] इस प्रकार दण्डनीति के प्रभाव से जब चारों वर्णों के लोग अपने-अपने कर्मों में संलग्न रहते हैं, धर्ममर्यादा में संकीर्णता नहीं आने पाती और प्रजा सब ओर से निर्भय एवं कुशलपूर्वक रहने लगती है, तब तीनों वर्णों के लोग विधिपूर्वंक स्वास्थ्य-रक्षा का प्रयत्न करते हैं। युधिष्ठिर! इसी में मनुष्यों का सुख निहित हैं, यह तुम्हें ज्ञात होना चाहिये। काल राजा का कारण है अथवा राजा काल का, ऐसा संशय तुम्हें नहीं होना चाहिये। यह निश्चित है कि राजा ही काल का कारण होता है। जिस समय राजा दण्डनीति का पूरा-पूरा एवं ठीक प्रयोग करता हैं, उस समय पृथ्वी पर पूर्ण रूप से सत्ययुग का आरम्भ हो जाता हैं। राजा से प्रभावित हुआ समय ही सत्ययुग कर सृष्टि कर देता हैं। उस सत्ययुग में धर्म-ही-धर्म रहता है, अधर्म का कहीं नाम-निशान भी नहीं दिखायी देता तथा किसी भी वर्ण की अधर्म में रुचि नहीं होती। उस समय प्रजा के योगक्षेम स्वतः सिद्ध होते रहते हैं तथा सर्वत्र वैदिक गुणों का विस्तार हो जाता है, इसमें संदेह नही हैं। सभी ऋतुएँ सुखदायिनी और आरोग्य बढ़ाने वाली होती हैं।[11]- दण्डनीति द्वारा युगों का निर्माणमनुष्यों के स्वर, वर्णं और मन स्वच्छ एवं प्रसन्न होते हैं। इस जगत् में उस समय रोग नहीं होते, कोई भी मनुष्य अल्पायु नहीं दिखायी देता, स्त्रियाँ विधवा नहीं होती हैं तथा कोई भी मनुष्य दीन-दुखी नहीं होता है। पृथ्वी पर बिना जोते-बोये ही अत्र पैदा होता है, ओषधियाँ भी स्वतः उत्पत्र होती हैं; उनकी छाल, पत्ते, फल और मूल सभी शक्तिशाली होते हैं। सत्ययुग में अधर्म का सर्वथा अभाव हो जाता है। उस समय केवल धर्मं-ही-धर्म रहता है। युधिष्ठिर! इन सबको सत्ययुग के धर्म समझो। जब राजा दण्डनीति के एक चैथाई अंश को छोड़कर केवल तीन अंशो का अनुसरण करता है, तब त्रेतायुग प्रारम्भ हो जाता हैं। उस समय अशुभ का चैथा अंश पुण्य के तीन अंशो के पीछे लगा रहता हैं। उस अवस्था में पृथ्वी पर जोतने-बोने से ही अन्न पैदा होता है। ओषधियाँ भी उसी तरह पैदा होती हैं। जब राजा दण्डनीति के आधे भाग को त्यागकर आधे का अनुसरण करता है, तब द्वापर नामक युग का आरम्भ हो जाता हैं। उस समय पाप के दो भाग पुण्य के दो भागों का अनुसरण करते हैं। पृथ्वी पर जोतने-बोने से ही अनाज लेता है; परंतु आधी फसल में ही फल लगते है, आधी मारी जाती है। जब राजा समूची दण्डनीति का परित्याग करके अयोग्य उपायों द्वारा प्रजा को कष्ट देने लगता है, तब कलियुग का आरम्भ हो जाता है। कलियुग में अधर्म तो अधिक होता है; परंतु धर्म का पालन कहीं नहीं देखा जाता। सभी वर्णों का मन अपने धर्म से च्युत हो जाता है। शूद्र भिक्षा माँगकर जीवन निर्वाह करते है और ब्राह्मण सेवा वृत्ति से। प्रजा के योगक्षेम का नाश हो जाता है और सब और वर्णसंकरता फैल जाती है। वैदिक कर्म विधिपूर्वक सम्पन्न न होने के कारण गुणहीन हो जाते है। प्रायः सभी ऋतुएँ सुखरहित तथा रोग प्रदान करने वाली हो जाती है। मनुष्यों के स्वर, वर्ण और मन मलिन हो जाते है। सबको रोग व्याधि सताने लगती है और लोग अल्पायु होकर छोटी अवस्था में ही मरने लगते है।[11] इस युग में स्त्रियां प्रायः विधवा होती है, प्रजा क्रूर हो जाती है, बादल कहीं कहीं पानी बरसाते है और कहीं-कहीं ही धान उत्पन्न होता है। जब राजा दण्डनीति में प्रतिष्ठित होकर प्रजा की भली-भाँति रक्षा करना नहीं चाहता है, उस समय इस पृथ्वी के सारे रस ही नष्ट हो जाते है। राजा ही सत्ययुग की सृष्टि करने वाला होता है, और राजा ही त्रेता, द्वापर तथा चौथे युग कलिकी भी सृष्टि का कारण है। सत्ययुग की सृष्टि करने से राजा को अक्षय स्वर्ग की प्राप्ति होती है। त्रेता की सृष्टि करने से राजा को स्वर्ग तो मिलता है; परंतु वह अक्षय नहीं होता। द्वापर का प्रसार करने से वह अपने पुण्य के अनुसार कुछ काल तक स्वर्ग का सुख भोगता है; परंतु कलियुग की सृष्टि करने से राजा को अत्यन्त पाप का भागी होना पड़ता है। तदनन्तर वह दुराचारी राजा उस पाप के कारण बहुत वर्षों तक नरक में निवास करता है। प्रजा के पाप में डूबकर वह अपयश और पाप के फलस्वरूप् दुख का ही भागी होता है। अतः विज्ञ क्षत्रिय नरेश को चाहिये कि वह सदा दण्डनीति को सामने रखकर उसके द्वारा अप्राप्त वस्तु को पाने की इच्छा करें और प्राप्त हुई वस्तु की रक्षा करे। इसके द्वारा प्रजा के योगक्षेम सिद्ध होते है, इसमें संशय नहीं है। यदि दण्डनीति को ठीक-ठीक प्रयोग किया जाए तो वह बालक की रक्षा करने वाले माता-पिता के समान लोक की सुन्दर व्यवस्था करने वाली और धर्ममर्यादा तथा जगत की रक्षा में समर्थ होती है। नरश्रेष्ठ! तुम्हें यह ज्ञात होना चाहिये कि समस्त प्राणी दण्डनीति के आधार पर टिके हुए है। राजा दण्डनीति से युक्त हो उसी के अनुसार चले-यही उसका सबसे बडा धर्म है। अतः कुरुनन्दन! तुम दण्डनीति का आश्रय ले धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करो। यदि नीतियुक्त व्यवहार से रहकर प्रजा की रक्षा करोंगे तो स्वर्ग को जीत लोगे।[12] टीका टिप्पणी और संदर्भ
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विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना मोक्षधर्म पर्वशोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोजशुक्र के अनुसार दंड नीति क्या है?शुक्रनीति में दण्डनीति की श्रेष्ठता
शुक्रनीति के टीकाकार, बी०के० सरकार के अनुसार, ''दण्डनीति शासन करने तथा निर्देश देने से संबंधित विद्या है।'' यह कहना उचित है कि शुक्र ने विभिन्न प्रसंगो में दण्ड व नीति का जो महत्व बताया है वह दण्डनीति अर्थात् राजनीतिशास्त्र का ही महत्व हैं।
शुक्र के अनुसार राजा अधिकार का दूसरा सिद्धांत कौन सा है?शुक्र के राजनीति अनुसार शासन का उतराधिकारी राजकूल में से ही चुना जाना, चाहिए नाकि राजा के जेष्ठ पुत्र को स्वतः उतराधिकारी मान लेना चाहिए। योग्य उतराधिकारी को शासन का उतराधिकार राजा के जीवित काल में बना देना चाहिए ।
शुक्र नीति में कितने अध्याय हैं?सम्पूर्ण शुक्र नीति में पाँच अध्याय तथा 2200 श्लोक हैं, इसमें लोक व्यवहार का ज्ञान, राजा के कर्तव्य, राजधर्म, दण्डविधान, मंत्री परिषद् आदि के लक्ष्यों का समावेश है।
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