शाहनी ने किसका पालन पोषण किया था? - shaahanee ne kisaka paalan poshan kiya tha?

ऋत्विक घटक और सत्यजीत राय के बाद कुमार शहानी और मणि कौल सम्भवतः देश के सबसे अध्ािक महत्वपूर्ण फि़ल्मकार रहे हैं। इनकी फि़ल्मों ने न सिर्फ़ हमारे फि़ल्म के देखने में बुनियादी बदलाव लाया है बल्कि इन फि़ल्मों की रौशनी में हम वास्तविकता और स्वयं अपने आप को भी कुछ और तरह से ही अनुभव करने के रास्ते खोज सके हैं या खोज सकते हैं। साठ के दशक में पुणे के भारतीय फि़ल्म और टेलीविज़न संस्थान से अध्ययन के बाद कुमार शहानी अध्येतावृत्ति पर पेरिस गये और उन्होंने वहाँ अद्वितीय फि़ल्मकार और फि़ल्म-शास्त्रज्ञ रोबेर बे्रसाँ के साथ प्रमुख सहनिर्देशक के रूप में उनकी दोस्तोयवस्की की प्रसिद्ध कहानी ‘मीक वन’ पर आध्ाारित फि़ल्म ‘द जेंटल क्रिचर’ पर काम किया। वहाँ से लौटकर उन्होंने अपनी पहली फि़ल्म ‘माया दर्पण’ बनायी जिसे देखते ही यह बात फि़ल्म प्रेमियों और आलोचकों के मन में सहज ही घर कर गयी कि वे कुछ ऐसा देख रहे हैं जो उन्होंने अब तक नहीं देखा था। वे एक ऐसे फि़ल्मकार की रचना के सामने हैं जो जीवन के छोटे से छोटे अंश के प्रति संवेदनशील हैं और जिसकी फि़ल्म का कैमरा निरन्तर इस महाद्वीप की प्रदर्शनकारी और अन्य कलाओं को जागृत करता चलता है और साथ ही जिसका वैश्विक कला सम्पदा के साथ आत्मिक संवाद है। यह दुखद है कि ऐसे विलक्षण फि़ल्मकार को हमारे देश में केवल कुछ ही फि़ल्में बनाने का अवसर मिला हालाँकि कुमार ने जो भी फि़ल्म बनायी है वह अपनी तरह की ‘क्लासिक’ है। उनकी फि़ल्में दुनियाभर के प्रयोगशील और दृष्टि सम्पन्न फि़ल्मकारों के लिए निरन्तर प्रेरणा का स्रोत रही हैं। यह संयोग नहीं कि कुमार शहानी को विश्व के श्रेष्ठ सिनेमा शिक्षकों में गिना जाता है। कुमार अपनी हर फि़ल्म में फि़ल्म बनाने के नये मार्गों की खोज करते हैं और वे निरन्तर इस खोज के लिए विशेषकर भारतीय प्रदर्शनकारी कलाओं और संगीत आदि की परम्परा को गहरे से गहरे तक समझने और टटोलने का मानो अनवरत प्रयास करते रहते हैं। उनकी फि़ल्में भारतीय और वैश्विक कला परम्परा से संवाद करती हुई आकार ग्रहण करती हैं।
कुमार शहानी से बात करना हमेशा हर्षित करता है। वे अपने भीतर दुनिया की तमाम कला परम्पराओं के बहावों को मानो लेकर चलते हैं, चाहे वह ख़्याल संगीत हो या मिनिएचर चित्र, पश्चिमी शास्त्रीय संगीत हो या कुडियाट्टम नृत्य, ध्ा्रुपद संगीत हो या भक्ति कविता या दरवेशों का अपनी ध्ाूरी पर लगातार घूमना। वे बात करते-करते कब किसी विशेष संगीत के रूपाकार के किसी दूरस्थ दार्शनिक दृष्टि के लगभग अनदेखे बिन्दु पर जाकर ठहरेंगे, इसका कोई ठिकाना नहीं होता। इसीलिए उनसे बात करना अनिवार्य रूप से गहन कलात्मक और दार्शनिक अनुभव होता है। प्रस्तुत संवाद कई वर्ष पहले पुणे और मुम्बई में हुआ था। पुणे में भारतीय फि़ल्म अभिलेखागार में कुछ फि़ल्में देखने के बाद और मुम्बई में कुमार के ‘सागर-दर्शन’ के घर में। पुणे में हम बात करने, फि़ल्में देखने के बाद, विश्वविद्यालय परिसर में चले जाते थे, वहाँ हरे घास के छोटे से मैदान के किनारे कुछ बैंचें लगी थीं, हमने उन्हीं पर बैठकर घण्टों बात की और उसे रिकाॅर्ड किया। मुम्बई में कुमार के घर की बहुत बड़ी काँच की खिड़की समुद्र पर खुलती थी। कुमार कुर्सी पर समुद्र की ओर पीठ करके इसलिए बैठते थे कि मैं बात करते समय समुद्र की आती-जाती-नाचती लहरों को देखता रह सकूँ। इस बातचीत के बाद पिछले कई बरसों से कुमार से मैं बराबर बात करता रहा हूँ, उनकी दो फि़ल्मों, ‘चार अध्याय’ और ‘विरह भर्यो घर आंगन कोने’ में लेखन भी किया है। यह सब करते हुए हमेशा ही अपने भीतर एक ऐसी समृद्धि का अनुभव करता रहा हूँ जो सृजन और चिन्तनशील कलाकार के सान्निध्य में ही हो सकता है।


उदयन- आपने अपनी पहली फि़ल्म के लिए निर्मल वर्मा की कहानी ‘माया दर्पण’ का चुनाव किया था। तब आप पेरिस लौटे ही थे। आपने पहली ही फि़ल्म के लिए इस कहानी का चुनाव क्यों किया था ? आपने यह कहानी पेरिस आने के बाद पढ़ी थी या आप उसे वहीं पढ़ चुके थे ?
कुमार शहानी- मैंने पेरिस में रहते हुए एक पटकथा लिखी थी, मुझे वह पसन्द नहीं आयी। उसमें अतीत के प्रति गहरा मोह था क्योंकि मैंने उसे विदेश में बैठकर लिखा था। तब मैं कुछ ऐसी चीजे़ं खोजने लगा जो अलग हों। मैंने हिन्दी, अँगे्रज़ी और फ्राँसीसी भाषा की बहुत-सी कहानियाँ पढ़ीं। अचानक मेरी नज़र ‘माया दर्पण’ पर गयी। मैंने पाया उस कहानी में कोई ‘प्लाॅट’ नहीं है जिसका आशय यह था कि वह मेरे भीतर और बाहर हो रहे बदलाव के प्रति मेरे लगाव को रूप दे सकती थी। मैं इस बदलाव की सजगता को व्यक्त करना चाहता थाः एक तरह की आत्मसजगता और साथ ही संसार की भी सजगता। ऐसी कोई कहानी मिलना आसान नहीं था। ‘माया दर्पण’ के साथ मैं ऐसा कर सकूँगा, मैंने सोचा। मैंने यह भी सोचा कि मैं इसमें रंगों के सहारे व्यक्त कर सकूँगा। यह एक अलग कि़स्म का लगाव थाः रंगों, आवाज़ों और गतियों के सहारे व्यक्त करना। इस कहानी में मुझे प्लाॅट की चिन्ता नहीं करनी थी और तब भी आत्मसजगता और संसार की सजगता को व्यक्त करना यहाँ मुमकिन था। मुझे लगता है कि नैतिक प्रश्न बहुत कुछ प्लाॅट से जुड़े हुए होते हैं।
अपनी पहली फीचर फि़ल्म में वह सजगता ही नैतिक प्रश्न थी जिसे मैं समझना चाहता था। जब लोग आख्यान के बारे में या उसके विरोध्ा में बोलते हैं या प्लाॅट के विरोध्ा में बोलते हैं, वे आमतौर पर कुछ बहुत ग़लत बोल रहे होते हैं। आख्यान के विषय में यह भ्रम है जिसे दूसरे विश्व युद्ध के बाद विशेषकर यूरोप और अमेरिका और यहाँ भी बढ़ा-चढ़ा दिया गया है। दो विरोध्ाी पक्ष बन गये हैंः एक आख्यान के पक्ष में है दूसरा उसके विरोध्ा में। लेकिन मेरी समझ में यह वास्तविक प्रश्न नहीं हैं। मैं सोचता हूँ कि किसी भी क्रमिक संयोजन में, फिर वह अमूर्त क्रमिक संयोजन ही क्यूँ न हो, जैसा कि माया दर्पण में कई जगह होता है, जैसे जब वह नायिका सो रही है, वहाँ भी आख्यान है। संयोग से पेरिस में इस फि़ल्म के प्रदर्शन के बाद कोई नस्लवादी भारतीय व्यक्ति दिलीप पडगाँवकर से यह कह रहा था, ‘यह कोई फि़ल्म है, इसमें तीन गन्दी दीवारों और एक काली लड़की के अलावा और है क्या ?’ चूँकि वहाँ क्रमिक संयोजन है, इसलिए आख्यान है और आत्म सजगता ही उस आख्यान का आध्ाार है। जब आप संसार में कर्म करते हैं, संसार भी गतिशील हो जाता है, ‘माया’ घटित होती है। मैं इतना ज़रूर कहूँगा कि फि़ल्म बनाने के पहले मैं इन सब बातों के बारे में इतना स्पष्ट नहीं था।
उदयन- कोई मुझे बता रहा था कि आपकी इस कहानी में दिलचस्पी होने का कारण शायद यह था कि यह कहानी भी एक बदलाव की ओर इशारा कर रही थी, इस कहानी में हम सामन्ती ढाँचे की टूटन में उत्पन्न हो रहे पूँजीवादी रूपाकारों की झलक पा सकते हैं। क्या हम यह कह सकते हैं कि जिस किस्म का बदलाव आप अपने भीतर अनुभव कर रहे थे, उसके अनुकूल ही समाज का रूपान्तरित होना आपको इस कहानी के कथ्य में दिखायी दिया और इसी कारण आप उसकी ओर आकर्षित हुए।
कुमार- बिल्कुल। दरअसल वहाँ एक साम्य था, लेकिन मुझे यह नहीं लगता कि वह एक आरोपण था। मुझे लगता है कि वस्तुनिष्ठ संसार और आत्मसजगता आपस में गुँथे होते हैं और इसका सम्बन्ध्ा सिर्फ़ वस्तुस्थिति से नहीं, स्वयं उसके विकास से होता है, और मुझे अब और अध्ािक यह लगता है कि इसका सम्बन्ध्ा प्रकृति के विकास से है। मेरे कहने का आशय यह है कि उस रूपान्तर का लम्बा इतिहास है। आप उस आत्मसजगता को तय नहीं कर सकते और न ही उसे आरोपित कर सकते हैं। अगर, आप ऐसा करेंगे, आप सृजन नहीं कर सकेंगे। मैं सोचता हूँ कि बहुत सारे विशुद्ध वस्तुनिष्ठ विश्लेषणों की विफलता का यही कारण है जिनमें कई व्याख्याएँ और मनोविश्लेषण जैसे काम शामिल हैं, वे इसलिए सफल नहीं हो पाते क्योंकि वे आत्म और संसार के सम्बन्ध्ा को कुछ ज़्यादा ही सरलीकृत कर देते हैं जबकि ये दोनों ही सांगीतिक अन्तर्गुम्फन और तनाव के साथ विकसित होते हैं। अगर आपके पास ताल है, आप सभी बोलों को एक-सा विभाजित नहीं करेंगे, ताल वह करने की कोशिश करेगी। ताल आपको भी वही करने का न्यौता देगी पर आप वह नहीं करेंगे। आप अपनी लय को इस तरह बदलते रहेंगे कि जहाँ उसे तीन में विभाजित करना हो, वहाँ आप लय का यह विभाजन चार या पाँच में करेंगे। आप स्वरों और मात्राओं को खींचकर लम्बा भी कर देंगे। फिर आप उसी लम्बाई से तनाव उत्पन्न करेंगे और इसी तरह बढ़त करते चलेंगे। इस तरह आप एक अन्तहीन गतिशीलता में आ जाएँगे।
उदयन- आपके इस रूपक से ऐसा जान पड़ता है मानो वास्तविकता कोई ताल हो जो आपको आमन्त्रित कर रही हो कि आप अपनी आत्मनिष्ठता को क्रीड़ामय बनाएँ ?
कुमार- यह ठीक है पर ताल भी आप का ही चुनाव है, रहस्य यहाँ है।
उदयन- शायद इसीलिए कोई व्यक्ति यथार्थ की किसी एक ताल को सुनता है और कोई किसी दूसरी को।
कुमार- पर साथ ही आप हर राग को गाने का एक विशेष ढंग चुनते हैं, और उसकी विशेषता पूर्वनिधर््ाारित नहीं होती, वह आपकी स्वतन्त्रता को चरितार्थ करती है।
उदयन- आप आख्यान और अनाख्यान के द्वैत के विषय में बोल रहे थे। क्या आप उस पर कुछ और विस्तार करना चाहेंगे ? आपने जिन सम्बन्ध्ा सूत्रों के होने के विषय में इशारा किया था, इससे आपकी क्या यह मुराद है कि ऐसी कोई कृति हो ही नहीं सकती, जो आख्यानात्मक न हो ?
कुमार- हाँ, विशेषकर सिनेमा जैसे सांगीतिक रूपाकारों में। ऐसी किसी कृति की कल्पना ज़रूर की जा सकती है, जो आख्यानात्मक न हो पर मैं ऐसी किसी सिनेमाई कृति के सम्पर्क में नहीं आया, जो आख्यानात्मक न हो। मैं सोचता हूँ कि जब हम उन्नीसवीं शती के कार्य-कारण से बँध्ो आख्यानों को ही आख्यान मात्र मानकर इस शब्द का उपयोग करते हैं, हम ग़लती कर रहे होते हैं। यह ज़रूर है कि उस आख्यान का भी एक स्थान है क्योंकि हमें उसके साथ भी रहना पड़ता है। मसलन हमें पता है कि हम यहाँ, पूना विश्व विद्यालय के परिसर से वापस फि़ल्म इन्स्टीट्यूट जाएँगे और उसके लिए एक रिक्शा लेंगे, रिक्शा मिल गया तो कुछ देर में वहाँ पहुँचेंगे। मेरा ये बताने का यह आशय है कि ये सारे क्रियाकलाप कार्य-कारण से निधर््ाारित हैं और हम यह जानते हैं कि हमें इसके लिए एक खास तरह से क्रियाशील होना होगा। उन्नीसवीं शती के आख्यान में जीवन के हर पक्ष को इसी सीमित कार्य-कारण में बाँध्ा दिया गया था जबकि कार्य-कारण सम्बन्ध्ा के कई रूप हो सकते हैं मसलन, जीव वैज्ञानिक अपने कामों में भौतिक विज्ञानों में प्रयुक्त होने वाले कार्य-कारण सम्बन्ध्ा का उपयोग नहीं करते। दुर्भाग्य की बात यह है कि जिन देशों में दूसरे विश्वयुद्ध के पहले तक कार्य-कारणता इतनी महत्व की नहीं थी, और जहाँ उसका नैतिकता से वह सम्बन्ध्ा नहीं था जो उसका पश्चिमी सभ्यता में बना, वहाँ भी इस व्यवहारिक कार्य-कारणता को स्वीकार कर लिया गया। इसमें भारत भी शामिल है। यही हमारे व्यवहार के कण-कण में समा गयी है। ‘कस्बा’ देखकर मुझे अमरीका से एक स्त्री ने पत्र लिखा, ‘मुझे यह फि़ल्म बहुत पसन्द आयी, इसने मुझे छुआ, यह खूबसूरत है पर आपको यह समझना होगा कि हम तार्किक लोग हैं और आप नहीं हैं।’ ऐसा मुझे कई गोरों ने कहा है। तुम्हें पता ही है कि यह फि़ल्म चेखव की कहानी पर आध्ाारित है और मुझे नहीं लगता कि मैंने उस कहानी को बदला है। कहानी को मैंने नहीं बदला पर बाकी बदल गया है। यह विचित्र है कि इस तरह की प्रतिक्रियाएँ आती रहती हैं और फिर इन्हें ही भारत के लोग भी आत्मसात कर लेते हैं। इस तरह यह विचार अनिवार्य हो जाता है। फिर फि़ल्मकार भी इस दृष्टि को आत्मसात कर लेते हैं और यह कहना शुरू कर देते हैं कि वे आख्यान के विरुद्ध हैं। मैंने कुछ लोगों को एक ही साँस में यह कहते सुना है कि वे महाकाव्यात्मक रूपाकार में काम कर रहे हैं और आख्यान के विरुद्ध हैं। यह कैसे सम्भव है ? महाकाव्य आख्यान ही होता है क्योंकि आख्यान में इस पर हमेशा प्रश्न उठाया जाता है कि मनुष्य किस तरह कर्म करे ? वह अतीत को किस तरह समझे कि वह कह सके कि वह इतिहास है और किस तरह कर्म करे क्योंकि महाकाव्य सारी नैतिकताओं को प्रश्नांकित करता है। मैंने पीटर ब्रूक्स की महाभारत का सिर्फ़ फि़ल्म संस्करण देखा है। उसमें मुझे यह बात खटकी कि वह फि़ल्म अभिनेताओं के अलग-अलग देशों के होने के बावजूद सिर्फ़ एक तरह की शेक्सपीरियाई नैतिकता को मानकर चलती है। वह एकीकृत अभिनय सिद्धान्त के आध्ाार पर बनी है। यह नहीं होना था। पीटर श्रेष्ठ निर्देशक हैं फिर ऐसा क्यूँ होना चाहिए था, मैं समझ नहीं पाया। मैं जब भारत भवन के उद्घाटन के मौके पर उनसे भोपाल में मिला था, मैंने उनसे पूछा कि वे महाभारत पर किस दृष्टि से काम कर रहे हैं ? मैं उन दिनों महाभारत का अध्ययन कर रहा था। उन्होंने बहुत चतुर जवाब दिया, ‘क्या आप किसी एक दृष्टि से उसे बना सकते हैं ?’ मैंने कहा, ‘बिल्कुल नहीं। पर आप बिना किसी दृष्टि के फि़ल्म कैसे बनाएँगे ?’ उनका कहना ठीक था। आप महाभारत बनाते समय उस पर कोई रूप आरोपित नहीं कर सकते, आपको उसकी विभिन्न गतियों को यह छूट देनी होगी कि वे अपने आने का संकेत खुद दे सकें। मैं सोचता हूँ कि जो लोग उपज नहीं समझते, वे यह नहीं समझ पाते कि महाकाव्य में उपज होना ही चाहिए। उपज अलग-अलग तरह का आख्यान हुआ करती है। आख्यान एक क्रम है, कैसा भी क्रम, वह न्यूटन का आरोपित किया नहीं है, हमें दुनिया को देखने की न्यूटन की दृष्टि मानने की आवश्यकता नहीं है। पर लोग सोचते हैं कि आख्यान की बात करना न्यूटन के आदर्श की बात करना है।
उदयन- क्या आप यह कह रहे हैं कि वह केवल एक तरह का आख्यान है ?
कुमार- वह बहुत तरह की आख्यानों विध्ाियों में एक है। उसकी वैध्ाता उसके अपने क्षेत्र में है।
उदयन- जब आपने ‘माया दर्पण’ के बारे में बात करते हुए कहानी के प्लाॅट और उसके नैतिक परिप्रेक्ष्य के सम्बन्ध्ा को जोड़ा था, आपका क्या आशय था ?
कुमार- प्लाॅट ही कर्म है, आप संसार में कर्म करते हैं और संसार आपके कर्म को प्रतिरोध्ा देता है। जब आपके कर्म का प्रतिरोध्ा होता है तब जिसे पुरुषार्थ कहा जाता है, आप उसे सक्रिय करते हैं और तब आप एक भीषण द्वन्द्व से गुज़रते हैं। इससे नैतिक प्रश्न उठ खड़े होते हैं जो एक-रैखिक नीति निर्देशों से परे होते हैं जो ग्लानि या लालच या इसी तरह की किसी भावना पर आध्ाारित नहीं होते। यहाँ पाप बोध्ा की भूमिका हो सकती है पर मैं मौलिक पाप को नहीं मानता, लेकिन मैं यह ज़रूर सोचता हूँ कि मौलिक ग्लानि जैसा कुछ होता है। टाॅमस मान ने ग्लानि के इस विचार से खेला है जिसका सम्बन्ध्ा आत्मसजगता से है क्योंकि सचेत होने पर आप अचानक अपने बारे में, संसार के बारे में चमत्कृत होते हैं, ग्लानि वैसा कुछ है, इसका सम्बन्ध्ा पाप से नहीं है। शायद श्ाृंगार के साथ भी ऐसा ही कुछ होता है, उससे आनन्द होता है। जीवित रहे आने के गर्व से भी यह हो सकता है। मुझे नहीं लगता कि इसका सम्बन्ध्ा नीति-निर्देशों से है जो इसके चारों ओर खड़े कर दिये जाते हैं और न ही मनोविश्लेषण के अवशेषों से।
उदयन- इस तरह आपको ऐसी कहानी मिल गयी जिसमें ढीला-ढाला प्लाॅट था या नहीं था लेकिन आपने उस आख्यान में भी अपनी बढ़त की है, बल्कि आपने उसे कथा की तरह लिया ही नहीं, आख्यान की तरह लेकर उसमें बढ़त की। एक तरह से आपकी फि़ल्म निर्मल वर्मा की कहानी से अलग ही एक आख्यान है क्योंकि आप उनसे अलग व्यक्ति हैं। जैसे अनेक रामायणों की कथा एक-सी हो सकती है, पर उनके आख्यान अलग होते हैं। जब आप यह फि़ल्म बना रहे थे, आपने कथावस्तु की भी बढ़त की थी, क्यों ? क्या फि़ल्म बनाते हुए आपको यह लगा कि इसके बगैर आपका आख्यान अध्ाूरा रह जाएगा ?
कुमार- मैं यह विश्वास करना चाहूँगा कि कहानी में उपज के संकेत थे, जैसे उसमें काली मन्दिर का एक संकेत था, मैं वहाँ से लाल, काले और सफ़ेद रंग के नृत्य की ओर चला गया, जिससे मैं उसे हिंसा की आवश्यकता से जोड़ सकूँ। फिर उस कहानी में असम की हरीतिमा की चाहना भी थी, वह केवल चाहना थी, वहाँ वास्तविक असम नहीं था, वह काल्पनिक है। वहाँ उसका (कहानी की नायिका) भाई रहता है। यहाँ भी मैंने उपज की थी। भाई के लिखे पत्र में भी इसकी सम्भावना थी जो नाव की श्ाृंखला के दृश्यों में है और जहाँ दोहराव के साथ संघनन भी होता है।
उदयन- नीली दिगम्बरा की प्रस्तुति भी इसी उपज का अंग है। क्या इसका कोई सम्बन्ध्ा ऋत्विक घटक की ‘सुबर्ण रेखा’ के ‘बहुरूपिया’ से है ? कल जब ऋत्विक दा की वह फि़ल्म देख रहा था, मुझे इनके बीच एक सम्बन्ध्ा दिखायी दिया।
कुमार- तुम ठीक कह रहे हो, यह दृश्य वहीं से आया है और ‘मेघे ढका तारा’ से भी। उसके संगीत में भी ‘मेघे ढाका तारा’ की ओर इशारा है। हमने पानी की आकांक्षा के लिए राग मल्हार का उपयोग किया था। भास्कर चन्दावरकर ने यह किया था। वे लगभग ऋत्विक घटक के शिष्य ही हैं। पहले जब भास्कर ने ज़रीन दारूवाला से मल्हार बजाने का आग्रह किया, वे बोलीं ‘मैं मल्हार नहीं बजा सकती। आप जो स्क्रीन पर दिखा रहे हैं, उसमें बारिश कहाँ है ?’ भास्कर ने उन्हें बताया, ‘कुमार अपने गुरू की फि़ल्म की ओर इशारा करने की कोशिश कर रहा है।’ पर वे बोलीं ‘आप यह कैसे कर सकते हैं ?’ तब मैंने उन्हें बताया, ‘यहाँ बारिश की चाहना है।’ आपको उनके स्तर के संगीतकार को भरोसा दिलाना होता है, तभी वे उपज करते हैं। हरिप्रसाद चैरसिया भी वहीं थे। उन्होंने वह बड़े आराम से कर दिया और उन्हें उसमें अन्तर्निहित सम्बन्ध्ा भी पसन्द आये। इस तरह के संकेत कहानी में हैं और जब मैं अपनी फि़ल्म भाषा लाया, तब एक तरह की अन्तर्पाठीयता विकसित हो गयी।
उदयन- आपने ‘माया दर्पण’ में इशारों और संकेतों की बात कही, क्या हम कह सकते हैं कि आपका महाकाव्यात्मक रूप की ओर लगाव तभी से विकसित होना शुरू हो गया था ?
कुमार- वह लगाव उसके पहले भी था, जब मैं फि़ल्म संस्थान में था क्योंकि ऋत्विक उस तरह सोचने लगे थे और जो पहली महान फि़ल्म मैंने देखी थी, वह एक तरह से ‘सुबर्ण रेखा’ ही थी। मैंने यह महसूस किया था कि मैं इसी तरह कहीं पहुँच पाऊँगा। मुझे एक किस्म के देशप्रेम का आवेग अनुभव हुआ था। मुझे लगा था कि यह मेरी विरासत है और मेरे चारों ओर फैली है। मुझे उस विरासत पर गर्व था जो मुझ तक न सिर्फ़ ऋत्विक दा के रास्ते आयी थी बल्कि उसमें कोसाम्बी की भी भूमिका थी। हमारे आपस के बात करने के ढंग, हमारे एक-दूसरे से जुड़ने के तरीकों में भी यही अन्तर्पाठीयता हर जगह रहती है। मुझे नहीं लगता कि ऐसा यूरोप में है। बुर्जुआ वर्ग ने भौतिक अर्थों में सफल सामाजिक रूपान्तरण के सहारे इसे अवरूद्ध कर दिया है। यह वही अर्थ है, जिसके सहारे यूरोप ने उपनिवेशीकरण किये। महाकाव्यात्मकता में आनन्द का अनुभव है जो आपको होता है और जिसे किसी भी तरह निश्चितताओं या उसी तरह के दबावों से समाप्त नहीं किया जा सकता।
उदयन- पर वैसा पश्चिम में हो गया ? आप मुझे ‘सुबर्ण रेखा’ को देखने के अपने अनुभव के बारे में बता रहे थे। आप उन दिनों, जैसा कि आप मुझे बता रहे थे, बम्बई में एक फि़ल्म क्लब के सदस्य थे और बहुत सारी फि़ल्में देखा करते थे। ऐसे परिवेश में जब आपने ‘सुबर्ण रेखा’ देखी, आपकी कैसी प्रतिक्रिया या प्रतिक्रियाएँ थीं ? आखि़र आपको उसे पहली बार देखने में ऐसा कुछ ज़रूर लगा होगा जिसके कारण न सिर्फ़ उस फि़ल्म बल्कि उसके फि़ल्मकार से आप पूरी जि़न्दगी जुड़े रहे।
कुमार- वह एक तरह की अप्रत्याशित उपलब्ध्ाि थी। जैसे कि इन दिनों मेरे लिए चीनी आॅपेरा है। पर वह उपलब्ध्ाि इससे भी अध्ािक विस्मयकारी थी। मैंने तब तक ऋत्विक दा के बारे में बहुत नहीं सुना था। मुझे सिर्फ़ इतना पता था कि ऋत्विक घटक नामक फि़ल्मकार अपनी फि़ल्म को दिखाने की इच्छा से आ रहे हैं। उस फि़ल्म को बम्बई में ऋत्विक घटक के साथ हम दो या तीन लोगों ने देखा और मैं यह सोचकर चकित रह गया कि दुनिया में कहीं भी ऐसी फि़ल्म बन सकती है। वह मेरे बड़े भाई की फि़ल्म जैसी थी। ज़ाहिर है वे आगे चलकर वही बन गये, बड़े भाई। फि़ल्म देखने के बाद मैंने उस अद्भुत फि़ल्म के बारे में दूसरे लोगों से भी बात करने की कोशिश की पर उसके लिए न मेरे पास न आवश्यक शब्द थे, न छवियाँ। बाद के दिनों में मैं यह समझ सका कि वह क्या था जो मैंने उस फि़ल्म में अनुभव किया था।
उदयन- उन दिनों आप बम्बई में पढ़ रहे होंगे ? जहाँ तक मुझे पता है, आप वहाँ उस लारकाना से आये थे, जो पाकिस्तान का हिस्सा बनने को था।
कुमार- लारकाना ही वह जगह है जहाँ मैं पैदा हुआ था। मेरा परिवार हैदराबाद सिन्ध्ा से है। मेरा ज़्यादातर बचपन लारकाना में बीता है। हम छुट्टियाँ मनाने हैदराबाद और कराची जाते थे। मेरा मतलब मेरे पिता और बड़े भाई-बहनों की छुट्टियों से है। मैं हमेशा ही छुट्टी पर रहता था क्योंकि मैंने स्कूल जाने से इंकार कर दिया था।
उदयन- आप विभाजन के समय शायद सात वर्ष के आसपास के थे ? विभाजन का आप पर क्या असर हुआ था ? मैं ऐतिहासिक घटनाओं की बात नहीं कर रहा, मैं यह जानना चाह रहा हूँ कि उस सबका आप पर क्या असर हुआ ?
कुमार- मैं खासा अचम्भे में था और उत्तेजित भी। वह किसी नयी दुनिया में जाने जैसा था। हमें अचानक अपनी जगह छोड़कर नयी जगह आना पड़ा था। जब हम यहाँ आ गये, पीड़ा की शुरुआत हुई, उस ‘खोने’ की जो मैं अपने माता-पिता में देख सकता था। मैं सिर्फ़ सात वर्ष का था। हम आये और बोरिवली में रहने लगे जो तब बम्बई का दूर का कस्बा था। शुरुआत में हम एक बँगले में रहते थे, जिसके बड़े-से अहाते में बहुत-से सुन्दर पेड़ लगे थे। मुझे पेड़ बहुत प्रिय थे। उसके बाद सभी लोग बीमार पड़ने लगे। वहाँ कुँए का पानी आता था जो हमारे शरीर के लिए मुनासिब नहीं था। उन्हीं दिनों हमारे घर डाका भी पड़ा था। गाँध्ाी की मृत्यु हुई पर उसे मैं समझ नहीं सका पर मैं उसके सदमे को देख सकता था, भीषण असुरक्षा को भी, जो वहाँ उत्पन्न हो गयी थी क्योंकि लोग यह कहते थे कि तुम पराये हो और वे हमारी तरफ इस तरह देखते थे मानो हम ऐसे लोग हों, जिन्हें वहाँ लौट जाना चाहिए, जहाँ से वे आये थे। वे हमें अक्सर मुसलमान समझते थे। यह सब मेरे लिए समझना मुश्किल था। मैं बच्चा था। मुझे मुसलमानों से कोई समस्या नहीं थी, वहाँ भी जहाँ हम रह रहे थे और वहाँ भी जहाँ से हम निकाल दिये गये थे। मैं सोचा करता, ‘मैं हूँ कौन ?’ मुझे उस सबका अर्थ स्पष्ट नहीं होता था, अलावा इस बात के कि मुझे उस उम्र में भी यह विचित्र लगता था कि आपको एक जगह इसलिए छोड़नी पड़ी क्योंकि वह इस्लामी राष्ट्र बन गयी है और आप मुसलमान नहीं है। आप इस देश में आते हैं और लोग आपको मुसलमान कहते हैं। यह वही अनुभूति थी जो आपको तब होती है, जब आपसे यह कहा जाता है कि आप बाकियों जैसे नहीं हैं, आपकी भाषा अलग है, आपके रीति-रिवाज़, खान-पान अलग हैं। शुरुआत में अपने कोई और होने का एहसास बहुत तीखा था। फिर मेरे पिता की मृत्यु हुई। यह हमारे बम्बई आने के दो-तीन साल बाद की बात है। मैं नौ साल का था और मैं स्कूल जाने लगा था। इसके पहले तक मैं नहीं जा रहा था। मेरी माँ मेरे प्रति बहुत स्नेहिल थी, वह कहती थी, ‘अगर स्कूल नहीं जाना चाहते, मत जाओ’ पर जब पिता चले गये, मैं अपनी माँ के प्रति बहुत जि़म्मेदार महसूस करने लगा। हालाँकि यह ज़रूर है कि वह असम्भव जि़म्मेदारी का एहसास था। मैं सिर्फ़ नौ साल का था और कर भी क्या सकता था। ये तब के कुछ शुरुआती अनुभव हैं।
उदयन- इस विस्थापन ने आपको फि़ल्म बनाने की ओर किस तरह मोड़ा होगा, मैं यह प्रश्न इसलिए पूछ रहा हूँ क्योंकि आप कुछ दिन पहले यह कह रहे थे कि फि़ल्में अध्ािकतर उन लोगों ने बनायी हैं जो किसी न किसी रूप में अपनी जड़ों से कटे हुए थे...
कुमार- मैंने बहुत हाल में यह अनुभव किया कि फि़ल्म बनाने का सम्बन्ध्ा कुछ-कुछ विस्थापन से है। इसे मैंने अनुभव भले ही हाल में किया हो पर यह मेरे साथ पहले से रहा है। एक भाषा गढ़ने की आकांक्षा। अन्ततः वह इस तरह होता हैः आपको भाषा गढ़ना पड़ती है क्योंकि आप अपने आसपास के लोगों से संवाद करना चाहते हैं, पर आप उनमें से एक नहीं होते। आपको बताया जाता है कि आप स्थानीय नहीं हैं, पर तब भी संवाद की ज़रूरत बनी रहती है। शायद इसीलिए लोग सिनेमा देखने जाते हैं, क्योंकि वह यह संवाद मुमकिन कर देता है, उसकी भाषा में रंग होते हें, आवाजे़ं और वह भाषा भी जो हम बोलते हैं पर तब भी वह रची जाती है। सिनेमा पर रंगकर्म के जैसा बोझ नहीं है, क्योंकि विशेष अभिव्यक्ति की माँग रंगकर्म से जुड़ी होती है, सिनेमा से नहीं।
उदयन- जैसे हमारे पास पारसी रंगकर्म है लेकिन इस तरह का कोई सिनेमा नहीं है।
कुमार- अलावा इसके कि मुझे शुरू से इस बात से घबराहट होती थी कि कुछ लोग मसलन खुद को कन्नड़ फि़ल्मकार कहते हैं या उसी तरह का कुछ ज़ोर देकर कहते हैं या यह कहते हैं कि मैं भारतीय फि़ल्मकार नहीं हूँ, मलयाली हूँ। बहुत-से लोग इस तरह बोलते हैं और विश्व बाज़ार इस सबको प्रोत्साहित करता है।
उदयन- ऐसा कहकर फि़ल्मकार महाकाव्यात्मक सिनेमा की सम्भावना को खुद ही अवरुद्ध कर देता है।
कुमार- मैं भी यही सोचता हूँ।
उदयन- घटक की फि़ल्मों के अलावा आपने अपने फि़ल्म जीवन के आरम्भ में कौन-सी ऐसी दूसरी फि़ल्में देखी थीं, जिनका महाकाव्यात्मक रूपाकार से कोई भी सम्बन्ध्ा था ? क्या ज्याँ लुक गोदार की ‘वीव रसे वी’ (माय लाईफ़ टू लिव) भी उनमें से एक है ?
कुमार- नहीं। मैंने वह बाद में पेरिस में देखी थी। उन शुरुआती दिनों हमने जो फि़ल्में देखीं जिनका सम्बन्घ महाकाव्यात्मक प्रकृति से था, उनमें आइजे़न्स्टाइन की फि़ल्में विशेषकर ‘युद्ध पोत पोटेम्किन (बेटलशिप पोटेम्किन)’ और कुछ बाद की फि़ल्में हैं जिनमें छवि और ध्वनि के बीच बहुत दिलचस्प सम्बन्ध्ा हैं। लेकिन इस सम्बन्ध्ा का मौलिक स्वरूप ‘पोटेम्किन’ में चरितार्थ हो गया था और यह भी है कि ऋत्विक दा आइजे़न्स्टाइन से मिले बिना ही उन्हें अपना गुरू मानते थे। कहा जाता है कि कलकत्ते में उनकी पुस्तक ‘फि़ल्म सेन्स’ की केवल एक प्रति थी, उसी को सारे शहर ने पढ़ा था। हरेक उसे जितना बन पड़े, अपने जे़ब में रखना चाहता था। फि़ल्म संस्थान में रहते हुए मैंने ब्रेसाँ की फि़ल्में नहीं देखी थीं। गोदार की फि़ल्मों में तुम्हें महाकाव्यतम्क रूप को पाने की चाहना दीखती है पर वह चरितार्थ नहीं होती। वह गीतात्मक संरचना के प्रमाणों में ही बँध्ाी रह जाती है।
उदयन- आप ऋत्विक दा की फि़ल्मों के विषय में भी यह कह रहे थे कि वे कई बार मिथकीय रूप के परे नहीं जा पातीं। वे महाकाव्यात्मक होने की चाहना रखते हुए भी ‘मिथकीय’ रूप में ठहर जाते हैं...
कुमार- इसीलिए उनकी संरचना में आद्यरूप (आर्किटाईप) इतने अध्ािक आध्ाारभूत हो जाते हैं। मैं यह कह रहा हूँ कि मुझे यह बहुत अर्थपूर्ण लगता है कि उनकी फि़ल्मों का महाकाव्यात्मक और मिथकीय रूपों के बीच का आन्दोलन ‘तीताश’ देखते हुए तुम समझ सकते हो कि वह महाकाव्यात्मक है पर वह फिर से मिथक की तरह सुगठित हो जाती है। ‘सुबर्ण रेखा’ में भी ‘बहुरूपिया’ रामायण के विषय में जो कहता है, वह खूबसूरत मिथकीय संरचना ही है। मिथकीय संरचनाएँ महाकाव्यात्मक रूपों से बहुत मौलिक स्तर पर कहीं अध्ािक खूबसूरत होती हैं क्योंकि उनमें स्पष्टता होती है। उनका उपयोग कर्म के विस्तार में होता है। उनका उपयोग रोज़मर्रा का जीवन जीने में भी है और जिसे राजनैतिक कर्म कहा जाता है, उसमें भी। मिथकीय संरचनाएँ जैसी कि ऋत्विक दा की कृतियों में है। मोटे तौर पर राजनैतिक कहे जाने वाले कर्म में आवश्यक है।
उदयन- एक काव्यात्मक संरचना जो राजनैतिक कर्म को सम्भव करती हो...
कुमार- या एक अनुष्ठान, अपने सच्चे अर्थों में सामाजिक कर्म। क्योंकि मैं सोचता हूँ कि एक सच्चा मिथक अनुष्ठान में उत्पन्न होता है, जैसा कि शिकार के अनुष्ठान का लेवी स्त्रास और अन्यों ने वर्णन किया है। मिथक की संरचना में एक तरह की गति होती है। अगर आपको आकाश शूट करना है, उसका उलट बहुत खूबसूरत होगा। आकाश शूट करने के लिए गढ्ढा खोदना। यह वास्तविक राजनैतिक कर्म में भी होता है, वह भी विपरीत का तर्क तैयार करता है जो निश्चय ही यान्त्रिक नहीं होता पर तब भी चीजे़ं करने का सफल तरीका होता है। आकाश में कुछ शूट करने के लिए गढ्ढा खोदना तार्किक कर्म नहीं है लेकिन एक स्पष्ट निश्चय है और यह सामान्यतः बहुत सफल भी रहता है क्योंकि ऐसे अनुष्ठान सचमुच मौजूद हैं और लोग उनके सहारे क्रियाशील भी होते हैं। महाकाव्यात्मक रूपाकार में आपको मिथक की उपस्थिति की आवश्यकता निश्चय ही होती है पर उसे किसी जगह घुल सकना चाहिए या उसे कुछ देर के लिए स्वयं को मिथक की तरह दिख जाना चाहिए।
उदयन- शायद आप कह रहे हैं कि मिथक को अपने आप को एक ‘की गयी बुनावट’ की तरह प्रदर्शित करना चाहिए।
कुमार- और फिर घुल जाना चाहिए।
उदयन- इस सबके बावजूद महाकाव्यात्मक रूपाकार और ऋत्विक घटक की फि़ल्मों में अनेक ध्ाुरियों की उपस्थिति के बीच कुछ समानता ज़रूर है।
कुमार- बिल्कुल है, उनके बिना हम कहीं पहुँच नहीं सकते थे। वहाँ कई ध्ाुरियाँ हैं जो एक-दूसरे से खेलती हैं।
उदयन- सिनेमा के अलावा, महाकाव्यात्मक रूपाकारों का आपके जीवन में किस तरह प्रवेश हुआ होगा।
कुमार- शुरुआती सम्बन्ध्ा भाषा में हुए अनुभव थे। मेरा आशय यह है कि जब विभाजन के कारण हमने अपनी भाषा को खोया, भाषा की चाहना और बढ़ गयी इसीलिए शुरुआती सम्बन्ध्ा भाषा के भीतर बने। लोगों का अलग-अलग ढंग से बोलना और लिखना। इसका श्रेय विभाजन को भी है, और बम्बई और दूसरी तमाम चीज़ों को। मैं सोचता था कि हर भाषा मेरी भाषा है।
यही मेरा एकमात्र विकल्प था, किसी भी भाषा को अपनी न मानने का कोई सवाल ही नहीं था। मैं वैसा कह ही नहीं सकता था। अपनी मातृभाषा के अलावा मेरे चारों ओर बहुत सारी भाषाएँ थी और वे मेरी आकांक्षा की तरह थीं, उन स्त्रियों की तरह जिनकी मुझे आकांक्षा थी। साहित्य के रास्ते ही मैं उनके सम्पर्क में आ सकता था क्योंकि साहित्य हर समय हर ओर स्पन्दित था, आप जब भी किसी कल्पनाशील व्यक्ति से बात करते थे साहित्य वहाँ होता था। इस तरह कम से कम हिन्दी, मराठी, फ़ारसी, सिन्ध्ाी, बंगाली, मलयालम मुझे घेरे रहती थीं। लोग इन भाषाओं का, उनकी मौजूदगी का आनन्द लेते थे। महाकाव्यात्मक अनुभव की शुरुआत वहाँ है। फिर ख़याल गायकी, थोड़ा-सा पश्चिमी संगीत, कुछ ध्ा्रुपद और कर्नाटक संगीत भी आसपास थे। नृत्य की विध्ााएँ जो स्वयं गूढ़ भाषा होती हैं। इस तरह गूढ़ भाषाओं और सांगीतिक श्ाृंखलाओं के बीच के सम्बन्ध्ा भी ध्वनित होते रहते थे। वह सब एक तरह से श्ाृंगारमय हो जाता था क्योंकि आप अन्य में रूपान्तरित हो जाते थे और इच्छा का जन्म होता था। आकांक्षा के लिए अस्पष्टता आवश्यक होती है। शुरू में मुझे कार्ल युंग समझ में नहीं आता था। मैं उन्हें ऋत्विक दा और ख़ुद अपनी दृष्टि से कुछ-कुछ प्रतिक्रियावादी समझता था लेकिन बाद में मुझे समझ में आया कि युंग भी अपने ढंग से इतिहास का सार प्रस्तुत कर रहे थे। वहाँ भी मिथकीय रूपाकार आ जाते हैं, वहाँ से उन्होंने कबीलों के बीच के सम्बन्ध्ा आदि खोजे और उन सम्बन्ध्ाों का सार प्रस्तुत किया। इसीलिए ऋत्विक दा के महाकाव्य में मिथकीय रूपाकार लौटते हैं। ये चीजे़ं ख़ुद मुझे अभी तुमसे बात करते हुए और साफ़ हो रही हैं। मैं सोचता हूँ मिथक का अपना एक औचित्य है, वह महाकाव्य के चरितार्थ होने में भूमिका निभाता है।
उदयन- जब आप अपनी पहली फि़ल्म संस्थान की डिप्लोमा फि़ल्म ‘ग्लास पैन’ बना रहे थे, उसमें भी जो एक चीज़ नहीं थी, वह ‘प्लाॅट’ था। आप उस फि़ल्म में भी ‘प्लाॅट’ से निजात पाकर उस फि़ल्म के पुरुष पात्र के स्त्री पात्र से सम्बन्ध्ाों पर एकाग्र होते हैं और जिसे मैं घूँघट कह रहा हूँ, उसके प्रकारों को उद्घाटित करते हैं, चाहे वह रेलगाड़ी के डिब्बे या कार के शीशा हो या कुछ और। आप एक तरह से उस फि़ल्म में भी आख्यान को खोजने का प्रयास कर रहे थे।
कुमार- ‘खोलना’ सही शब्द है। मैं खुलना चाहता था। जबकि कुछ लोगों ने कहा कि वह बौद्धिक फि़ल्म है या इसी तरह की कोई फि़जूल बात। वे अलगाव (एलियनेशन) के बारे में बोले पर मैं समझ नहीं पाया कि वे उस फि़ल्म को इस तरह सीमित करना क्यूँ चाहते थे। मैंने अलगाव पर फ्रायड, माक्र्स के लेख पढ़ रखे थे और काफ़ी बाद में मैंने एण्टोनियोनी की फि़ल्में देखीं पर वह बात उस फि़ल्म के सन्दर्भ में सच नहीं थी। सच वह था जो तुम कह रहे होः ‘ग्लास पैन’, घूँघट (वेल)। घँूघट रास्ते में आ जाता है पर वही रास्ता भी है। आप उसी रास्ते अपने गन्तव्य तक पहुँचते हैं। आप केवल उसी रास्ते ‘वध्ाु’ बनाते हैं। वध्ाु का सौन्दर्य तभी होता है, जब घूँघट होता है, वही उसे ध्ाुँध्ालाता है, वही प्रकट करता है। तुम्हें उद्घाटन की चाह होना चाहिए क्योंकि दिया हुआ कुछ भी नहीं है।
उदयन- क्या यह आपके मन में स्पष्ट था कि आप ‘ग्लास पैन’ में कोई कहानी नहीं होगी या ये इसलिए हुआ कि यही आपका स्वभाव है ?
कुमार- यह स्वभाव के कारण ही हुआ। यह मेरे मन में बिल्कुल भी स्पष्ट नहीं था। जब मैंने ‘माया दर्पण’ बनायी, मैंने सोचा था कि यह एक कहानी है। मेरे मन में यह बिल्कुल भी साफ़ नहीं था कि इसमें कोई प्लाॅट नहीं है। यह तो बाद में हुआ कि जब मैंने उसको मुड़कर देखा तो पाया कि ‘प्लाॅट’ नहीं है। यह मुझे ‘तरंग’ बनाते समय स्पष्ट था, मैं वहाँ एक ऐसा ‘प्लाॅट’ बनाने का प्रयास कर रहा था, जिसमें अलग-अलग ध्ाुरियाँ सक्रिय होंगी। मुझे उस प्रचलित रिवायत में इसलिए रुचि थी क्योंकि वह महाकाव्यात्मक रूप के लिए आवश्यक है। ऋत्विक भी इस बारे में सजग थे, मसलन वे ‘सुबर्ण रेखा’ में संयोगों का इस्तेमाल करना चाहते थे। संयोग से मुख्य पात्र को वह आदमी मिलता है जो उसे नौकरी दिलवाता है, संयोग से वो अपनी बहन के पास जाता है, ऋत्विक दा इस युक्ति को चैंकाने के लिए इस्तेमाल करना चाहते थे।
उदयन- सारे लोकप्रिय साहित्य का ढाँचा दरअसल संयोगों पर ही खड़ा होता है।
कुमार- बिल्कुल और मेलो ड्रामा पर भी। उन्होंने वह सब इन्हीं से लिया था। खुद अभि भट्टाचार्य, जो उस ज़माने के लोकप्रिय अभिनेता थे, शायद इसीलिए घटक से तादात्म्य स्थापित कर सके।
उदयन- ‘ग्लास पैन’ पर दर्शकों की क्या प्रतिक्रिया थी क्योंकि वह निश्चय ही आपकी फि़ल्मों को न समझने के लम्बे इतिहास की शुरुआत रही होगी ?
कुमार- शुरुआती प्रक्रिया बहुत कुछ न समझने की ही थी। कुछ लोग ऐसे थे जो सिनेमा में रुचि रखते थे और वे मेरे दृष्टिकोण को देख पाये थे लेकिन इसके अलावा कोई बेहतर प्रतिक्रिया नहीं हुई। जैसे कई बार वे मुझसे कहते कि वह ‘हैण्ड हेल्ड शाॅट’ आवश्यक नहीं था जबकि इससे ठीक उलट उस शाॅट में जो मैं करने की कोशिश कर रहा था, उसे एक तरह का सौन्दर्यात्मक आयाम उस ढंग ने दिया था। मेरा मतलब यह है कि ‘हैण्ड हेल्ड शाॅट’ की कुछ सम्भावनाएँ हैं और सीमाएँ भी हैं, जहाँ आप उसका उपयोग कर सकते हैं। बाद के दिनों में के.के. महाजन से वैसा शाॅट लेने का कई ने कहा पर उन जगहों पर उसकी अर्थवत्ता की कोई सम्भावना नहीं थी, वह कुछ वैसा ही था, मानो आप एक ऐसे छन्द का प्रयोग कर रहे हों, जो कविता में बुना हुआ नहीं है।
उदयन- लेकिन आपकी फि़ल्म ‘ग्लास पैन’ में ‘हैण्ड हेल्ड शाॅट’ की संगति के विषय में केमरामेन के.के. महाजन से कुछ लम्बी बातचीत हुई होगी।
कुमार- नहीं। के.के. के साथ अद्भुत बात थी कि वे निर्देशक को, अगर उनकी उसमें रुचि हो, पूरी तरह समझते थे। वे यह महसूस कर सकते थे कि हर निर्देशक की अपनी कल्पनाएँ होती हैं जिन्हें चरितार्थ करना उनका काम था। हम आपस में बात करते थे पर शूटिंग के समय आमतौर पर उसकी आवश्यकता नहीं होती थी। यह उनके लिए एक तरह से पीड़ादायक भी था क्योंकि यह करने में उन्हें खुद अपने आप को रोकना पड़ता था। दरअसल वे एक माँ की तरह थे, जो अपनी भावनाओं और तकलीफ़ों को अनदेखा करती है ताकि वह बच्चे का पालन-पोषण कर सके।
उदयन- इस मामले में फि़ल्मकार की कल्पना का पोषण...
कुमार- हाँ। उनका इसी कि़स्म का सम्बन्ध्ा फि़ल्मकार से बन पाता था, कम से कम मेरे लिए वे दाता थे। मैं सोचता हूँ वे दाता थे। मुझे नहीं मालूम कि इसके बदले मैंने उनके लिए क्या किया होगा। कैमरामेन होने का यही जादू है। वह अपना सबकुछ पीड़ा आदि दबा लेता है, यह दबाना इतना अध्ािक होता है कि कई बार वे फट पड़ते थे। आमतौर से रात में।
उदयन- आपने एक किस्म की चाहना के विषय में अभी कुछ कहा था कि आप बात करना चाहते थे और आपको स्थानीय व्यक्ति की तरह स्वीकार नहीं किया जाता था। मैं सोचता हूँ कि इस चाहना ने आपको आपकी फि़ल्मों के कुछ चरित्रों को चुनने को प्रेरित किया है। वे सभी इस चाहना से भरे हुए हैं जैसे ‘माया दर्पण’ में ‘तरन’, ‘ग्लास पैन’ की मुख्य स्त्री पात्र, ‘तरंग’ में ‘हंसा’, और कस्बा में ‘छोटी बहू’। ये सभी जानने की चाहना से भरे हुए हैं। क्या आप सोचते हैं, जैसा कि मुझे लग रहा है कि इस चाहना ने आपकी फि़ल्मों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है ?
कुमार- हाँ। यह एक तरह से उन सब रूपाकारों में भी थी जिनके बीच रहकर मैं बड़ा हुआ हूँ। ख़याल संगीत में यह चाहना भरी हुई है। उसके होने का स्वरूप ही विप्रलम्भ श्ाृंगार है। उसमें और सब है पर उसमें मूलतः विप्रलम्भ है। बचपन में मेरी सुनी कविताओं में लगभग सभी भक्ति और सूफी कविताएँ थीं। उनमें अध्ाूरी चाहना के अलावा और कुछ नहीं है। आमतौर पर पूरी हुई आकांक्षा या चाहना का रूपक हमें आध्यात्मिक अनुभव तक नहीं ले पाता, वह उसका पात्र नहीं बन पाता। दरअसल सारी काव्यात्मक विध्ााएँ खुद को इसी स्थिति में ले आती हैं। क्या यह तुम्हारे साथ भी सही नहीं है, मसलन तुम किन कविताओं के बीच बड़े हुए हो ?
उदयन- उनमें भी अध्ािकांश भक्ति की कविताएँ होती थी। मुख्य रूप से गोस्वामी तुलसीदास की कविताएँ क्योंकि वे हर ओर थीं, घर में और घर के बाहर।
हमारी माँ हर सुबह ‘रामचरितमानस’ पढ़ती थीं, कई बार वे शाम को वह भी पढ़ती थीं। वह पाठ घर का दैनिक अनुष्ठान जैसा था जिसे हम सभी भाई-बहन अलग-अलग ढंग से प्रतिकृत होते थे पर हम सभी जाने-अनजाने उसे दर्ज करते ही थे। फिर कभी कबीर, सूरदास, मीरा आदि की कविताएँ भी मौजूद थी लेकिन उनमें से अध्ािकतर स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा थीं और वे भी कुछ समय बाद मेरा हिस्सा बनी होंगी। मैं यह विश्वास करना चाहूँगा कि खुद मेरी कविता भक्ति कविता की एक तरह की सूक्ष्म संवेदना से आकार लेती है।
कुछ फि़ल्मकारों के लिए यह चाहना उनके लिए प्रस्थान बिन्दु है पर आपके लिए नहीं क्योंकि आपकी फि़ल्मों में यह प्रस्थान बिन्दु नहीं बल्कि फि़ल्म का सूक्ष्म स्वरूप ही है।
कुमार- शायद यही मेरी फि़ल्मों का शास्त्र है। यह मुझे मिला हुआ है और मैं समझ नहीं पाता कि इसका क्या किया जाए। कई बार अपनी फि़ल्में देखते हुए मैं अपने से कहता हूँ कि इन फि़ल्मों में इतनी अध्ािक चाहना इतने नंगे रूप में क्यों है ? वह बहुत अध्ािक है। कई लोगों का सोचना है कि इन फि़ल्मों में मानो कोई राहत नहीं है। मुझे नहीं पता इसका मैं करूँ। मैं यह बिल्कुल चाहता हूँ कि उन्हें वहाँ किसी तरह की खुशी मिले, वह उन्हें मिलती भी है पर वे यह शिकायत भी करते हैं कि इसमें बहुत अध्ािक चाहना है। उसमें अन्य संवेदनाएँ भी हैं पर ज़ाहिर है वे उनके लिए हैं, जो उन्हें पा सकें। कई बार वे उन्हें नहीं पा पाते और मैं सोचता हूँ कि कहीं कोई दोष उनमें भी तो नहीं है जिन्हें वे संवेदनशील नहीं लगतीं। उनका मैं तिरस्कार नहीं करता पर चिन्तित होता हूँ कि ऐसा कैसे हो जाता है। उन फि़ल्मों में संवेदनाओं का भी आध्ािक्य है।
उदयन- दरअसल उन दर्शकों को उन फि़ल्मों में अतिशय संवेदनाएँ पा सकना चाहिए। ‘माया दर्पण’ में अन्य विस्तारों के अलावा आपने ‘चाहना’ का फि़ल्म में कहानी के सन्दर्भ में जो विस्तार किया है, वह देखने लायक है। कैमरा जिस तरह कुर्सियों और दूसरी वस्तुओं के खालीपन को रेखांकित करता है, उससे मेरे विचार में अभाव और इस तरह चाहना की गहरी संवेदना महसूस होती है।
यह बातचीत पूना विश्वविद्यालय के उद्यान में हो रही थी। हम ऊँचे पेड़ों और घास से घिरे और बादलों की छाया में बैठे थे। सामने विश्वविद्यालय की इमारत थी। दोपहर के प्रकाश को हल्की बूँदाबाँदी रह-रहकर फ़ीका कर जाती थी और विश्वविद्यालय की इमारत के पत्थर कुछ कोमल पड़ जाते थे। हम एक ऊँचे, घने पेड़ के नीचे बैठे थे और पूना की निःशब्द गिरती बारिश को देखते हुए बातें करते जा रहे थे।
उदयन- जब हम पूना विश्वविद्यालय के इस अहाते में आ रहे थे, आपने सबसे पहले पेड़ों को ध्यान से देखा और उस के बारे में बात भी की। आपकी फि़ल्मों में भी पेड़ों का महत्वपूर्ण स्थान है। वे उनमें केवल परिवेश का भाग नहीं होते बल्कि वे अर्थमय उपस्थिति होते हैं।
कुमार- जब मैं बच्चा था और जल रंगों से चित्र बनाता था, उनमें पेड़ ज़रूर होता था। यह बचपन से ही थाः पेड़। मुझे याद है कि एक बुज़ुर्ग ने मुझसे पूछा था, ‘तुम हमेशा पेड़ क्यों बनाते हो ?’ ‘तरंग’ फि़ल्म के लिए मैं एक पेड़ को ढूँढने हर तरफ गया। मैं महाबलेश्वर गया, पूना गया, लोनावाला गया। लगभग वह सारा इलाका मैं उसकी खोज में भटका और अन्त में मुझे वह महाराष्ट्र के रायगढ़ में मिला। वह फि़ल्म में गाने में आता है, बरगद का पेड़ और उस पर मोर।
उदयन- क्या आप भी सत्यजीत राय की तरह शूटिंग पर जाने से पहले स्केच बनाते हैं ?
कुमार- मैं वे अपने लिए बनाता हूँ। वे स्वरलिपि की तरह होते हैं, मैं उन्हें अपने सोचने के लिए बनाता हूँ। मान लो मैं किसी स्थान पर संक्रमिकता में एक रेखा या एक रूप की पूरकता के विषय में सोच रहा हूँ और मुझे उसमें संवेदनात्मक अनुगूँज सुनायी नहीं पड़ रही तो मैं वह अनुगूँज पाने दो-तीन ऐसी स्वरलिपियाँ बना लूँगा। सिर्फ़ संवेदनात्मक अनुगूँज के लिए ही नहीं पर शायद संवेदना और विचार के लिए या जिसे ‘ध्वनि’ कहते हैं।
उदयन- पर वे सत्यजीत राय जैसे फि़ल्मकारों के बनाये हुए स्केच की तरह तो नहीं हुए?
कुमार- नहीं। राय विज्ञापन की तरह मुकम्मिल स्केच बनाते थे और ‘स्टोरी बोर्ड’ से शूट करने की कोशिश करते थे। वह नक़ल की नक़ल थी। मुझे वह करना उचित नहीं लगा।
उदयन- आप इस मसले में किन सीमाओं की ओर इशारा कर रहे हैं ?
कुमार- ये वे ही सीमाएँ हैं, जिनका प्लेटो ने जि़क्र किया है। यह सच है कि मैं प्लेटोवादी नहीं हूँ पर इस किस्म की नक़ल में कुछ है जिसपर सवाल उठाना चाहिए। कला में नक़ल या इमिटेशन का समूचा विचार ही प्रश्नांकन के योग्य है। तब भी जब हम पश्चिम में सशक्त उस परम्परा से द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध्ा क्यूँ न बनाते हों ? यह हमारी भारतीय कलाओं में भी है। हमें उसे अनुकूलित करना चाहिए पर उसके व्यवहार से बचना चाहिए। बहुत लोग जो इस आध्ाार पर काम करते हैं, वे कला को केवल नक़ल के रूप में पहचानते हैं और इस तरह हरेक कलात्मक रूप को ‘कमोडिफ़ाई’ कर देते हैं। अगर आप उन्हें किसी और तरह से कला को पहचानने का प्रस्ताव करेंगे, वे हड़बड़ा जाएँगे। कई लोगों के दिमाग में नक़ल और कला का सम्बन्ध्ा जुड़ गया है। मैं ऐसा नहीं सोचता। मैं सोचता हूँ कि अनुकूलन की परम्परा को साध्ा लेना चाहिए लेकिन उससे दूर चले जाना चाहिए। जो प्रतिरोध्ा तुमने ‘कस्बा’ में एक पत्थर में भी देख लिया था, वह इसलिए था क्योंकि उसमें भी जीवन है, पत्थर के टुकड़े में भी व्यक्तिपरकता है, उसमें अपने होने की स्वतन्त्रता है। यथार्थ की नक़ल करने में यह स्वतन्त्रता नकार दी जाती है। पत्थर महज एक वस्तु बनकर रह जाता है। नक़ल या यथार्थ के अनुकरण में इस तरह भ्रम का संयोजन ही वस्तु बनता है और जो संयोजन प्रस्तुत होता है, उसमें अपने सम्बन्ध्ाों के कारण वह वस्तु तयशुदा मूल्य पा जाती है। पर उसका मूल्य तो कहीं और है। दरअसल उसका मूल्य उसके पत्थरपन में ही है। इसलिए अगर आप नक़ल की भी नक़ल करना शुरू करते हैं, आप उसके असली मूल्य को अवरुद्ध कर देते हैं, उसका वस्तुकरण कर देते हैं, उसे नियन्त्रित करने लगते हैं जबकि उस पत्थर को अपनी ही अनेक अर्थों वाली भाषा बोलने देना चाहिए। उसे किसी एक अर्थ या मूल्य में बाँध्ाने के प्रयास का प्रतिरोध्ा व्यक्त कर सकना चाहिए। उसे आपको चुनौती दे सकना चाहिए, उसे अपने को आपके सामने अपने अर्थों के साथ उपस्थित होना चाहिए।
उदयन- वह आपकी उसे एक तरह के मूल्य में बाँध्ाने की इच्छा को प्रतिरोध्ा देता है।
कुमार- बिल्कुल।
उदयन- फिर आपके आख्यान का कोई भी रूप हो...
कुमार- कोई भी संयोजन या आख्यान या और कुछ। उसे प्रतिरोध्ा देना ही चाहिए।
उदयन- यह दृष्टि शाॅट लेते वक़्त भी अर्थपूर्ण भूमिका निभाती होगी।
कुमार- मैं ‘तरंग’ के कुछ शाॅट्स लेने के दौरान इस विषय में सजग हो गया था। फिर यह सजगता ‘ख़याल गाथा’ के दौरान और बढ़ गयी।
उदयन- क्या आपको उनमें से कुछ शाॅट्स याद हैं ?
कुमार- उदाहरण के लिए वही पेड़ वाला शाॅट। अब मुझे याद आता है कि मैंने देखा है कि उस शाॅट को देखते समय कभी-कभी कुछ दर्शकों की साँस रुक जाती थी क्योंकि उस पेड़ की अपनी स्वतन्त्रता उस शाॅट में है। मुझे लगता है, यह ढंग अभी विकसित हो रहा है। जहाँ तक मुझे पता है ‘कस्बा’ में तुमने जो देखा, वह बहुत कम लोग देख सके। वह अमरीकी औरत जिसने मुझे ख़त लिखा था, उसे यह सब सिरे से ही समझ में नहीं आया था, वह इस सबके क़रीब भी नहीं पहुँच सकी थी। इसीलिए जब लोग इन आयामों को बिना समझे मुझसे यह कहते हैं, ‘तुम्हारी फि़ल्म बहुत खूबसूरत है,’ मुझे तकलीफ़ होती है। केरल में एक बार किसी दर्शक ने ‘भावान्तरण’ देखने के बाद मुझसे पूछा, ‘तुम्हारी फि़ल्मों में इतना सौन्दर्य क्यों है ?’ रामचन्द्र गाँध्ाी ने भी ‘ख़याल गाथा’ देखकर ऐसा ही कुछ कहा था। वे बोले थे, ‘बहुत ज़्यादा सुन्दरता’। एक फ्राँसीसी आलोचक ने ‘तरंग’ देखने के बाद लिखा था कि यह फि़ल्म चकरा देने की हद तक सुन्दर है, इसे देखते हुए आप बीमार महसूस करते हैं। मैंने उनसे पूछा था कि उन्हें फि़ल्म में सुन्दरता से क्या मुश्किल है ? उन्होंने कहा कि इस सौन्दर्य में नकार है, हिंसा नहीं। मैंने उनसे कहा, ‘तुम उसे कुछ क़रीब से देखो, तुम्हें किसी भी सुन्दर चीज़ को क़रीब से देखना होता है। मैं सिर्फ़ अपनी फि़ल्म की बात नहीं कर रहा हूँ। तुम जाकर किसी खूबसूरत फूल को क़रीब से देखो या ऐसी ही किसी सुन्दर चीज़ को, तुम्हें उसमें ढेर-सी हिंसा मिल जाएँगी।’
उदयन- शायद तब ही रिल्के ने यह लिखा था, सुन्दरता आतंक की शुरुआत है। दरअसल हिंसा वहाँ परदे की ओट में होती है।
कुमार- रामू (रामचन्द्र गाँध्ाी) ने जब यह बात कही, मुझे पीड़ा हुई। मैंने उनसे कहा, ‘आप अभी मेरे साथ चलिए, आप वह फि़ल्म अभी देखिए, आपको यह करना ठीक लगे या नहीं।’ मैंने उनसे यह भी कहा, ‘आपने जो कहा है, मैं उसे मानता हूँ कि वहाँ सौन्दर्य है, शायद असह्य सौन्दर्य है पर आपको उसे उस तरह व्यक्त नहीं करना था, जैसा आपने किया।’ मैं चाहता था कि वहाँ असह्य सौन्दर्य हो और आपको वह असह्यता सहना पड़े पर साथ ही उसी में से फि़ल्म की अर्थवत्ता उत्पन्न हो। मैं कोई खूबसूरत या सम्मोहक वस्तु नहीं बना रहा हूँ। मैंने उन्हें ‘ख़याल गाथा’ के बिम्बों में कई तरह से प्रवेश की सम्भावना के बारे में बताया जो मुझे मिनिएचर चित्रों से मिली थी और जिसे फि़ल्म में करना बेहद मुश्किल है। मैंने इस सबके बारे में विस्तार से एक व्याख्यान ‘अन्तर्राष्ट्रीयवाद को प्रश्नांकित करते हुए’ में बोला था, उन मुश्किलों के बारे में भी जो लेंस से काम करते हुए ऐसा करने में आती हैं क्योंकि लेंस और फि़ल्म स्टाॅक और रूपाकार में रेनेसाँ के सिद्धान्त बहुत हद तक पैठे हुए हैं। मिनिएचर चित्रों के जैसे फि़ल्म में अनेक प्रवेश और साथ ही अनेक यथार्थ प्रकट करना आसान काम नहीं है, क्योंकि फि़ल्म की तकनीक ही इसे प्रतिरोध्ा देती है। कुछ अँग्रेज़ आलोचकों ने मुझसे यह पूछा है कि तुम इस तरह शाॅट लेकर उससे इतना कुछ क्यूँ पाना चाहते हो ? अगर हम तुम्हारे काम को सिनेमा कहें तो हमें वह बहुत-सा सिनेमा निरस्त करना होगा जो तुम्हारे पहले बनाया गया है इसलिए हम ‘ख़याल गाथा’ को स्वीकार ज़रूर करेंगे पर सिनेमा की तरह नहीं बल्कि एक कला रूप की तरह। क्या तुम कल्पना कर सकते हो कि ‘ख़याल गाथा’ के बारे में यह कहा गया था। दूसरी ओर श्रीलंका, चीन, ईरान और तुर्की के फि़ल्मकार जब मुझसे मिले, उन्होंने मुझसे कहा कि उनको ‘ख़याल गाथा’ ने बहुत भीतर तक छुआ। यह उनकी आरम्भिक प्रतिक्रिया थी। वे बोले, ‘हमें पहली बार लग रहा है कि यह हमारी फि़ल्म है, कि हमारी संस्कृतियों के भीतर से भी स्वतन्त्रता का अनुभव फि़ल्म में हो सकता है।’ शायद हेडेगर ने कहा था कि जापानी, भारतीय और चीनी अपने सांस्कृतिक दृष्टिकोण के कारण सम्भवतः फि़ल्म नहीं बना सकते। मुझे लगता है हेडेगर ने यह कहा था। यह नासमझी थी। उन्हें कहना चाहिए था कि केवल तकनीक यह नहीं कर पाएगी पर तकनीक एक चीज़ है और हम जो फि़ल्म बनाते हैं, वह दूसरी।
उदयन- हमने फि़ल्म संस्थान में तीन फिल़्में साथ बैठकर देखी हैंः माय लाईफ टू लिव (गोदार), बाल्थाज़ार (बे्रसाँ) और सुबर्ण रेखा (ऋत्विक घटक)। इसी क्रम में हमने ‘तरंग’ भी देखी। मैं सोच रहा था कि इन तीनों ही फि़ल्मों में स्त्री चरित्रों के माध्यम से ही महाकाव्यात्मक अनुभव या महाकाव्यात्मक रूपाकार चरितार्थ होते हें। आपकी फि़ल्मों में इसका क्या कारण हो सकता है? ऐसा क्यूँ है कि इन तीनों फि़ल्मों में चाहना अपने को व्यक्त करने स्त्री पात्रों को चुनती है ?
कुमार- कवियों ने भी अपनी आध्यात्मक की पुकार के लिए स्त्रीत्व का प्रयोग किया है। उन्होंने स्त्री चेतना को ही प्राथमिकता दी है इसलिए मेरा अनुमान है कि यह कुछ ऐसा है जिसे मैंने विरासत में पाया है या शायद यह मेरा अपना स्वभाव है या शायद इन दोनों का संयोग। मैं कई बार इस पर विचार करता हूँ कि ऐसा क्यूँ होता है। आखिर हम सिर्फ़ पुरुष ही नहीं हैं कुछ और भी हैं, पर क्या ऐसा ही है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे भीतर भी स्त्री चेतना है। क्या हम कवि, फि़ल्मकार, संगीतकार आदि की व्यक्तिपरकता स्त्रैण होती है ? मैं यह समझ नहीं पाता। मैं सोचता हूँ कि इसे ‘स्त्रीत्व’ कहना ठीक नहीं है। क्या ऐसा करना ‘तत्ववाद’ (इसेंशिलिज़्म) नहीं हो जाएगा। इसकी मुझे चिन्ता होती है। मैंने ऐसी कोई चीज़ नहीं देखी, जिसमें इस तरह की चाहना को पुरुष व्यक्तिपरकता के सहारे व्यक्त किया हो। क्या तुमने देखा है ?
उदयन- दरअसल खुद आपकी एक फि़ल्म में ‘मनमाड़ एक्सप्रेस’ में वह चरित्र पुरुष है। मैंने यह अनुभव किया है कि आप अपनी एक फि़ल्म से दूसरी में जाते हुए अपने एक या एक से अध्ािक पात्रों का विस्तार करते हैं, मसलन हंसा। हम ‘तरंग’ की हंसा को ‘ग्लास पैन’ की अंजलि के विस्तार की तरह भी देख सकते हैं। ऐसा लगता है कि उन्हें आप सीमित उपस्थितियों की तरह नहीं बरतते। वे वस्तुओं की तरह नहीं बरती जाती...
कुमार- मैं अपनी फि़ल्म के अन्त में ‘समाप्त’ लिखना पसन्द नहीं करता लेकिन मेरी फि़ल्मों के निर्माता उस तरह का कुछ कर देते हैं। वे लगा देते हैं क्योंकि उन्हें उसकी ज़रूरत होती है।
उदयन- जब आप, ‘तरंग’ बना रहे थे, क्या आपको ‘हंसा’ के चरित्र के विषय में सोचते समय ‘ग्लास पैन’ की याद आयी थी ?
कुमार- दरअसल नहीं। फिर किसी ने मुझसे पूछा कि ऐसा कैसे है कि तुम माक्र्सवादी होते हुए भी ‘हंसा’ के प्रति इतने अध्ािक संवेदनशील हो ? पहले तो मैंने कहा कि मैं तो सेठ जी, अमोल पालेकर आदि के चरित्रों के लिए भी संवेदनशील हूँ क्योंकि इसके बगैर मैं उन्हें वास्तविक नहीं बना सकता। अगर मैं दूसरों की पीड़ा नहीं देख सकता, मैं कुछ नहीं दिखा सकता। मुझे वह दृश्य याद है, जब अमोल स्मिता पाटिल को घर से निकालते हैं, वह उसे शाॅट के अन्त में माँ की गाली देती है। स्मिता के निकल जाने के बाद भी मैंने कैमरे को अमोल पर बनाये रखा। मैं चाहता था कि अमोल को काँपते हुए दिखा सकूँ। एक तरह से उसे चोट लगती है। उसकी हिंसा उसे ही खा रही थी। फिर मैंने वहाँ एक शब्द रखा, एक आवाज़, जिससे उसे सान्त्वना मिल सकती हो लेकिन ‘हंसा’ के साथ मैं हमेशा ही उस बिन्दु पर रहा। एक तरह से उस किस्म की स्त्रियों के प्रति मेरे मन में अनुराग जैसा कुछ रहा है।
उदयन- हंसा आम बुर्जुआ स्त्री नहीं है, वह आद्यरूपात्मक (आर्किटाइपल) चरित्र भी नहीं है और यह भी सही है कि आपने इस फि़ल्म में उस चरित्र को निभाती अभिनेत्री को भी उसके अपने स्वभाव को व्यक्त करने का मौका दिया। तब भी हंसा के चरित्र में अभिनेत्री के स्वभाव से कहीं अध्ािक आख्यात्मक चरित्र उपस्थित है... मुझे लगता है कि हंसा के बनने में आपकी यादों ने भी सहयोग किया है। उस एक हंसा में कई हंसाएँ हैं।
कुमार- उसमें एक से अध्ािक हंसाएँ हैं जो साहित्य से भी आयी हैं- जैसे शेक्सपीयर की आॅफे़लिया और इसे मैंने उसके फूलों की उपस्थित में बाथ-टब में मरने से स्पष्ट भी कर दिया है। और वहाँ भी मैंने उसके और स्मिता पाटिल के चरित्र के बीच के सम्बन्ध्ा में मिथकीय संरचना का उपयोग किया है। स्मिता अप्सरा है जो जल से उत्पन्न होती है, हंसा जल में मृत्यु के मोटिफ को रेखांकित करती हैं। इस किस्म की स्पष्टता भी मिथकीय ही है और ज़ाहिर है उर्वशी पुरुरवा के मिथक से आयी है। वह जलपक्षी की तरह अपनी सखियों के साथ बाहर आती है, वे सभी सखियाँ हंस हैं और उस (स्मिता) का नाम जानकी है। ये सारे मिथकीय ढाँचे हैं। यह एक बहुत बारीक सवाल है कि क्यों कुछ चीज़ें मिथकीय संरचना की ओर जाती हैं और कुछ महाकाव्यात्मक रूपों की ओर। मैं सोचता हूँ कि यह दरअसल पाठक पर निर्भर करता है कि वह महाकाव्य को किस तरह पढ़ता है ? मुझे यह पता नहीं, पर हो सकता है कि कलाकृति में भी कुछ ऐसा होता हो जिससे यह दिशा तय होती हो। ऐसा नहीं हो सकता कि सारा कुछ पाठक पर ही निर्भर हो। लेकिन ऐसा कुछ पाठक और कृति के आपसी भीतरी रिश्तों में ज़रूर होगा जो या तो उसे ‘मिथकीय’ की ओर ले जाता है या ‘महाकाव्यात्मक’ अनुभव की ओर।
उदयन- शायद महाकाव्यात्मक रूपाकार इस तरह आगे बढ़ते हैं मानो उनकी कोई सीमा ही न हो। जबकि मिथकीय रूपाकार इस तरह बढ़त करते हैं मानो उसकी एक निश्चित सीमा हो...
कुमार- दरअसल मिथक की सीमा होना ही चाहिए। मिथकीय रूपाकार में तत्काल कर्म की उत्प्रेरणा होना चाहिए। एक सचमुच बेहतर मिथक की प्रकृति कुछ ऐसी है कि वह अपने को एक ऐसे सम्बन्ध्ा में संयोजित करता है कि तत्काल कर्म हो सके जबकि महाकाव्य वास्तविकता की प्रकृति पर विचार करने जैसा कुछ है। उसे पुनर्संकेतन कर सकना चाहिए, उसे हर कर्म का पुनर्संकेतन कर सकना चाहिए। वह कर्म भले ही आदत बन गया हो या वह अभिशापवश अस्तित्व में आया हो जैसा द्रौपदी का था, जब उसे भूखे पाण्डवों के लौटने पर उन्हें खिलाने खाना नहीं मिल पाता और वह कृष्ण को पुकारती है या जब उसे कहा जाता है कि पाँच भाई उसका साझा करेंगे। यहाँ हर चीज़ का पुनर्संकेतन है, सम्बन्ध्ाों का भी। अर्जुन की स्वीकृति संसार को देखने का ढंग बन जाती है, वह ढंग जिससे उस संसार से जुड़ना होता है जो एक विशेष कर्म को सम्भव करने की ओर प्रवृत्त करता है। पाण्डवों के स्वभाव में ही यह का द्वन्द्व हैः तुम्हें क्या करना चाहिए ? उनका स्वभाव प्रश्न है। युध्ािष्ठिर तक के पास प्रश्न है। वह मूर्तिमान सत्य, ध्ार्म है और वह स्वयं इतनी पीड़ा सह रहा है, वह कर्म नहीं कर पा रहा। वह वाक्य जो कुन्ती कृष्ण से युध्ािष्ठिर को कहने कहती है, डरावना है। वह कृष्ण से कहती है कि वह युध्ािष्ठिर से कहे कि वह युद्ध में जाए। वह कृष्ण से उसे वह कहानी सुनाने को कहती है जिसमें एक माँ अपने बेटे से कह रही है, ‘मैंने तुम्हें अपनी योनि से जन्म दिया है, गुदा से नहीं।’ सोचो, यह क्या भयानक बात है।
उदयन- आप खुद अपनी फि़ल्मों के कई ‘मोटिफ़’ अपनी दूसरी फि़ल्मों में इस्तेमाल करते हैं। आप बढ़त करते हैं, सिर्फ़ अपने चरित्रों की ही नहीं बल्कि इन मोटिफ़्स की भी। मसलन ‘माया दर्पण’ में तरन अध्ािक से अध्ािक अन्तर्मुखी होती जा रही है, इसे इंगित करने आपने यह दिखाया कि वह अपने पैरों को अपनी साड़ी के घेरे के भीतर खींच लेते हैं जबकि ‘ग्लास पैन’ में स्त्री पात्र के पैर ठहरे हुए हैं, वह उन्हें वहाँ मौजूद पुरुष पात्र की ओर नहीं बढ़ाती। मुझे लगा कि आप ‘ग्लास पैन’ के उन पैरों को बीस साल बाद ‘माया दर्पण’ में ले गये और वहाँ से कुछ और फि़ल्मों में भी। कुछ ऐसे झुकाव होते हैं जो फि़ल्मकार एक फि़ल्म से दूसरी में अनजाने ही ले जाता है।
कुमार- यह बढ़त के भीतर एक और बढ़त की प्रक्रिया की तरह है। मैं रंग को अन्तरण के ढंग की तरह लेकर काम कर रहा था, इसलिए मैं ऐसे कुछ शाॅट्स भी ले सका, जिनके विषय में मैंने बढ़त की सम्भावना की तरह सोचा भी नहीं थाः क्योंकि तरन के कपड़ों के रंग से जो ऊर्जा निकल रही थी, वह उसके पैरों से प्रकट हो जाती है, जबकि लोग यह कभी नहीं सोचते कि पैर भी कुछ अभिव्यक्त कर सकते हैं। मानो पैरों में न तो कोई संवेदनात्मक न कोई ऐन्द्रिक ऊर्जा होती हो। लेकिन उनमें होती है। वह मेरे लिए रंगों के सहारे कुछ खोज लेने जैसा था, जैसा कि तुम देख सके। उनका कोई दूसरा प्रभाव भी होता ही होगा।
उदयन- किसी कलाकार को किसी एक विशेष शैली के आध्ाार पर परिभाषित करने की जगह, मुझे लगता है, हमें उसके कृतित्व के बारे में बात करते हुए उन ‘मोटिफ’ के बारे में बात करना चाहिए जो उसके काम में आते रहते हैं। अब जब हम शैली के सवाल पर, भले ही अनायास, आ ही गये हैं, आप मुझे यह पूछने की इजाज़त दें कि आप उसके बारे में क्या सोचते हैं ?
कुमार- वह केवल ट्रेड मार्क है।
उदयन- केवल ट्रेड मार्क ?
कुमार- नहीं। मेरा मतलब है कि वह वैसी बन जाती है, अगर हमारे समय में कोई कलाकार उसको प्राथमिकता देता है। उसका मेनरिज़्म ही उसकी शैली बन जाता है और यह उपभोक्ता वस्तु बनने की, जिसे कमोडिफि़केशन कहते हैं, की शुरुआत है। मसलन चार्ली चेपलिन पहला फि़ल्म स्टार था, इसलिए उसके उपभोक्ता वस्तु बनने की प्रक्रिया में उसे हर बार एक-से कपड़े, एक-सी भंगिमाएँ और एक-से करतब करना पड़ते थे। यह सब बाज़ार से प्रेरित था। यह पूछना चाहिए, ‘किन दूसरे रास्तों से शैली प्रकट होती है।’ यह किसी कलाकार का अपने आत्म की भाषा की खोज के रास्ते होता है। लेकिन बाज़ार इसे बीच में ही थाम लेता है और आपका संकुचन हो जाता है। अवाँगार्द कलाकार भी किन्हीं बनी-बनायी ध्ाारणाओं में बँध्ा जाते हैं, एक तरह के खाँचे में फँस जाते हैं। जब कोई मुझे अवाँगार्द कलाकार कहता है, मुझे बहुत अटपटा लगता है। यह विचार जिस तरह समझा गया है, उसके कारण आप एक ऐसी स्थिति में बाँध्ा दिये जाते हैं, जो बीत चुकी है। मैं यह कहना चाहता हूँ कि मुझे जो बीत गया है, उसे छोड़ना होगा और अपनी फि़ल्म को किसी शैली में बाँध्ाने से बचना होगा।
उदयन- जिससे आप अपने अतीत का भी पुनर्विन्यास करते रह सकें...
कुमार- हाँ, उसे पुनर्विन्यस्त करता चलूँ। मसलन ‘कस्बा’ में बहुत व्यंग भाव है, जो उसमें प्रवेश का वास्तविक रास्ता बन गया है। उनके कामों पर बनी फि़ल्मों और नाटकों में चेख़व के प्रति व्यवहार को देखकर मुझे बहुत असन्तोष होता है। मैंने उसका कारण यह खोजा है कि चेख़व किसी स्थिति आदि पर व्यंग करते समय ख़ुद पर भी कटूक्ति करते हैं। लेकिन निर्देशक और अभिनेता केवल संसार पर हँसते हैं। और इस तरह वे संसार का विद्रूप प्रस्तुत करते हुए खुद भी विरूपित हो जाते हैं। जबकि चेखन पर फि़ल्म बनाते या नाटक करते समय शुरुआत खुद पर कटूक्ति करने से करना चाहिए और केवल तब अभिनेताओं को आने देना चाहिए और रंगों के अन्तर्सम्बन्ध्ाों, भू-दृश्यों को इस तरह आना चाहिए कि वे एक तरह का अटपटापन अभिव्यक्त कर सकें। जब वह अटपटापन, वह हास्यापद अस्तित्व, ‘होना’ मात्र बन जाता है, तब आप वहाँ से उन सभी चीज़ों के प्रति सम्मान व्यक्त कर सकते हैं, जो विद्यमान है। चेख़व की कहानियाँ अध्ािकांशतः ईसाई परम्परा पर आध्ाारित हैं पर हम उन्हें बौद्ध परम्परा पर आध्ाारित कर सकते हैं क्योंकि पूर्वात्य ईसाई परम्परा के कुछ आयाम शायद बौद्ध ध्ार्म से आये हैं, ऐसा मेरा विचार है। वे उस पूरे अंचल या उस पूरी पट्टी से आते हैं जो कुर्दिस्तान से होती पाकिस्तान से गुज़रती भारत आदि तक आती हैं। इसकी सम्भावना बहुत है कि वह बौद्ध और पारसी और कुछ अन्य पुरानी परम्पराओं (जिसे सूफ़ी लाये थे, जो बुद्ध की तरह ही ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे) से होकर गुज़रती है। सूफ़ी ईश्वर में विश्वास भले न करें, वे उसे पुकारते हैं। वे अपनी ‘पुकार’ पर आस्था रखते हैं।
जब हम पूना विश्वविद्यालय के परिसर से वापस आ रहे थे, कुमार बोले कि वे हवा में घुल जाना चाहते हैं, बिल्कुल यूँ ही और यह कि वे एक ऐसी फि़ल्म बनाना चाहते हैं जिसका कोई अन्त न हो। वे बोले, ‘जब तुम शेक्सपीयर का नाटक पढ़ते हो, वह वहाँ समाप्त नहीं होता, जहाँ वह समाप्त होता है।’
उदयन- अब आपके फ्राँसीसी फि़ल्मकार रोबेर ब्रेसाँ से सम्बन्ध्ा के बारे में बात करते हैं। आपका उनसे और उनकी सर्जनात्मकता से गहरा सम्बन्ध्ा रहा है।
कुमार- जब मैंने पहली बार ‘ओ ज़ार बाल्थाज़ार’ देखी। मैंने अपने दोस्तों से कहा, ‘मुझे ऐसी फि़ल्म के पश्चिम से आने की कोई उम्मीद नहीं थी।’
उदयन- क्या आपने ब्रेसाँ की फि़ल्म पहली बार फ्राँस में देखी थी ? क्या फ्राँस जाने के पहले आपने ब्रेसाँ का नाम तक नहीं सुना था ?
कुमार- मैंने ‘द डायरी आॅफ दी कण्ट्री प्रीस्ट’ के बारे में सुना था और मैंने उनके बारे में कुल चार पंक्तियाँ पढ़ी थीं। मुझे याद है कि एक बार ऋत्विक से बात करते हुए मैं फि़ल्म संस्थान के पास वाली पहाड़ी के रास्ते पर जा रहा था। मैं आज भी हम दोनों को उस सड़क पर रुका हुआ देख सकता हूँ। मैंने उनसे यूँ ही पूछा, ‘आप बुनुएल, फेलिनी, एण्टोनियोनी (वे एण्टोनियोनी को पसन्द नहीं करते थे पर उसे मूधर््ान्य फि़ल्मकार मानते थे) की बात करते हैं पर आपने कभी ब्रेसाँ की बात नहीं की और हाल में मैंने उनके बारे में चार बहुत दिलचस्प पंक्तियाँ पढ़ी हैं।’ वे मुझसे बोले कि ब्रेसाँ बिल्कुल ही अलग शख़्स है। वे सिर्फ़ यह बोले। उन्होंने उनकी फि़ल्में भी नहीं देखी थीं। उन्होंने भी उनके बारे में सिर्फ़ पढ़ा था, ज़ाहिर है मुझसे अध्ािक या ये भी हो सकता है कि उनकी फि़ल्में उन्हें याद न रही हों। उसके बाद किसी ने मुझसे ब्रेसाँ की चर्चा नहीं की। मैंने उनकी फि़ल्म बिल्कुल संयोग से देखी जैसा कि मैं तुम्हे बता रहा था कि फ्राँस में फ़ैलोशिप के दौरान मैं फ्राँसीसी भाषा सीखने गया था। एक दिन मैं अपने दो जर्मन मित्रों के साथ ब्रेसाँ की फि़ल्म देखने गया। मैं उनका नाम भर सुना था। फि़ल्म बाल्थाज़ार, के शुरू होने के कुछ वक़्त बाद मेरे दोस्त उठकर जाने लगे। मैंने उनसे कहा, ‘मैं इसे दोबारा भी देखूँगा। तुम लोग जाओं।’ मुझे उनकी वह फि़ल्म देखकर लगा कि ये एक ऐसे शख़्स हैं, जो वैश्विक संस्कृति में डूबे हुए हैं। और यह भी कि उनकी फि़ल्मों में एक विशेष गुणवत्ता थी। मैंने सोचा, ‘ये वो व्यक्ति है जिसके साथ मुझे काम करना चाहिए। यह मुझे कुछ सिखा पाएगा। मैं इससे कुछ सीख पाऊँगा।’ क्योंकि जब मैंने गोदार और न्यू वेव के दूसरे फि़ल्मकारों और ब्रेसाँ के समकालीनों को देखा था, मुझे महसूस हुआ था कि वे मुझे कुछ विशेष नहीं सिखा सकते। मेरे पहले से ही दो अद्भुत गुरू थे, ऋत्विक घटक और डी.डी. कोसाम्बी। मेरा ब्रेसाँ से मिलने का एक सुखद संयोग हुआ था और मुझे लगा था कि मैं उनसे कुछ सीख सकूँगा और मैंने सीखा। मैं फ्राँस में और समय बर्बाद नहीं करना चाहता था। मैं भारत आकर काम करना चाहता था। इसलिए मैंने पेरिस लौटते ही उन्हें ख़त लिखा।
उदयन- यानि आपने ‘बाल्थाज़ार’ पेरिस में नहीं, फ्राँस के ही किसी और शहर में देखी थी।
कुमार- मैंने यह फि़ल्म लियों में देखी थी जहाँ मैं फ्राँसीसी भाषा सीख रहा था। वहाँ से पेरिस आते ही मैंने उन्हें ख़त लिखा और जो लोग मुझे अध्येतावृत्ति दे रहे थे, उनसे कहा कि मैं ब्रेसाँ के साथ ही काम करना चाहता हूँ। पेरिस के ‘स्कूल आॅफ सिनेमा’ में मुझे ‘मुक्त श्रोता’ का दजऱ्ा दिया गया था और इसलिए मैं जिस कक्षा में चाहता, बैठ सकता था। मैं खासकर संगीत की कक्षाओं में जाता था। संगीत के शिक्षक भारतीय संगीत नहीं सिखा रहे थे, वे पश्चिमी और अफ्ऱीकी संगीत सिखाते थे और अन्य महाद्वीपों के संगीत के विषय में भी बताते थे।
उदयन- उनके सिनेमा से सम्भावित सम्बन्ध्ा के बारे में भी ?
कुमार- हाँ। लेकिन ज़्यादातर वे संगीत के बारे में ही बात करते थे जिसमें मुझे रुचि थी। दूसरी चीजे़ं मुझे वहाँ सीखने की ज़रूरत नहीं थी। मैं उनसे कहता था कि इस स्कूल में संगीत के सिवा मुझे सीखने बहुत नहीं है। वे मूलतः पश्चिमी संगीत सिखाते थे (उसके विषय में मैं आज भी बहुत नहीं जानता), लातीन अमरीकी संगीत या पेरूवियन इण्डियन के संगीत के बारे में। मैंने ब्रेसाँ से सीध्ाा सम्पर्क भी किया। मैंने उनके घर का पता मालूम किया और उनसे कहा कि मैं उनसे एक भारतीय अख़बार के लिए इण्टरव्यू करना चाहता हूँ। यह इसलिए था कि उनसे मिलकर मैं यह पूछना चाहता था कि क्या मैं उनके साथ काम कर सकता हूँ। और आखिरकार एक बारीश से घिरी सुबह उन्होंने इण्टरव्यू देना स्वीकार किया। मैं दिलीप पडगाँवकर को अपने साथ ले गया। वह एक बेहद ठण्डा दिन था। वे बातचीत के अन्त में बहुत खुश हुए क्योंकि हम उनके सिनेमा के बारे में काफ़ी गहरायी से पूछ रहे थे मसलन वे शाॅट कैसे लेते हैं वगैरह। इण्टरव्यू के अन्त में मैंने उनसे कहा कि मैं एक फि़ल्मकार हूँ, पत्रकार या लेखक नहीं और आपके साथ काम करना चाहता हूँ। उनके बारे में तब तक जो भी लिखा गया था, पर्याप्त नहीं था। वह तब बदला जब गोदार बल्कि विशेषकर वामपंथी लोग उनके पास गये जोकि एक रहस्य ही है क्योंकि ब्रेसाँ तो पूरी तरह आध्यात्मवादी थे। वामपंथी फि़ल्मकार भी आध्यात्मिक होते हैं, क्योंकि फि़ल्म बनाना आध्यात्मिक कर्म है लेकिन आमतौर पर वे ऐसे किसी व्यक्ति के क़रीब नहीं जाते थे जिसने ‘डायरी आॅफ़ द कण्ट्री प्रीस्ट’ फि़ल्म बनायी हो, जिसके अन्त में सलीब और उसके पीछे से आता प्रकाश लाल झण्डे की जगह फि़ल्माया गया हो। लेकिन प्रश्न सिर्फ़ अन्त देखने का नहीं पूरी फि़ल्म देखने का है। वह क्या कर रही है और उसमें विश्वसनीयता की क्या ध्ाारणा है। दरअसल ब्रेसाँ की फि़ल्म में स्वयं विश्वसनीयता की ध्ाारणा कुछ और ही है। वहाँ शुरुआत से ही तुम जो देखते हो, वह अद्भुत है। निर्देशक अपनी तरफ से कोई भी वर्णन नहीं करता, वह कैमरे को करने देता है।
अगर मैं अपना कैमरा मसलन किसी वस्तु पर लगाता हूँ, मैं कर क्या रहा हूँ, मैं नक़ल करके कोई विश्वसनीय चीज़ कैसे बना सकता हूँ। इस तरह के सौन्दर्यशास्त्र का अर्थ क्या है। दरअसल इस तरह का सौन्दर्यशास्त्र न नैतिक और न राष्ट्रीय दृष्टि से जुड़ सकता है। मसलन तब यह कहना मुश्किल है कि रबीन्द्रनाथ पर बंगाली के अलावा कोई और फि़ल्म नहीं बना सकता, क्योंकि तब विवरण अलग हो जाएगा। या इसी तरह का कुछ। यानि जैसा कि यथार्थवाद की हर ध्ाारा में होता है, जहाँ कला का यह नैतिक दायित्व माना जाता है कि वह विश्वसनीय हो। वह विश्वसनीयता कैमरे से बड़ी आसानी से पैदा की जा सकती है। वहाँ कलात्मक अलगाव सिरे से नदारद होता है। पहली बात तो यह कि वह विश्वसनीय होता ही नहीं क्योंकि उस स्थिति में कैमरा काम कर रहा होता है, कलाकार नहीं। लेकिन ब्रेसाँ के मामले में यह सबसे अध्ािक ध्यानाकर्षी बात है, उनकी दृष्टि इसी में संकेन्द्रित है। जैसाकि ऋत्विक के मामले में भी है- वहाँ वैश्विक सभ्यता की संस्कृति में उन असंख्य लोगों के विचार और पीड़ा से होकर गुज़रना होता है जो पहले हो चुके हैं। क्योंकि इन दोनों ही फि़ल्मकारों के सन्दर्भ अन्ततः वैश्विक है। हालाँकि यह भाव आसपास की दुनिया के विवरण के रास्ते मुखरित होते हैं। मसलन ब्रेसाँ ने अपनी ‘जोन आॅफ आर्क’ के बारे में कहा था कि वे केवल उसके मुकदमे की बात करेंगे और उसी प्रक्रिया में उन्होंने सब उलट दिया। दरअसल उन्होंने ‘जोन आॅफ़ आर्क’ के मुकदमे के दस्तावेज निकाले थे, उनका इस्तेमाल किया था पर इस सबको उन्होंने जिस तरह सांगीतिकता में बाँध्ाा, वह अद्भुत है। आपकेा उसमें यूरोप का चेहरा, स्त्री का अन्तःकरण दिखायी देगा। संयोग से ‘जोन आॅफ़ आर्क’ ऐसी पहली महिला थी, जिन्होंने अपने बाल कटाये, जो घुड़सवारी करती थीं और इस सबके बीच जब वे समझ जाती हैं कि उन्हें जादूगरनी जानकर जलाया जा रहा है, वे एक वाक्य बोलती हैं, ‘मुझे मत जलाओ, मुझमें कुछ भी नापाक नहीं है।’ तुम देखो यह बात कितनी सरलता और सुन्दरता से दाह से जुड़ जाती है और इस तरह का संकेत केवल ऐसा फि़ल्मकार उत्पन्न कर सकता है जिसकी विश्वसनीयता की ध्ाारणा उस सबसे परे है, जो हमें दिखायी देता है, सुनायी देता है। मेरी एक चीज़ जो उन्हें बहुत पसन्द आयी थी, वो यह थी कि जब मैं उनसे मिला, मैंने उनसे पूछा, ‘क्या आप हमेशा 50 मि.मी. लेन्स से ही शूट करते हैं’ वे यह सुनकर बहुत खुश हुए, क्योंकि इसका सम्बन्ध्ा पूरी तरह उनकी रेनेसाँ संस्कृति और इसी तरह की चीज़ों से जुड़ता था। वे बोले थे, ‘इससे मैं उस तरह के दृश्य पा सकता हूँ जो रेनेसाँ कलाकारों ने उत्पन्न किये, इसके लिए मुझे लेंस को ठीक मात्रा में फोकस करना होता हे और एक तरह का पर्सपेक्टिव और फोकस के बदलने से और नये पर्सपेक्टिव और वर्णभेद (टोनल वेरिएशन) लाने होते हैं।’ पूरी सावध्ाानी वे इसलिए लेते थे कि वह ग़ायब हो सके। मेरे ख़याल से उनकी विश्वसनीयता वहाँ थीं।
बहरहाल हमारी मुलाकात के अन्त में उन्होंने मुझसे इन्तज़ार करने को कहा और बोले, ‘मैं पक्का नहीं कह सकता पर तुम छः महीनें इन्तज़ार करो।’ मेरी अध्येतावृत्ति तीन-चार महीनों में खत्म होने वाली थी। मैंने उसे बढ़ाने की दरख्वास्त दे दी। इस बीच मैंने कई लोगों से मिलकर उन्हें ब्रेसाँ से मुझे शामिल करने का आग्रह करने को कहा। तब उन्होंने मुझे दो-तीन बार फ़ोन करने को कहा मानो वे मुझे अपनी फि़ल्म में अभिनय के लिए ले रहे हों। उनकी कास्टिंग पद्धति कुछ ऐसी ही थी। वे अभिनेता (जिसे वे माॅडल कहते थे) से फ़ोन पर बात करते थे, उसे देखे बगैर। टेलीफ़ोन पर उसकी आवाज़ से वे यह अनुमान लगाने की कोशिश करते थे कि इस व्यक्ति में कोई आध्यात्मिक रूझान है या नहीं। उनके सभी फैसले इसी तरह होते थे। उसके बाद ही वे अभिनेता को देखते थे, अभिनेता जो उनके लिए गैर-अभिनेता था।
उदयन- आपने उनके साथ ‘द जेण्टल फीचर’ के निर्देशन में सहयोग किया था। आपका वह अनुभव कैसा था ? मेरे कहने का आशय यह है कि उनके साथ काम करने में अद्वितीय क्या था ?
कुमार- वो मेरे प्रति बहुत उदार और स्नेहिल थे। वे फि़ल्म बनाने के अपने ढंग में बहुत चिड़चिड़े थे और बाकी सदस्यों के लिए वे बहुत मुश्किल व्यक्ति थे पर मेरे लिए नहीं। वे मुझसे विश्व के दूसरी ओर से आये मेहमान की तरह मानकर व्यवहार करते थे। वे शूटिंग के बाद मुझे मेरे घर छोड़ जाते थे और यह बहुत ख़ास बात थी क्योंकि वे तब तक बहुत वृद्ध हो चुके थे। संयोग से मैं पेरिस के एक ऐसे इलाके ‘वाल द ग्रे’ (अँगूरों की घाटी) में रहता था, जहाँ पास्कल और वैसे अनेक चिन्तक रहे थे। ब्रेसाँ इसे भी एक विशेष संकेत मानते थे क्योंकि वे लगभग ईश्वरीय संकेत में आस्था रखते थे।
उदयन- ब्रेसाँ किस अर्थ में चिड़चिड़े थे ? क्या वे शूटिंग के दौरान ऐसे थे ?
कुमार- हाँ, शूटिंग के दौरान ही। हम सब होते हैं। उनके पास ऐसा होने यानि बहुत बहुत चिड़चिड़े होने की गुंजाईश थी, चूँकि उनके पास साध्ान बहुत अध्ािक थे, जबकि हमें हमेशा ही सीमित बजट में शूट करना होता है।
उदयन- क्या आप फ्राँस जाने से पहले डी.डी. कोसाम्बी से मिल चुके थे ?
कुमार- मैं तब तक कोसाम्बी और ऋत्विक दा को अपना गुरू मान चुका था।
उदयन- आप कोसाम्बी को किस तरह याद करते हैं ?
कुमार- जब आप उनसे मिलते, वे तुरन्त आपको बता देते कि आप कुछ नहीं जानते। वे कुछ-कुछ ऐसे ही थे। ऋत्विक भी ऐसे ही थे लेकिन कोसाम्बी निश्चय ही बहुत ज्ञानी व्यक्ति थे। वे दरअसल महान कलाकार थे। वे आपसे इतना मज़ाक करते रहते कि आपको उनसे अपना सम्बन्ध्ा बोझ नहीं लगता था। वे कभी-कभार मुझे कोई सन्देश भेजते। उनका भेजा एक सन्देश मुझे याद है, वह कुछ इस तरह थाः एक लम्बा आदमी जो सोलर हेट लगाने से कर्नल की तरह दिख रहा था, तुम्हारे बारे में किताब की दुकान में पूछ रहा था। यह इसलिए होता था क्योंकि वे कभी किसी शंकरप्पा जैसे लड़के से मिलेंगे, जो किताबें देख रहा होगा और वे उससे पूछेंगे, ‘क्या तुम फि़ल्म संस्थान के हो ?’ और फिर उसके हाथों यह सन्देश भिजवाएँगे। अगर मैं उन्हें फ़ोन करता, वे मुझे गुस्से में भरकर कहते, ‘तुमने मुझे फ़लाँ फि़ल्म देखने क्यूँ नहीं बुलाया।’ उन्हें फिल्मों से लगाव था। जब वे हार्वर्ड या प्रिंसटन में रहे थे, वहाँ वे एक फि़ल्म रोज़ देखते थे। वे सचमुच फि़ल्मों से प्रेम करते थे और उन्होंने ‘आप्टिक्स’ पर कुछ काम भी किया था। एक बार मैंने उन्हें मैक्सिको पर आईजे़न्स्टाईन की फि़ल्म देखने बुलाया। उन्होंने मुझे बताया कि ऐसा लगता है कि इस फि़ल्मकार ने हरा फिल्टर 50 इस्तेमाल किया है ताकि वह ‘सफ़ेदों’ को छोड़ सके। यह उन्होंने मुझे तब बता दिया था जब फि़ल्म संस्थान नहीं बता पाया था। वे फि़ल्म के कलारूप होने के बारे में बहुत संवेदनशील थे। वे सिनेमा के प्रति लगभग प्रतिबद्ध थे। मैं उनसे अक्सर डेकन क्वीन में मिलता था। यह वही ट्रेन थी, जिसमें उन्होंने भारतीय इतिहास की भूमिका लिखकर समाप्त की थी। वे हरेक से मज़ाक करते थे। उन्होंने मेरा डेकन क्वीन में संस्कृत अध्येताओं समेत अनेक लोगों से परिचय कराया। उनका उस ट्रेन में सभी से लगातार मज़ाक करने का सम्बन्ध्ा था। अगर मेरे पास ऐसे कोई सवाल होते, जो मेरे मन में कोई सिद्धान्त पढ़ते समय उठे हों, मैं उनसे पूछता था। एक बार मैंने उन्हें सिनेमा को स्वप्न मानने के सिद्धान्त की बात बतायी, जो सूज़न लेंगर और एलाँ राॅब ग्रियें जैसे कई लोग प्रतिपादित कर रहे थे। (हालाँकि राॅब ग्रियें ने कहा कि उनसे यह लिखवाया गया था। बाद में उन्होंने मेरे एक दोस्त से कहा कि वे इसे बहुत गम्भीरता से नहीं लेते।) लेकिन लेंगर के लिए वह बहुत महत्वपूर्ण था। मेरे इस तरह के सवाल पर कोसाम्बी कहते, ‘मैं यह सब नहीं जानता, मेरे लिए सिनेमा प्रिय है।’ वे अपने ढंग से बहुत विनयशील थे। लेकिन वे हमेशा ही बेहद कठोर मेहनत चाहते थे। मुझे उनसे सबसे अध्ािक इस सबके अलावा, यह मिला कि किसी भी निर्णय पर आसानी से नहीं पहुँचना चाहिए और पूरे समय किसी भी चीज़ के आन्तरिक आशयों को खोजते रहना चाहिए तब भी जब वे ऐतिहासिक हों। यह निर्णय महज बाहर से नहीं लेना चाहिए कि कोई चीज़ किसलिए बनायी गयी होगी। उसकी गहरायी में जाना चाहिए, एक तरह की पुरातात्विक पद्धति का उपयोग करना चाहिए। जैसा कि मैंने तुम्हे अलंकार के बारे में बताया था कि आप ज़मीन से कोई छोटी-सी चीज़ उठाते हैं और पाते हैं कि वह ‘माईक्रोलिथ’ है तो आप समझ सकेंगे कि वह कभी अलंकरण के काम में आता होगा। आप ऐसी सभी चीज़ों को अपनी कल्पना के सहारे एकसाथ लाएँ तो आप एक समाज और उनके विश्वासों के स्वरूप को जान सकते हैं। और फिर रोज़मर्रा के जीवन में उपलब्ध्ा जो संकेत हैं, वे व्यक्तिगत जीवन या इतिहास की छोटी-सी अवध्ाि को पार कर मानो इतिहास-पूर्व समय में बल्कि प्रकृति मात्र को इंगित करने लगते हैं। कोसाम्बी प्रशिक्षण से इतिहासकार नहीं थे। गणित और विज्ञान में प्रशिक्षित थे। मैं उनके छात्रों से उनकी पद्धति के सम्बन्ध्ा में सहमत हुआ करता था। उनसे मिलने से पहले मैं राजनीति शास्त्र को एक हद तक गम्भीरता से पढ़ चुका था। मुझे माक्र्स की आलोचनात्मक दृष्टि की ख़बर थी और मैं उनसे और उनके छात्रों से बात करते हुए वे सारे तर्क इस्तमाल करता था। यह सच है कि कोसाम्बी कभी भी डांगे या किसी भी और रंग के राजनेता की तरह विचारध्ाारा से जुड़े नहीं थे। ऐसी कई भ्रामक ध्ाारणाएँ जैसे एशियायी उत्पादन पद्धति आदि को उन्होंने अपने लेखन में तिरस्कृत किया था। वे परम्परा को बहुत सम्मान से देखते थे।
उदयन- क्या आप यह कह रहे हैं कि वे परम्परा को संकुचित करके नहीं देखते थे ?
कुमार- हाँ। एक बार जब मैं उनके साथ जयकर बंगलो के पास टहल रहा था, उन्होंने मुझसे कहा, ‘तुम्हें किसी भी निष्कर्ष पर पहुँचने के पहले चीज़ों को बहुत ध्यान से देखना चाहिए। तुम्हें वह चीज़ मात्र देखना चाहिए। पहले देखने का ढंग आना चाहिए और उसे विकसित करना चाहिए और तब जाकर तुम व्याख्या करो। सबसे पहले अन्वीक्षण (आॅब्ज़र्वेशन) को बिना किसी बाध्ाा के गहरायी से करना चाहिए।’ वे कहा करते थे कि अगर कोई व्यक्ति किसी अनुष्ठान में बायीं से दाहिनी ओर जा रहा है, तुम्हें उसे ध्यान से देखना चाहिए, केवल उसके बाद तुम जैसा चाहो उसकी व्याख्या करो। क्योंकि कलात्मक सृजन किसी भी चीज़ की नक़ल पर आध्ाारित नहीं होते। मैं नहीं सोचता कि वे ऐसा कुछ चाहते, वे इससे कहीं अध्ािक परिष्कृत थे।
लेकिन आपको व्याख्या करने का प्रयास करना चाहिए और वह उछाल पाने की कोशिश करना चाहिए जो उनके लेखन में है। जब वे ग़लत भी होते, वे अपनी कल्पना को दाँव पर लगाने तैयार होते। वह ‘देखना’ भर नहीं था बल्कि ऐसी अवस्था में आ जाना था जहाँ आप सिर्फ़ ‘देखते’ हैं। वह रपट लिखना नहीं था, न ही किसी तरह का उपयोगितावादी नज़रिया। वह सिर्फ़ ‘देखने’ से शुरू होता था, उस अवस्था से जहाँ सिर्फ़ ‘देखना’ (आॅब्जर्वेशन) होता है, वह उनके लिए बेहद महत्वपूर्ण था। वे मुझे अक्सर कहते थे कि मैं उनके लिए एक फि़ल्म बनाऊँ और मुझपर उनका यह ऋण अभी बाक़ी है। पर मुझे उसके लिए कभी ध्ान नहीं मिल पाया। वे उस जनजातीय समुदाय पर फि़ल्म बनाना चाहते थे जो उन दिनों छोटा नागपुर के क़रीब रहता था। वे बताते थे कि उस जनजाति का एक हिस्सा तब तक के जनजातीय पद्धति से ही रहता है पर उसका बाक़ी हिस्सा काम की खोज में किसी औद्योगिक इलाके में चला गया है पर वह तब तक अपने अनुष्ठान जारी रखे था और अपनी ही तरह की जनजातीय पद्धति से रहने का प्रयास कर रहा है। मैं उनसे पूछता था, ‘आप उस जनजाति में क्या देखना चाहते हैं ?’ वे कहते थे, ‘हम वहाँ जायेंगे और देखेंगे। अगर तुम्हें देखना आता है, तुम बहुत कुछ देख लोगे।’ वे यह कई बार कहते थे मानो मुझे वह करना ही चाहिए था मानो ऐसा करके मैं उनपर कोई उपकार करता।
उदयन- यह वही समय था जब आप घटक से भी ज़ोर-शोर से बातें कर रहे थे।
कुमार- मैंने घटक से पूछा था कि क्या वे कोसाम्बी से मिलना चाहेंगे, पर वे नहीं मिल सके।
उदयन- आपके कोसाम्बी के जैसे इतिहासकार से सम्बन्ध्ा का आपके महाकाव्यात्मक रूपाकार के प्रति लगाव से क्या रिश्ता बन सकता है ? क्या यह लगाव आपके कोसाम्बी से मिलने से पहले से था ?
कुमार- यह था। लेकिन इन सब चीज़ों ने उसमें योगदान ही दिया होगा। इसमें सबसे पहले मेरी माँ थी जिन्होंने ही मुझे ज़्यादातर वक़्त पाला था। उनका कलाओं से ताल्लुक दरअसल लगभग सारा का सारा महाकाव्यात्मक कलाओं से ही था। उनका सम्बन्ध्ा पुराणों से था। ज़्यादातर पुराणों से। महाभारत से। रामायण से। उनके सारे जीवन का ही सरोकार महाकाव्यात्मक था। उसमें ‘स्ट्रचर’ या ‘प्रयोजन’ नहीं थे। वे ऐसी किसी चीज़ को नहीं जानती थी जिसे ‘संरचित (स्ट्रचर्ड) वस्तु की तरह बरता जा सके, किसी को इसी रूप में दिया या लिया जा सके। उनके लिए विनिमय की पद्धति पूरी तरह महाकाव्यात्मक थी और मेरा पालन ज़्यादातर उन्होंने ही किया था। साथ ही विभाजन के बाद से मैंने कुछ ऐसा जान लिया था जिसके अनुसार यह समझ बन गयी कि सोचने का सिर्फ़ एक ढंग नहीं है। संसार कई तरह से बना है और केवल महाकाव्यात्मक रूपाकार ही उस सारे सम्बन्ध्ाों को जगह दे सकता है।
उदयन- क्या वे आपको ‘रामलीला’ जैसी महाकाव्यात्मक प्रदर्शनकारी कलाओं को दिखाने ले जाती थी ?
कुमार- लारकान में ज़रूर। पर बम्बई में नहीं, यहाँ तो नाटक भी नहीं। केवल सिनेमा। बचपन में भी मेरे पिता सैर पर जाते वक़्त मुझे सिनेमाघर में छोड़ जाते थे। वे काम के बाद शाम को सैर पर जाते थे। लारकाना में हम लोग लम्बी सैर पर जाते थे। वे मुझे एक जगह तक साथ रखते फिर मुझे सिनेमाघर में छोड़ देते। वे उस इलाके के खास शख़्स थे और उनके लिए वहाँ एक खास सीट ख़ाली रहती थी। मेरे लिए सिनेमाघर में सोफ़ा रहता था। दरवाज़ा पर खड़ा टिकट वाला और ऐसे ही दूसरे लोग मुझे पहचानते थे इसलिए मेरे पिता मुझे उनके भरोसे छोड़कर आगे की सैर पर चले जाते थे। मैं फि़ल्म के बीच में सिनेमाघर पहुँचता था, मैं कभी-कभार ही पूरी फि़ल्म देख पाता था क्योंकि मेरा फि़ल्म देखना पूरी तरह इस पर निर्भर करता था कि उनका काम कब खत्म होगा, कब वे सैर पर निकलेंगे और कब मुझे सिनेमाघर में छोड़ेंगे। वे मुझे लेने भी कभी भी आ जाते थे। (यह अनुभव कुछ-कुछ बे्रसाँ की फि़ल्मों के जैसा था) और मुझे ले जाते थे। पर जब मैं अपनी माँ के साथ जाता, मैं पूरी फि़ल्म देख पाता। बम्बई में वे कई बार मेरे साथ फि़ल्म देखने जातीं, कई बार मुझे किसी के साथ वहाँ भेज देतीं और मेरे लौटने पर मुझे उसके बारे में बताने को कहतीं। वे श्रीमद्भागवत जैसे अनेक ग्रन्थ पढ़ती थी और मैं नौ साल की उम्र तक स्कूल जाता नहीं था। मैं जब भी स्कूल जाता, मुझे उससे चिढ़ होती, मुझे वह बिल्कुल पसन्द नहीं था और वे कहतीं, ‘कोई बात नहीं, मत जाओ’ और वे मुझे उन्हीं ग्रन्थों की बातें बतातीं।
उदयन- ज़ाहिर है आप विभाजन के पहले भी दूसरे परिजनों की तुलना में उनके ज़्यादा क़रीब थे, अपने पिता की तुलना में भी।
कुमार- मैं उनके बहुत क़रीब था और तब भी मैं उन्हे बहुत बाद तक पहचान नहीं सका, उनके व्यक्तित्व को, जब तक मैं फि़ल्म संस्थान नहीं गया और इसके बाद भी वे मुझे सब कुछ बताती थी। उन्होंने मुझे मेरे पिता के साथ बीती अपनी अपनी पहली रात के बारे में भी बताया था।
उदयन- क्या वे घर में केवल आपसे बात करतीं थीं ?
कुमार- वे मुझसे सारा वक़्त बात करतीं थीं। मैं उन्हें जान सका, इससे तुरन्त बाद ही वे गुज़र गयीं। मैं तुम्हे बता ही चुका हूँ कि जब मैं नौ बरस का था, मेरे पिता चल बसे, और मुझे अपने में जिम्मेदारी का बोध्ा हुआ कि मैं अपनी माँ की रक्षा के लिए कुछ करूँ। मैं कर ही क्या सकता था, मैं सिर्फ़ नौ बरस का था। मैं सिर्फ़ इतना कर सकता था कि मैं अपनी पढ़ाई के बारे में गम्भीर हो जाऊँ, वह मैं हो गया। इसके पहले तक मेरे स्कूल से घर पर यह लिखा आता था कि मैं बहुत बातूनी हूँ पर पिता के जाने के बाद मैं बहुत शरीफ़ किस्म का हो गया। मैं स्कूल की पढ़ाई को गम्भीरता से लेने लगा। मैं जब फि़ल्म संस्थान चला गया, मैं वहाँ से अक्सर घर आ जाता, माँ को लगता वहाँ मुझमें बहुत बदलाव आ रहा है। मेरे पिता मुझे मेरे बचपन में 5 या 6 बरस की उम्र में पीने को देते थे। हर शाम जब हम सिनेमाघर से लौटते, वे आँगन में बैठते। उनसे मिलने वहाँ लोग आया करते थे। वे मुझसे हरेक के लिए पैग यानि ब्लेक डाॅग ग्लासों में भरने को कहते और एकाध्ा बून्द मुझे भी देते। इस तरह मैं भी उस समूह में शामिल हो जाता। जब मैं संस्थान से घर लौटता माँ मुझे सुबह तक पीने को देती, वह रम या किसी और चीज़ का पैग होता। मैं चकित हो जाता था, पर वे बहुत जल्दी चली गयीं। उन्होंने मुझपर भरोसा कर मुझे स्वतन्त्र कर दिया।
उदयन- अगर मैं आपकी जि़न्दगी और आपके काम का दूर दराज़ का सम्बन्ध्ा जोड़ने की कोशिश करूँ, मैं आपके आपकी माँ से रिश्ते को आपकी बियाॅन फि़ल्म में बियाॅन के उनकी आया से खूबसूरत रिश्ते से जोड़ने की कोशिश करूँगा क्योंकि जिस गहरी करूणा और प्यार से आपका कैमरा बियाॅन को उनकी आया के साथ दिखलाता है, वह मुझे यह कर सकने को प्रेरित करता है। जब आप संस्थान में फि़ल्म बनाने का प्रशिक्षण ले रहे थे, आप अपनी माँ से विछोह से उत्पन्न उनके प्रति चाहना की समझ में भी प्रशिक्षित हो रहे थे। मैं यहाँ तक कहूँगा कि अगर घटक की फि़ल्मों की सामग्री दुःख है तो आपकी फि़ल्में चाहना, विप्रलम्ब की सामग्री से बनी हैं। शायद आप अपनी फि़ल्मों के सारे रिश्ते इसी सामग्री से गढ़ते हैं।
कुमार- वह मेरी हर चीज़ का आध्ाार है। अगर मुझे यह महसूस होता है कि ‘चाहना’ नहीं आ पा रही, मैं वह फि़ल्म नहीं बनाता। मैंने लगभग कोई ऐसा काम-काज जीवन भर नहीं किया है जिससे मुझे अलगाव रहा हो। इस अर्थ में खुशकिस्मत व्यक्ति हूँ। मुझे जिस चीज़ की चाहना है, वह कोई निश्चय चीज़ नहीं है। मैं खुद नहीं जान सका कि वह ठीक-ठीक क्या है। मैं सोचता हूँ कि अगर मुझे पता चल जाता है कि वह क्या है जिसकी मुझे चाहना है, मैं फि़ल्म बनाना छोड़ दूँगा। मुझमें चाहना का अनन्त है। कल ही जब कुछ लोग सिगरेट, चरस आदि पीने के बारे में बात करते हुए यह सोच रहे थे कि उससे स्पर्श किस तरह प्रभावित होता है, मैं स्पर्श के बारे में यह विचार करने लगा कि वह किस हद तक वायवीय अनुभव है और कैसे वह अचानक दूर हो जाता है। मुझे यह सोच कर अफ़सोस हुआ कि मैंने कभी स्पर्श की दृष्टि से सिगरेट आदि नहीं पी, जैसे आप उस दृष्टि से प्रेम करते हैं। मैं यह कहना चाहता हूँ कि उस चाहना को दूसरे माध्यमों से विस्तारित किया जा सकता है क्योंकि मैं ‘भौतिक’ और ‘आध्यात्मिक’ के बीच अन्तर नहीं करता। ‘चाहना’ को हर चीज़ में फैल सकना चाहिए।
उदयन- इसी चाहना के भाव ने आपको घटक की फि़ल्मों की ओर आकर्षित किया होगा। उनकी फि़ल्मों की शुरुआत इसी ‘चाहना’ की पृष्ठभूमि से होती है। इसी से यह स्पष्ट हो जाता है कि आप अब जो भी देखने-सुनने वाले है, वह इसी भाव की बढ़त होगा।
कुमार- हिन्दू आध्यात्मिक परम्परा में यह कहा जाता है कि मनुष्य को आकांक्षाओं को वश में रखना चाहिए। मैं इससे एक हद तक ही सहमत हूँ कि आपको आकांक्षाओं को वश में करना चाहिए पर आपको उन्हें दोबारा प्रकट होने का अवसर देना चाहिए, उसी तीव्रता और मानो उसी प्राणवत्ता के साथ। यह इसलिए क्योंकि यह ठीक है कि वह आपकी आकांक्षा है आपके स्पर्श, गन्ध्ा या आपके किसी के साथ-साथ होने का आपका व्यक्तिगत प्रकटन है पर वह ठीक उसी समय आकांक्षा मात्र भी है जो सभी की है। वह कुछ ऐसी है जिसमें ‘भौतिक’ और ‘आध्यात्मिक’ दोनों शामिल है और वह अस्तित्व के इन दोनों आयामों के प्रति सहिष्णु है, किसी एक को दूसरे के लिए तिरस्कृत नहीं करती। वह कुछ इस तरह की है। गीता कहती है कि अन्वीक्षा (आॅब्ज़र्वेशन) का कर्म स्मृति, आकांक्षा और समझ को परे रख देता है। बियाॅन को उद्धृत करते वक़्त मैंने सोचा, नहीं, हमें आकांक्षा का त्याग नहीं करना चाहिए। हमें उसे दोबारा प्रकट होने का मौका देना चाहिए, चाहना को भी। वरना सम्बन्ध्ा-सूत्र दोबारा प्रकट नहीं होंगे, अगर आप सचमुच समझ को छोड़ देंगे, आप वि-वस्तुकरण करेंगे और वस्तु को बोलने का मौका देंगे, फिर चाहे वह वस्तु शिला हो या बादल या वैसा कुछ जिसपर तुम विचार कर रहे हो। आपको अन्वीक्षा के दौरान कुछ घटनाएँ कुछ आकांक्षाएँ और स्मृति छोड़ देनी होती हैं जो उस आब्जर्वेशन में बाध्ाा बन रही हों लेकिन वह भी इसलिए वे फैल सकें और खुद को संसार और आपसे जोड़ सकें। तुम्हें आकांक्षा को दोबारा प्रकट होने देने का अवसर देना चाहिए।
उदयन- क्या यह बात शाॅट लेते समय भी सच होती है ?
कुमार- हाँ। दरअसल वह कँपकँपाहट आना चाहिए, वह सिहरन दोबारा लौटना चाहिए। उसमें एक ऐसी उठान होती है जिससे उसका विस्तार हो सके और वह आकांक्षा को अपने भीतर आने दे। तब वह हरेक की आकांक्षा होती है, आकांक्षा मात्र।
उदयन- और तब क्या शाॅट अपना अलंकार भी ध्ाारण कर लेते हैं।
कुमार- अलंकरण होना ही चाहिए। उसे इसमें आनन्द होना चाहिए और जिन रास्तों से सादगी लायी जाती है, उन्हें छोड़ देना चाहिए और संरचनाओं, रूपाकारों, तर्क आदि सभी कुछ इस हर्ष में घुल जाते हैं।
उदयन- अगर किसी कला के होने के क्षण में ‘नैतिक आयाम’ उसके रूपाकार में घुल जाते हैं, वे दोबारा प्रकट कैसे होते हैं ?
कुमार- मैं कल उदयन पटेल से उन लोगों के बारे में पूछ रहा था, जो समूह में उनके पास आते हैं (उदयन समूहों के मनोविश्लेषण में लगे हैं।)। उनके लिए यह और भी कठिन है। हमारे लिए यह प्रश्न सृजन की प्रक्रिया के दौरान उठता है लेकिन वे (मनोविश्लेषक) इसे केवल ग्रहण करते हैं, वे इसका इस तरह सामना करते हैं, मानो वे नैतिकता निरपेक्ष हों। वे बहुत अध्ािक नैतिकता निरपेक्ष हैंः दोनों उदयन पटेल और बुनुएल। वे नैतिकता को बाँध्ाते नहीं हैं इसीलिए मैं सोचता हूँ कि महाभारत पर फि़ल्म बनाने के लिए पीटर ब्रूक्स की तुलना में बुनुएल अध्ािक उपयुक्त थे। उदयन पटेल बता रहे थे कि वे किसी भी बिन्दु पर कुत्ते-बिल्लियों तक के प्रति सहिष्णुता को छोड़ते नहीं हैं। बुनुएल अपने ढंग से नैतिकतावादी नहीं थे (दरअसल वे तो सारी नैतिकता को नष्ट करने में लगे थे) पर वे कहते थे कि हमें लोगों की फि़क्र करना चाहिए, बिना उसके अन्तर्दृष्टि उपलब्ध्ा नहीं होती, वह नैतिकतावादी में नहीं होती। मैं सोचता हूँ अगर हम इन सारे सोपानों से गुज़रते हैं, आकांक्षाओं को जीवन्त बनाये रखना, उन्हें उनके भद्दे रूप में बनाये रखने से बेहतर है। आकांक्षाओं का बहाल होना नैतिकता का बहाल होना ही है। आकांक्षा से कर्म मुमकिन होता है, पर वह बहाल हुई, वापस लौटी आकांक्षा होती है, जिसका अर्थ होता है कि वह जीवन की पुष्टि करती है, वह हत्या नहीं करती क्योंकि तब आप जीवन की पुष्टि करने में आनन्द लेते हैं, उसके आगे घुटने नहीं टेकते। तब अलंकरण न तो रूपवादी साध्ान होता है और न यान्त्रिक। और न ही वह विशुद्ध रूप से चमत्कारपूर्ण होता है। वह कुछ ऐसा होता है जिसे आपने रचा होता है इसीलिए यह सब सृजन हो जाता है और तब नैतिक प्रश्न और गहरा जाते हैं। क्योंकि अगर आप सबकुछ को अपना सृजन ही मानते हैं, सहिष्णुता आप पर हावी हो जाती है।
उदयन- चलिए हम बुनुएल की बनायी बेहद संवेदनशील फि़ल्म ‘विरीदियाना’ के बारे में बात करते हैं। मैं समझता हूँ कि जब ईसाई संस्थान ने इसे देखा होगा, उसे पीड़ा हुई होगी। लेकिन आप जैसा व्यक्ति जो उस तरह बड़ा हुआ जैसे आप हुए हैं, इसे किस तरह देखता है, इसका आप पर क्या असर हुआ था?
कुमार- इस फि़ल्म के कुछ दृश्य सीध्ो-सीध्ो रोमन केथोलिक भित्ती शिल्पों से लिये गये हैं। मेरे लिए इस फि़ल्म का अर्थ अनिश्चित है। और फि़ल्म में जिस तरह उन्होंने पूरे वक्त सत्य के साथ क्रीड़ा की है, वह मेरे लिए महत्वपूर्ण हैः सत्य का निर्झर और क्रीड़ात्मक होना। शीर्षक आते समय ही उस लड़की के रस्सी कूदने और उसके पैर के इध्ार-उध्ार पड़ने का दृश्य से आनन्द आ गया था मानो सत्य कुछ उसी तरह का हो। इसी दृष्टि से उन्होंने पूरी फि़ल्म बनायी है और इसमें वे आपको मसलन आपके ताकझाक करने पर आपको चेतावनी देने लगते हैं जैसे चाबी के छेद से देखते हुए वे आपका स्त्री के साथ तादात्म्य स्थापित कर देते हैं, उसकी खूबसूरत टाँगों से, उसके सौन्दर्य से और फिर उसे आपसे दूर ले जाते हैं। पूरी फि़ल्म में निरन्तर खिलन्दड़पन है और अब जब हम इस बारे में बात कर ही रहे हैं तो मुझे याद आ रहा है कि कल तुम मुझे कह रहे थे कि मैंने भी अपनी फि़ल्मों में पाँव के साथ वैसा ही खिलन्दड़पन का व्यवहार किया है। बुनुएल से किसी एक संवाद में ब्रेसाँ के बारे में पूछा गया, वे बोले थे, ‘हाँ हाँ उस फि़ल्म ‘एंजिल्स आॅफ़ द सिन’ का वह शाॅट जिसमें नन अपने पैरों से ठोकर मारती है, कमाल का था।’
उदयन- लेकिन दरअसल बुनुएल की फि़ल्म के पैरों और आपकी फि़ल्मों के पैरों में बुनियादी फ़र्क है। बुनुएल की फि़ल्मों में वे पैर पुरुष की आँखों से देखे गये हैं और आपकी फि़ल्मों में उन्हें स्त्री नज़रों ने देखा है। एक तरह से बुनुएल की फि़ल्मों के पाँव स्त्री के रक्त माँस से ही बने हैं पर उन्हें पुरुष दृष्टि ने गढ़ा है।
कुमार- मेरी फि़ल्मों में वे स्त्री की व्यक्तिमत्ता को व्यक्त कर रहे हैं।
उदयन- जबकि बुनुएल में कभी वे अपने प्रति प्रेम को और कभी ताकझाक को व्यक्त कर रहे हैं। आप अपनी फि़ल्म ‘तरंग’, जिसे मैं कमोडिफिकेशन्स पर विस्तार कहना चाहूँगा, के बाद चेखव की ओर क्यों मुड़े, ऐसा क्या था जिसके कारण आपको चेखव की कहानी ‘इन द गली’ पर फि़ल्म बनाने की ओर प्रेरित किया ?
कुमार- रोशन और मैं दोनों ही इस कहानी पर काफ़ी पहले से काम कर रहे थे। शुरुआत में बहुत पहले होमी भाभा फेलोशिप के दौरान ‘तरंग’ बनाने से पहले हम इस कहानी पर केवल प्रेमवश काम करते रहे। मुझे याद है कि मैंने माॅस्को से पूछा था कि क्या वे इस फि़ल्म को बनाने में दिलचस्पी लेंगे, यह 1970 के दशक की बात है। लेकिन मैंने उस पर फि़ल्म 1991 में बनायी। मुझे लगा था कि इस कहानी में जीवन है। मुझ पर इसका ऐसा असर था। मुझे यह भी लगा था कि इसके भीतर का जीवन वास्तविकता से परे जाता है, किसी ख़ास वास्तविकता से, जिसके बारे में बोला जा सके। फिर मैंने इसके बारे में निर्मल (वर्मा) से, अपने पड़ोसी कमलेश्वर से बात की। भीष्म (साहनी) जी ने इसका पहला ड्राफ़्ट लिखा। मुझे इसके विषय में कई तरह की प्रतिक्रियाएँ मिली थीं, पर मैं किसी भी प्रतिक्रिया के बारे में आश्वस्त नहीं था मानो उसमें कुछ और था जो मुझे इन प्रतिक्रियाओं में नहीं मिल रहा था। नाबाकोव को मैंने बहुत बाद में पढ़ा। उन्होंने चेखव पर कुछ लिखा है। उसके पहले तक मैंने उन पर कोई व्याख्या नहीं पढ़ी थी। मैंने उनकी कहानियों के रूपान्तरण कई फि़ल्मों और नाटकों में देखे। मैं वैसा कुछ करने की सोचकर भी घबरा जाता था।
वे उन फि़ल्मों और नाटकों में अभिनेताओं का मज़ाक बना रहे थे। यह मुझे ठीक नहीं लगा था क्योंकि वे अभिनेताओं का मज़ाक बनाकर दर्शकों का मज़ाक बना रहे थे। मैं सोचने लगा कि हमें ऐसा क्या करना चाहिए कि ऐसा न हो। या ऐसा किया जाये पर फि़ल्म इस पर ख़त्म न हो। मेरा ख़याल है कि वह फि़ल्म बहुत सही समय पर मुझे बनाने मिल गयी, ठीक ‘ख़याल गाथा’ के बाद। इस समय तक मुझे अपने काम की उपलब्ध्ाि का एक हद तक बोध्ा हो चुका था, कम-से-कम इतना कि मैं अपने बारे में व्यंग्यात्मक हो सकूँ। और यहीं से मुझे ‘कस्बा’ बनाने का रास्ता मिला। मैंने सोचा, मैं अपने कैमरे पर काम करने के ढंग या आख्यान के भीतर अपने पर व्यंग्य करूँ और ख़ुद को कुछ ज़्यादा हल्केपन से लूँ। इसीलिए इस फि़ल्म के सम्बोध्ान का ढंग हल्का होता गया और मुझे उस दिशा में जाने के लिए बहुत कोशिशें करनी पड़ीं। इसे विकसित करने में फ़रीदा ने बहुत मदद की हालाँकि वे बहुत छोटी थीं। उन्हें यह सूझा कि इस कहानी में घटनाएँ होती हैं फिर वे विलुप्त हो जाती हैं, किसी सांगीतिक प्रस्तुति की तरह, इसी बात की ताईद वनराज भाटिया ने भी की। चीजे़ं होती है फिर ग़ायब हो जाती हैं। और फिर कहानी में एक नया मोड़ आता है, एक विशेष अन्तरण जो मुझे लगता है फि़ल्म में भी आया है, जहाँ आख्यान चरित्रों या समाज आदि का मज़ाक बनाने की जगह ख़ुद का मज़ाक बनाने से लेकर क़रीब-क़रीब रहस्यवादी हो जाता है। यह उस वक़्त होता है जब छोटी बहू अपने टट्टू के बारे में कहती है कि वह पानी नहीं पी रहा। वहाँ के बाद से हम एक नये संसार में प्रवेश कर जाते हैं मानो षड्ज बदल गया हो। बहुत लोगों को यह पसन्द नहीं आता। मुझे कई लोगों ने कहा कि हर चीज़ के बीच में षड्ज का बदल जाना ठीक नहीं। लेकिन वैसा कहानी में था, उस चेख़व में जिसे मैंने पढ़ा था, उसके बगैर मैंने वह कहानी फि़ल्म बनाने के लिए न चुनी होती। अब प्रश्न यह था कि उस कहानी में जो सशक्त क्रिश्चियन लहज़ा है, उसका क्या किया जाये ? पर जिस समय मैं यह देख पाया कि उसकी उत्पत्ति हमारे बौद्ध विचार में भी हो सकती है क्योंकि वह विचार ईसाईयत समेत बहुत-सी विचार पद्धतियों को संसार में सभी जगह ले गया है। मुझे चैन आ गया। मैं यह देख सका कि उस तरह की समस्याओं का निदान बौद्ध विचार में है। इसलिए मैं उस किस्म की चीज़ के प्रकटन को तथाकथित हिन्दू कलाओं में खोजने लगा। बौद्ध विचार को ध्ार्म के रूप में भारत से निष्कासित कर दिया गया था पर उसका भाव जीवित रहा आया, वह मिनिएचर चित्रों में भी है।
उदयन- इसीलिए आपकी फि़ल्म ‘कस्बा’ का मिनिएचर चित्रों के साथ सम्बन्ध्ा बन सका?
कुमार- हाँ। मैंने उस सम्बन्ध्ा को ‘ख़याल गाथा’ बनाते समय पहले ही विकसित कर लिया था। उसके बाद उस विषय में मुझे भरोसा हो गया था कि मैं उसके साथ खेल सकता हूँ। दरअसल जब मैं ‘ख़याल गाथा’ बना रहा था, मुझे मिनिएचर चित्र समझ में आने लगे, मेरे सामने मौजूद इस परम्परा की शक्ति महसूस होने लगी, विशेषकर ‘अकबरनामा’ के मिनिएचर चित्रों में। उन्हें महान कलाकृतियाँ माना जाता है। आमतौर पर जब आप काँगड़ा लघुचित्रों की बात करते हैं, लोग कहते हैं कि वे ठीकठाक हैं। पर अपने ऊपर भरोसे और एक विशेष तरह के साम्य के कारण मैं काँगड़ा चित्रों को लेकर खुश था। मैं वहाँ ‘शूट’ करने भी गया। मैं उनके भीतर की गतिशीलता देख सका और उन्हें यह मानकर कि उन्हें कमज़ोर लघुचित्र माना जाता है, मैं हताश नहीं हुआ। अगर आप सभी लघुचित्रों को ध्यान से देखें, आप यह मानेंगे कि अक़बरी लघुचित्र अद्भुत हैं। काँगड़ा चित्रों का एक तरह से उनके साथ उतार का सम्बन्ध्ा है पर फिर भी आप उन्हें नकार नहीं सकते। वे बहुत ही परिष्कृत लघुचित्र है।। वे कुछ ऐसा कह रहे हैं, जो अक़बरी लघुचित्रों के दायरे में नहीं है। वे कुछ अलग कह रहे हैं, कुछ अलग अनुभव संसार खोल रहे हैं। हमने फि़ल्म की आम तरह से शूटिंग नहीं की थी। मैं फि़ल्म में लघुचित्रों से बौद्ध कला और वहाँ से रेनेसाँ कला की ओर थोड़ा-बहुत जा सकता था जिसके कारण मैं उनमें समानता दिखा बना सकता था और अलग-अलग तरह के अभिनेताओं को एकसाथ ला सकता था। जैसे रघुवीर यादव का सर्कस वाले जैसा स्वभाव है, मानो वह कलाबाज़ी का कलाकार हो, मनोहर सिंह का ढंग अलग था, वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में पढ़े थे और स्तानिस्लावस्की को भारतीय नाट्य परम्परा से जोड़ने का प्रयास करते थे। मीता वशिष्ठ भी नाट्य विद्यालय में ही पढ़ी हैं लेकिन मैंने भी उन्हें कुछ हद तक गढ़ा है। दरअसल उन्होंने मेरे साथ मेरी फि़ल्म ‘वारवारवारी’ में काम करने से शुरू किया था। अलकनन्दा मराठी और हिन्दी सिनेमा से आयी थीं और उनका ढंग अलग था, उनके कुटुम्ब में नूतन समेत सभी लोग शोभना समर्थ से सम्बद्ध थे। वे इंग्लैण्ड, फ्राँस इत्यादि होती हुई मराठी रंगमंच से जुड़ी थीं। इस तरह ‘कस्बा’ में अच्छे खासे लोग संवादरत थे और हरेक ने अपनी विशिष्टता बरकरार रखी थी। उस फि़ल्म की अनुगूँज, जहाँ तक उसके लहज़े और थीम का प्रश्न है, उसे कुडि़याट्टम् से लेकर बौद्ध कला तक जोड़ती हैं। इन सभी में ऊर्जा का स्तर समान बना रहता है। यह उपभोक्ता समाज के उस गुण को प्रकाशित नहीं करता जो हरेक चीज़ को उपभोक्ता वस्तु में संकुचित कर देता है।
उदयन- उसे बिना ऊर्जा का बना देता है।
कुमार- वह उसे निस्तेज करता हैं क्योंकि तब उसमें कोई गुण नहीं रह जाता, वह केवल मात्रा होकर रह जाता है जिसके सन्दर्भ में गोदार की फि़ल्मों पर लिखते हुए एक बहुत ही काबिल इतालवी आलोचक ने कहा था कि वे एक क्षण को मसलन मायकोव्हस्की को उद्धृत करते हैं और दूसरे ही क्षण एण्डी वारहोल की पाॅप कला के छह काॅफ़ी कपों को या ऐसा ही कुछ उद्धत कर देते हैं। इससे ‘कमोडीफि़केशन’ का नकार नहीं हो पाता, भले ही गोदार ऐसा चाहते रहे हों।
उदयन- क्या आप ऊपर आये कुडियाट्टम् की इस सन्दर्भ में व्याख्या कर सकते हैं...
कुमार- हम केन्द्र बिन्दुओं के विषय में बात कर रहे थे, तुम्हे याद होगा। हर उपस्थिति आपके सामने है, इसलिए आप ख़ुद भी एक केन्द्र बिन्दु हैं। हर उपस्थिति का केन्द्र बिन्दु है, जहाँ से वह बाहर की ओर गतिशील होती है, और वह लगभग वर्गाकार पैटर्न में गतिशील होती है, बाहर की तरफ़ त्रिज्जीय (रेडीयल) ढंग से। मान लीजिए कि वहाँ दो उपस्थितियाँ हैं, वे एक-दूसरे से किसी बाहरी चीज़ के सहारे सम्बद्ध नहीं होंगी, यह सम्बद्धता उनके अपने केन्द्र बिन्दुओं से आएगी और उनके अपने देखने के केन्द्र से। इसलिए दर्शकों का दृश्यबन्ध्ा से सम्बन्ध्ा अन्य पद्धतियों मसलन ध्ाार्मिक या वैज्ञानिक या गणितीय (ज्यामितीय) नियन्त्रण पद्धति से बिल्कुल अलग होगा। वह कुछ ऐसा होगा मानो वह फैल रहा हो और सिकुड़ रहा हो। वे फैलाव एक-दूसरे को कुछ-कुछ घेरते भी हैं और केन्द्र बिन्दु केवल तब एक-दूसरे पर आ जाते हैं जब सभी चरित्र एक हो जाते हैं।
उदयन- कुडियाट्टम् की ये गतियाँ फि़ल्म का शाॅट लेने में अनुदित होती है और ये ध्ाार्मिक या वैज्ञानिक पद्धति से कैसे अलग हैं...
कुमार- दरअसल ये सब भी उन नियमों को खोज रहे हैं जिनसे सृजन संचालित होता है, ब्रह्माण्ड संचालित होता है।
उदयन- इस रास्ते शाॅट कैसे लिया जाता है ?
कुमार- यहाँ कुछ प्रस्तावित अन्तर्सम्बन्ध्ा होते हैं। जैसे तीन चरित्रों की उपस्थिति त्रिभुज बनाएगी, वह मेरी फि़ल्म या कुडियाट्टम् में भी त्रिभुज ही बनाएगी पर इसके बाद प्रयास यह जानने का होता है कि क्या उसे एक क्रम में दिखाया जाए या ज्यामितीय या तथ्यात्मक ढंग से याकि इस तरह न दिखाया जाए। अगर आप उसे इस तरह नहीं दिखाना चाहते तब भी कुडियाट्टम् आपकी मदद कर सकता है, एक दूसरे को आच्छादित करती ऊर्जाओं को प्रस्तावित कर। आप यह कैसे करेंगे ? यह उस सम्बन्ध्ा को समझने से होगा, जो ये चरित्र अपने केन्द्र बिन्दु से चलने के ढंग से बनाते हैं और उन केन्द्र बिन्दुओं को उस क्षितिज से जोड़कर देखते हैं जो भौतिक स्पेस की सीमा निधर््ाारित करता है। इस दृष्टि के कारण मैं बहुत-सी चीज़ों से मुक्त हो गया और यह मुझे ‘तरंग’ बनाने के पहले कुडियाट्टम् से मिली थी।
उदयन- ‘ख़याल गाथा’ में आप एक से अध्ािक आख्यानों को एक साथ बरत रहे थे, एक अर्थ में उस फि़ल्म में अनेक ध्ाुरियाँ हैं या एक से अध्ािक आख्यान रूप।
कुमार- ‘ख़याल गाथा’ में यह देखने का प्रयास था कि किस तरह दृश्य में कई प्रवेश मुमकिन हैं। लैंस हमेशा ही कन्वर्शन करता है। उससे प्रवेश के बिन्दु सीमित हो जाते हैं क्योंकि कन्वर्शन का छोर होता है। हमने अन्त नहीं रखा, हमेशा ही संक्रमिकता और क्रमिता एक साथ होते थे। मैं शूटिंग पर अपने सहयोगियों से कहता किसी भी चीज़ की निश्चित शुरुआत या अन्त नहीं होना चाहिए, तुम्हें हमेशा प्रस्थान बिन्दु को खयाल संगीत की अवध्ाारणा ‘गृह’ को मन में रखते हुए सोचना चाहिए पर साथ ही गृह, अंश और न्यास तीनों को भी मन में रखना चाहिए। इन तीनों से ख़याल का मुख्य सिद्धान्त बनता है और मेरे विचार से लघुचित्रों का भी। ये तीनों- गृह, अंश और न्यास एक साथ उपस्थित रहते हैं। आप यह नहीं कह सकते कि यहाँ ‘गृह’ है, यहाँ ‘न्यास’। ‘न्यास’ पहले ही ‘गृह’ में उपस्थित रहता है। ‘अंश’ अनुपात की अनुभूति है। ‘अंश’ का पूर्णता से सम्बन्ध्ा इस तरह है कि अंश (हिस्से) का पूर्णता से सम्बन्ध्ा ही ‘स्वर’ लगाने के ढंग को तय करता है लेकिन हर ‘सांगीतिक वाक्य’ का पूर्णता से इस तरह सम्बन्ध्ा होता है कि वह उस पूर्णता को जाग्रत कर देता है।
उदयन- आपकी लघुचित्रों की इस समझ के कारण ही सम्भवतः ‘कस्बा’ में हर चरित्र मानो एक रूपाकार बन गया हो।
कुमार- शब्दों के साथ भी ऐसा ही था, वे मानो एक चीज़ से दूसरी पर फिसल रहे थे। वे स्थिर नहीं थे। वे लगातार कहीं और फिसल जाते थे।
उदयन- क्या आपने रोबर्टो रोसेलीनी की फि़ल्में फि़ल्म संस्थान में ही देख ली थी ?
कुमार- दरअसल उन दिनों भारत में रोसेलीनी की फि़ल्मों पर रोक थी। ऐसा माना जाता था कि वे एक जानी मानी बंगाली स्त्री को भगा ले गये थे। वे उसे भगा ले गये थे या वह उन्हें पता नहीं है। वे उस समय यहाँ भारत पर एक फि़ल्म बनाने आये थे। बाद में वे नहीं आ सके। उन्हें भारत से प्यार था। उन्होंने एक फि़ल्म बनायीः भारत-मातृभूमि। मैंने वह फि़ल्म पेरिस में देखी थी। सत्यजीत राय को वे पसन्द नहीं थे। दरअसल उन्होंने एक रोसेलीनी के खिलाफ़ बहुत ही तल्ख लेख लिखा था। भारतीय फि़ल्मकारों पर डी. सीका का अध्ािक प्रभाव था। राय ने वह लेख वेनिस फि़ल्म समारोह से लौट कर लिखा था। उन्होंने वह लेख ‘ला मोण्द’ के लिए लिखा था जिसे फ्राँसीसी न्यू वेव के लोग बहुत पसन्द करते थे। उन्होंने रोसेलीनी की फि़ल्म ‘ए-ह्यूमन वाॅइस’ पर लिखा था। उस सारी फि़ल्म में रोसेलीनी ने लगभग काटा ही नहीं था। वे मानो सम्पादन (एडिटिंग) करना ही न चाहते हों। उनकी बहुत रुचि प्लाँ सेकाॅस में थी जिसे अँगे्रज़ी में ‘प्लान सीक्वेन्स’ कह सकते हैं, जहाँ सारा क्रम एक ही शाॅट में होता है और वह संकेतात्मक और काव्यात्मक होता है। सिम्फनी की तरह नहीं होता, जो नियन्त्रित चीज़ है। इस तरह पश्चिमी संस्कृति अपने आप पर भी दूसरे विश्वयुद्ध के बाद सवाल उठा रही थी। वहाँ संगीत समेत सभी निर्मितियों के दैत्याकार होने की समझ बढ़ रही थी, जिसके बारे में उन्हें लगता रहा था कि वह सब मानो युद्ध संगीत हो। जैसे वह समूची संस्कृति ऐसे व्यक्तियों का सृजन हो, जो दूसरों को नियन्त्रित करना चाहते हों। जब सारे यथार्थवादी स्कूल को यह समझ आया कि उस सभ्यता का फासिस्ट नियन्त्रण हो रहा है और उन्हें उस दृष्टि को छोड़ना होगा, इस समझ के भीतर दिल ध्ाड़कता था, इसमें गहरी अनुभूति थी। यह नियन्त्रित करने वाली संस्कृति को तिरस्कृत करने की समझ से उत्पन्न हुई थी। क्योंकि तब तक लोग उस संस्कृति का झूठ बोलने में उपयोग करने लगे थे और उसे जब विश्वसनीय बनाया जाने लगा तब भी इन्तहा हुई।
उदयन- आप रोसेलीनी के घटाव (सब्स्ट्रेक्शन) के बारे में बात कर रहे थे। क्या आपकी फि़ल्मों में यह घटाव रोसेलीनी की फि़ल्मों से आया है ?
कुमार- उस तकनीक का इस्तेमाल करने वाले कई हैं, वे उनमें से एक हैं। मेरी फि़ल्मों में शायद वह बहुत कुछ बे्रसाँ और घटक से आया है। वे उन्हें इतना विपन्न बना देते थे कि सादगी का भाव पैदा हो जाता था। ब्रेसाँ उसे एक सम्पूर्ण परिस्कृत छवि में प्रस्तुत करते थे जो बहुत सरल होती थी, अनलंकृत। एक बार मैंने आइजे़न्स्टाइन संग्रहालय के संयोजक वाॅम क्लीमेन से पूछा था कि आइजे़न्स्टाइन नव्य यथार्थवाद (नियोरियलिज़्म) के बारे में क्या सोचते थे। वे बोले, ‘वे सोचते थे कि वह एक अलंकरण है।’ अद्भुत! वह खूबसूरत जवाब था। वह कमाल की समझ थी। वे बोले, ‘तुम किन्हीं दो जानवरों की खालें लेकर पहन लो, यह उस तरह का है, आइजे़न्स्टाइन नव्य यथार्थवाद के बारे में ऐसा सोचते थे।’ उसके बाद ज़ाहिर है, मैं उस विचार पर अपनी संस्कृति के भीतर से बढ़त करता रहा और उनसे कुछ और सवाल पूछता रहा। फिर वे बोले, ज़ाहिर है एक दुभाषिये के माध्यम से, ‘काश, आइजे़न्स्टाइन का तुम्हारे जैसा कोई शागिर्द होता, फिर उन्होंने मुझसे सीध्ो बात नहीं की पर माॅस्को के मेरे आखिरी दिन में उन्होंने मेरे दुभाषिये से कहा, ‘अब तुम संग्रहालय जाओ और कुमार को ‘आन्द्रे रूब्लिएव’ का आईकन दिखाओ।’ क्लीमेन जब भारत आये, वे बम्बई के हमारे घर भी आये।
उदयन- क्या वे फि़ल्मकार हैं ?
कुमार- नहीं। वे सिर्फ़ आइजे़न्स्टाइन की आत्मा है। मैं उम्मीद करता हूँ कि वे अभी जीवित हों। मैंने उन्हें कुछ चिट्ठियाँ भेजी थीं, जब अरुण खोपकर वहाँ थे और कोई और भी था जेा वहाँ पढ़ना चाहता था। उन्होंने उसकी मदद की थी। जब वे एक प्रतिनिध्ाि मण्डल के साथ भारत आये, उनके अलावा बाकी सब राजकपूर जैसे फि़ल्मकारों से मिलने चले गये, वे मेरे पास आये।
उदयन- आपके अलंकरण के बारे में क्या विचार हैं खासकर आपके ब्रेसाँ और रोसेलीनी को पसन्द करने के सन्दर्भ में ?
कुमार- ब्रेसाँ में सादगी है। पर सिनेमा में दोनों की ही सम्भावना हैः सादगी की और अलंकरण की। ब्रेसाँ में मुख्यतः सादगी है हालाँकि वे भव्यता की आकांक्षा रखते हैं। जब मैं उस तरह काम करता हूँ, मैं चाहता हूँ कि अलंकरण अनुभव हो, यथार्थ का चमत्कार घटित हो और हमें उसे घटित होने देना चाहिए। भारत में अलंकार की जो समझ है जहाँ क्रीड़ा सम्भव है, मैं उसे अपने काम में रखना चाहता हूँ और यह न ब्रेसाँ में है और न रोसेलीनी में, न केथोलिक फि़ल्मकारों के काम में। वे जब सादगी की ओर बढ़ते हैं, वे सचमुच उसकी ओर बढ़ रहे होते हैंः ब्रेसाँ सन्त आॅगस्टीन की परम्परा में और रोसेलीनी नोटेशनल आख्यानों के जैसे।
उदयन- आपके लिए चीज़ों के व्यवस्थित होने का विचार महत्वहीन क्यों है ?
कुमार- मेरे लिए वह कुछ अध्ािक ही मज़हबी है। मुझे बहुत-सी विज्ञान भी वैसी ही लगती है, मानो वह खुदा से डरी हुई हो। मानो वहाँ किसी मूल कारण में भरोसा रखा जा रहा हो। मैं मज़हबों के पहले के रूपाकारों के प्रति अध्ािक आकर्षित होता हूँ मसलन जिसे वे ‘पुकार’ कहते हैं, जिसे बाद में मज़हबों ने भी अन्तस्थ कर लिया। वहाँ कोशिश उस ‘पुकार’ तक पहुँचने की होती है, उस अवस्था तक पहुँचने की जिसे हमने स्त्रीत्व से जोड़ रखा है। लेकिन अगर आप यथार्थ को किसी सार तत्व में घटाने का ‘एसेन्शलाईज़’ करने का प्रयास करेंगे, यह सम्भव नहीं हो पाएगा। उस ढंग में यह कहने का चलन है, ‘यह चीज़ ऐसी है कि यह केवल इसी तरह मुमकिन है। यहीं से आदर्श पैदा होता है क्योंकि इस स्थिति में जब आप यह पूछते हैं कि मार्ग क्या है, वह कहाँ है, क्योंकि आपके चारों ओर अव्यवस्था बिखरी होती है, लेकिन हर बार जो उत्तर आपको मिलता है, वह शुद्ध विचार का होता है। हिस्ट्री तब झूठ हो जाती है। वह एक तरह का
उदयन- ...का स्वांग हो जाती है।
कुमार- हाँ, वह दरिद्र स्वांग बन जाती है और उस विचार की शुद्धता का भी दूषण होता है और इस तरह वह दोबारा एक किस्म तत्ववाद (इसेंशियलिज़्म) पर लौट आती है। मनुष्य विस्मय और जिज्ञासा चाहता है, न कि तत्ववाद जो कि एक जगह ठहरा हुआ विचार है। आप आईन्सटाइन को देखें, माक्र्स, फ्राॅयड, गाँध्ाी, यहाँ तक कि गणितज्ञ मेडेंलब्रोट को देखें। पिछली दो शताब्दियों ने हमें व्यवस्था के परे ब्रह्माण्ड को समझने की शिक्षा दी है।
उदयन- सर्जक का घर कैसे हो सकता है। मुझे ठीक याद नहीं पर इस आशय का कुछ गुरु नानक ने भी कहा था। हिन्दी के महान लेखक निराला की एक कहानी है, ‘अर्थ’। यह ऐसे आस्थावान व्यक्ति की कथा है, जिसकी आस्था पूरी तरह ध्वस्त हो जाती है, और वह एक ऐसी जगह पहुँचता है, जहाँ उसे भगवान राम के मिलने की प्रत्याशा है, लेकिन उसे वहाँ कोई नहीं मिलता। उसके मन में यह शंका आती है कि क्या भगवान राम हैं भी या नहीं। उसी समय एक तोता जो उसके सिर के ऊपर के पेड़ पर बैठा है, चीखता है, ‘है, है।’ फिर दूसरा प्रश्न उसके मन में आता है कि अगर वह है तो यह सब क्या है ? तोता फिर बोलता है, ‘चित्रकूट।’ ‘चित्रकूट’ शब्द के समास विग्रह को निराला ने अलग तरह से किया हैः (वि) चित्र इसका आशय यह है कि अलौकिक सत्ता या भगवान वह है जिसका कूट (कोड) विचित्र है। यह सुनकर वह आस्थावान व्यक्ति लेखक बन जाता है। आप शायद ऐसा कुछ कह रहे हैं।
कुमार- लगभग ऐसा ही कुछ।
उदयन- हम जिसे यथार्थ कहते हैं, वह किसी भी हाल में कोई बँध्ाी हुई चीज़ नहीं है। उसके कूट (कोड) निश्चित नहीं है। यथार्थ या वास्तविकता हमें उसे कई तरह से पढ़ने को प्रेरित करती है क्योंकि उसके कूट विचित्र है। इसीलिए उसमें वह बन्ध्ान नहीं जिसकी आप चर्चा कर रहे थे। हर बार हम एक अलग तरह के अलंकार पर पहुँचते है, अलग तरह के अलंकरण पर। जब आपने रोसेलीनी को पहली बार देखा आप फि़ल्म संस्थान में रहकर दो फि़ल्में बना चुके थे।
कुमार- दो नहीं, तीन। तीसरी मैंने मानसिक रूप से अविकसित बच्चों पर पेरिस जाने से पहले बनायी थी। वह बहुत छोटी फि़ल्म थी, जिसे मैंने अहमदाबाद में बनाया था और मैं उसकी निर्मिति में बहुत गहरे तक शामिल था। मैं उन दिनों वास्तविकता में काव्य ढूँढ़ने का प्रयास कर रहा था।
उदयन- आपका मनोविश्लेषण से क्या सम्बन्ध्ा है ?
कुमार- मेरे कुछ दोस्त थे, उन्हें मनोविश्लेषण में मुझसे अध्ािक दिलचस्पी थी। मैंने स्कूल में थोड़ा-बहुत फ्रायड पढ़ा था। साहित्य के चारों ओर की भाषा में मनोविश्लेषण इस तरह गूँथा हुआ रहता है कि आपको यह जानने की जिज्ञासा होती ही है कि आखिर वह है क्या। उसे जानने का प्रयास अपने घावों, अपने साथ हुई पीड़ादायक घटनाओं को समझने का प्रयास भी था।
उदयन- क्या आपने इसीलिए बियाॅन पर फि़ल्म बनाने का निश्चय किया था ?
कुमार- नहीं। तब तक मुझे उस विषय के प्रति सीध्ाा आकर्षण हो चुका था, मेरे क़रीबी दोस्त और मनोचिकित्सक इसमें डूब चुके थे। मैं तभी पेरिस से लौटा था, 1968 के पेरिस से। उन दिनों के पेरिस के कई विमर्शों में आप मनोविश्लेषण का कुछ न कुछ देख सकते थे। वे सन् 1968 के मई के दिन थे, उन दिनों लोगों की इतनी तरह से बातचीत चल रही थी कि उसे समझकर शब्दों में कह पाना मुश्किल है। यह बातचीत लगातार हो रही थी। यह मुझे इसलिए भी छू रही थी क्योंकि वे तर्कणा (रीज़न) की मेरे जैसे अजनबी को समझने में अक्षमता को साध्ाने की कोशिश कर रहे थे। सिर्फ़ मेरे जैसे अजनबी को ही नहीं बल्कि एक-दूसरे के सम्बन्ध्ा के सन्दर्भ में भी वे इस अक्षमता का परीक्षण कर रहे थे। तब तक वे वियतनाम जैसी किसी बहुत दूर की घटना से ही बेहद मानवीय ढंग से जुड़ पाते थे। लेकिन वे एक-दूसरे से मुश्किल से ही सम्बन्ध्ा बना पाते थे। मुझे यह बात बहुत तकलीफ़ देती थी। लोगों के चारों ओर मानो मोटी दीवार थी, क्योंकि वे अपने बिल्कुल क़रीब के परिवेश से जुड़ ही नहीं पाते थे। अपने क़रीब के लोगों से अगर आप जुड़ नहीं पाते, आपकी संवादध्ार्मिता गड़बड़ा जाती है। इसलिए वे वियतनाम के बारे में भी जो कुछ कह रहे थे वह भी ग़लत था। मैं इस बात से चकित होता था कि वे अपने देश की ओर सीध्ाा-सीध्ाा क्यों नहीं देख पाते थे। मुझे उन दिनों ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं मिला था, जो पेरिस के अपने घर के संकट का सामना कर रहा हो। लोग हमेशा ही पूँजीवाद के संकट और उसके परिणामों के बारे में बात करते थे, मानो वह संकट ही सब कुछ हो। पूँजीवाद हमेशा संकट की बात करता है। बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था में रहने वाले कम्यूनिस्ट भी वही करते हैं। पर वैसा है नहीं। वह दरअसल सचमुच के संकट को छिपाने का एक रास्ता है। मई 1968 में यह हुआ कि हर व्यक्ति हरेक व्यक्ति से बात कर रहा था और ऐसा होना अद्भुत था। जो लोग साठ के दशक के पेरिस में जानते हैं, उन्हें मालूम होगा कि शहर के बौद्धिकों के आपस में इतने मतभेद थे कि वे एक-दूसरे से बात तक नहीं करते थे, इन्हीं लोगों में ज्याँ जेने भी थे। वे इंकार कर देते थे, जानबूझकर, हालाँकि वे लोकतान्त्रिक जाने जाते थे। वे विचारध्ााराओं के कारण बात नहीं करते थे और विचारध्ााराओं की कमी नहीं थी। मसलन कोई कहता कि स्त्रियों की ओर देखना ग़लत है और कोई और कहता कि पुरुषों की ओर देखना ग़लत है या इसी तरह का कुछ। मैं यह सब समझ नहीं पा रहा था। एक-दूसरे से बात करने की जगह वे सिर्फ़ चिल्लाते थे। लेकिन 1968 के मई महीने में स्थिति बदल गयी, हरेक दूसरे बात कर रहा था, उसके बारे में जानना चाहता था। इसलिए उन दिनों मनोविश्लेषणात्मक विमर्श हवा में था। बहुत-से ट्रोटस्की-वादी भी सक्रिय थे। बल्कि तब बहुत-से ट्रोटस्कीवादी समूह थे। ट्रोटस्की ने ट्रोटस्कीवादियों से अलग मनोविश्लेषण को हमेशा स्वीकार किया था। और हाँ वहाँ तब लैवी स्ट्राॅस भी थे और इसलिए वह विमर्श पूरी तरह स्वीकृत हो गया था। पत्रकारिता पर इसकी छाया पड़ने लगी थी। फिर मैं भारत लौट आया और उदयन पटेल से मिला। वे रोशन (शहानी) और अकबर पदमसी के गहरे दोस्त थे। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं उनके एक मरीज़ जिसपर वे शोध्ा लिख रहे थे, पर फि़ल्म बनाना चाहूँगा। मैंने उनके साथ मिलकर छोटी-सी फि़ल्म बनायी। अकबर की नेहरू अध्येतावृत्ति के भाग के रूप में एक कार्यशाला भी होती थी। हम सब वहाँ मिलते थे। मणि (कौल) की ‘दुविध्ाा’ भी उसी कार्यशाला में तैयार हुई थी।
उदयन- और तब यह बियाॅन फि़ल्म शुरू हुई होगी।
कुमार- उदयन पटेल तब तक बियाॅन का बहुत-सारा लेखन पढ़ चुके थे उनके विचारों से भरे हुए थे और उनके बारे में लगातार बात करते थे। फिर वे बियाॅन से मिले। लगभग इसी समय उन्होंने डोनाॅल्ड मेल्टज़र को बम्बई आमन्त्रित किया। उन्होंने मिलकर यह सोचा कि एक फि़ल्म बनाना चाहिए, हालाँकि तब तक वे यह तय नहीं कर पाये थे कि वह कैसी फि़ल्म होगी। मैं उनसे बातचीत करके फि़ल्म का रूप विकसित करने को आज़ाद था जिसमें मैं कई दृष्टिकोण ला सकता था।
उदयन- क्या तब बियाॅन जीवित थे ?
कुमार- जब हमने उस प्रोजेक्ट को शुरू किया, वे जीवित थे। हमने उस बारे में सोचना शुरू कर दिया और फिर मैं लन्दन गया। उनकी मृत्यु के साथ एक अजीब-सा संयोग जुड़ा है। बियाॅन ने उदयन से भगवत्गीता को संस्कृत में रिकार्ड करने का आग्रह किया था। मैं उस समय श्री गोडबोले से संस्कृत सीख रहा था और उनसे हमने आग्रह किया कि वे स्टूडियो आकर गीता का पाठ रिकार्ड करा दें। हमने रिकार्डिंग करना शुरू ही किया था कि उदयन वहाँ आये और बोले कि उन्हें ख़बर मिली है कि बियाॅन नहीं रहे।
उदयन- आप वह फि़ल्म किसके लिए बना रहे थे ? मेरा आशय है कि आपकी फि़ल्म के निर्माता कौन थे ?
कुमार- इंग्लैण्ड में एक रोनाॅल्ड हेरिस ट्रस्ट था, वे मनोविश्लेषण की किताबें प्रकाशित करते थे। उन्होंने मुझसे बियाॅन के बारे में बात की और मुझसे पूछा कि मैंने उनका क्या पढ़ रखा है और मुझे उनके काम के किस आयाम में विशेष रुचि है। फिर उन्होंने मुझसे फि़ल्म बनाने का आग्रह किया। एक तरह से उन्होंने मुझसे कोई मोलभाव नहीं किया। उन्होंने सिर्फ़ मुझे फि़ल्म बनाने को कहा। वे ‘माया दर्पण’ देख चुके थे और उनके मन में बियाॅन के साथ-साथ मेरे काम के प्रति भी सम्मान था। उन्होंने मुझे लन्दन आने का आमन्त्रण दिया कि मैं वहाँ रहकर पटकथा पर काम कर सकूँ।
उदयन- आप वह फि़ल्म किस तरह बनाना चाहते थे ?
कुमार- वह पूरी फि़ल्म एक ‘तान’ होने वाली थी। बियाॅन का बचपन उसका आध्ाार था। बियाॅन ने कई जगह ‘मानस का पुरातत्व’ पदबन्ध्ा इस्तेमाल किया है। फि़ल्म में बहुत से दृश्य युद्ध के भी होनेवाले थे, जब बियाॅन बच्चे थे और उन्हें तमगा मिला था। हमें जिम कार्बेट पार्क में शूट करना था, उसके बाद इंग्लैण्ड में। सचमुच के युद्ध के दृश्य यहाँ शूट करना यहाँ मुमकिन नहीं था पर फिर भी हमने ऐसी कुछ जगहें ढूँढी थीं जहाँ हमें युद्ध के दृश्य फि़ल्माना थे। ये जगहें यूरोप, दिल्ली, माण्डू (मध्यप्रदेश) और फ्राँस में किसी स्थान का गिरिजाघर होना था।
उदयन- आप इस सबको बियाॅन की जि़न्दगी से किस तरह जोड़ने वाले थे ?
कुमार- बियाॅन ने एक पुस्तक त्रयी लिखी है, जो कुछ-कुछ उपन्यास-सी है और कुछ-कुछ संवाद। इनमें से एक संवाद दरअसल स्वर्ग में होता है। फि़ल्म का एक लम्बा दृश्य तैरते हुए बादलों और इसी तरह के परिवेश में फि़ल्माया जाना था। मैं एक संवाद ला कार्बूजिये के रोशाँ में बनाये गिरजाघर ‘नात्रे देम दू हूत’ में फि़ल्माना चाहता था।
उदयन- आप इस फि़ल्म में बियाॅन को किस तरह रचना चाहते थे, क्या आप यह उनकी मनोविश्लेषण की खोज के सहारे कर रहे थे या उसमें मनोविश्लेषण का स्थान हाशिये पर था या वह फि़ल्म बियाॅन की आँखों से देखे गये बियाॅन की तरह बनने वाली थी, मैं विचार के स्तर पर यह बात पूछ रहा हूँ, सिनेमाई स्तर पर नहीं।
कुमार- फि़ल्म का आध्ाार बियाॅन का बचपन और उनके व्यक्ति होने के सोपानों को देखने से बना था। वे अपने जन्म-पूर्व अनुभव के बारे में भी बात करते थे, जो निश्चय ही उन्होंने अपनी आया से सुने होंगे। भारत में यह बद्धमूल विश्वास है। वह हर उस माँ में मैंने अनुभव किया है, जिनमें मैं मिला हूँ। मुझे पता नहीं, उनकी माँ इस पर किस हद तक विश्वास करती थी पर उनकी आया तो निश्चय ही व्यक्ति के बनने में अन्य अनुभवों के अलावा प्रसवपूर्व अनुभवों को उतना ही महत्व देती रही होंगी।
उदयन- यह कुछ-कुछ उसी विश्वास की बात है, जो महाभारत में अभिमन्यु को गर्भ में हुआ था।
कुमार- बियाॅन का प्रसनपूर्व के अनुभवों पर गहरा विश्वास मेरे लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण बात थी। क्योंकि मैं वो था जो ऐसी असंख्य माँओ से मिल चुका था, जिनका इन अनुभवों पर अटल विश्वास था। मेरे लिए वह फि़ल्म समस्याग्रस्त व्यक्तित्व की परतें खोलना था। मुझे खुद अपनी सिनेमेटिक अवध्ाारणाओं को भी समझना था। यह जानना था कि ऐसे अनुभवों का सिनेमा से क्या सम्बन्ध्ा बन सकता है क्योंकि केवल मनोविश्लेषण की दृष्टि से फि़ल्म बनाना ग़लत होता। आपको ऐसी फि़ल्म में भी सिनेमा की भाषा को शामिल करना होता है।
उदयन- जो मनोविश्लेषण की भाषा से अलग है...
कुमार- उसका अपना आपा होता है और सौभाग्य से जिन लोगों के साथ मैं काम कर रहा था जैसे उदयन पटेल, डोनाॅल्ड मेल्ट्ज़र, मैत्ती हेरिस इस दृष्टि का सम्मान करते थे। मैत्ती की बेटी ने पटकथा लिखने में मेरा सहयोग किया था।
उदयन- वह फि़ल्म कितनी बन सकी ?
कुमार- केवल एक तिहाई।
उदयन- मैंने उस फि़ल्म के कुछ हिस्से देखे हैं, मुझे वह दृश्य याद है जिसमें बियाॅन ख़ुद अपने को पैदा होते देख रहे हैं। क्या ऐसा कुछ बियाॅन के लेखन में भी मिलता है।
कुमार- अगर मुझे ठीक याद है तो हमने उसे शेक्सपियर के ‘हेमलेट’ की तरह तैयार किया था। अब मुझे यह याद नहीं कि वह ठीक-ठीक था क्या ? वह अब तक पूरी तरह दिमाग में घुल गया है। हमने उस छवि के लिए कुछ लिखा ज़रूर होगा।
उदयन- क्या वह लम्बी फि़ल्म होनेवाली थी ?
कुमार- वह सम्पादन के बाद कुछ लम्बी फि़ल्म होती। वह क़रीब दो घण्टे और पन्द्रह मिनिट के क़रीब हो सकती थी।
उदयन- क्या आप उसे एक ऐसी फि़ल्म का रूप दे रहे थे कि वह केवल मनोचिकित्सकों के लिए ही होती ?
कुमार- नहीं। क्या एक दर्शक की तरह तुम्हे उसके रशेज़ देखते समय ऐसा कुछ महसूस हुआ था ?
उदयन- जब मैंने रशेज़ देखने शुरू किये, मुझे उसमें एक ऐसी प्रांजलता अनुभव हुई, जिसका अनुभवों को ढाँचों में डालकर देखने के मनोविश्लेषणात्मक विध्ाि से कोई बहुत ताल्लुक नहीं था। मुझे यह भी महसूस हुआ था कि सिनेमाई प्रांजलता और मनोविश्लेषण के बीच किसी तरह का संवाद चल रहा हो पर चूँकि मैं मनोविश्लेषणात्मक विमर्श से बहुत वाकिफ़ नहीं था इसलिए अगर वह फि़ल्म में रहा भी होगा, उसने मुझे बहुत छुआ नहीं।
अब हम ‘बैटलशिप पोटेम्फिन’ और ‘द गोलेम’ जैसी कल्पनाशील फि़ल्मों के विषय में बात करते हैं। मैंने ये दोनों ही फि़ल्में आपके साथ देखी हैं। आपको ‘द गोलेम’ का कौन-सा आयाम अध्ािक आकर्षित करता है ?
कुमार- ‘गोलेम’ का विषाद। मुझे वह बहुत अध्ािक छूता है विशेषकर उसका मनुष्य न होना, उसका स्वीकृत न हो पाना और निर्देशक का इस सबको हास्य के साथ रच पाना। जैसे वे दृश्य जिनमें एक छोटी लड़की अन्ततः उस स्टार को उससे हटा लेती है, और इस तरह उसे उसकी पीड़ा से आज़ाद कर देती है।
उदयन- अगर फि़ल्म बनाने की दृष्टि से देखा जाय तो आप कार्ल थ्योडोर ड्रायर की ‘द पैशन आॅफ़ जोन आफ़ आर्क’ को आप कैसे देखते हैं ?
कुमार- ड्रायर की ‘जोन आॅफ़ आर्क’ के कला निदेशक अध्ािकांशतः एक्सप्रेशनिस्ट परम्परा में प्रशिक्षित हुए थे। इसलिए उस फि़ल्म का अभिनय बहुत कुछ एक्सप्रेशनिस्ट है। मैं उस तरह के अभिनय का समर्थक नहीं हूँ। ज़ाहिर है उसमें आंगिक अभिनय कुछ ज़्यादा ही होता है। लेकिन उस फि़ल्म की मुख्य पात्र मारिया फ़ाल्कोनेत्ती ‘ग़ैर अभिनेत्री’ थीं इसलिए वे अन्यों के जैसा ज़्यादा आंगिक अभिनय नहीं करती थीं। यह सब मिलकर उस फि़ल्म का संयोजन ठीक हो गया था। कुल मिलाकर एक्सप्रेशनिस्टों ने तकनीकि स्तर पर यह किया थाः उन्होंने उन रूपाकारों के उपयोग की सम्भावना को खोजा था जो अनुकरणात्मक होकर फि़ल्म का हिस्सा हो सकते थे और जो संकेतात्मक होते थे। जिससे वे किसी भूदृश्य का ही रूपान्तरण कर सकते थे। वे अपनी इस खोज में इतनी दूर तक निकल गये कि वे अन्ततः नीचे गिर पड़े। यह नहीं कि उस तरह की चीज़ करना चाहता होऊँ, कम से कम मैं उसमें भरोसा नहीं रखता। दरअसल अवचेतन की उनकी समझ ही ग़लत है। एक्सप्रेशनिस्टों के लिए अवचेतन में केवल आतंक होता है। मैं नहीं सोचता कि अवचेतन केवल आतंक से बना होता है, हालाँकि उसमें ऐसे कुछ तत्व होते हैं। इसलिए उनकी उपलब्ध्ाि गति को लेकर हैं, जहाँ वे रूपाकारों का लचीले ढंग का उपयोग करते हैं। उन लोगों ने रूपाकारों के लचीलेपन को सम्प्रेषित किया है।
उदयन- इस सन्दर्भ में आप ‘बेटलशिप पोटेम्किन’ को कहाँ रखेंगे ? इस फि़ल्म ने आपके फि़ल्म बनाने के ढंग में किस तरह योगदान किया है या दूसरे शब्दों में इसका आपके उपज के ढंग में क्या जगह बनती है ?
कुमार- हम भी ‘तीसरे अर्थ’ की तलाश करते हैं (यह प्रत्यय रोलाँ बाख़्त ने आइजे़न्स्टाइन पर लिखे अपने निबन्ध्ा में लिखा है) जैसा सर्गेयी आइजे़न्स्टाइन करते थे।
उदयन- लेकिन वे उस तरह ‘बढ़त’ नहीं करते थे, जैसी आप करते हैं।
कुमार- उस तरह नहीं करते थे। वे वह पश्चिमी संगीत की तरह करते थे, जहाँ तीसरे अर्थ के सृजन का सचेत प्रयत्न होता है। तीसरे अर्थ के बारे में जापानियों ने बहुत विचार किया है। संस्कृत में तीसरे अर्थ का आशय ‘व्यंजना’ है। मुझे यह बात बहुत आकर्षित करती हैः यह तथ्य कि आइजे़न्स्टाइन के लिए कलाकृति का प्रमुख लक्षण उसका संकेतन करना है कि सिनेमा को सिर्फ़ छवियों के सन्दर्भ में नहीं बनाया जा सकता, उसके लिए ‘तीसरे अर्थ’ या तिर्यक अर्थ (रोलाँ बाख़्त) का होना चाहिए। आइजे़न्स्टाइन अनुगूँज (ओवरटोन्स) की भी बात करते हैं। मुझे इसमें भी गहरी रुचि है। खैर, यह भी है कि उनकी फि़ल्मों का सम्बन्ध्ा स्वतन्त्रता से है। मेरे लिए स्वतन्त्रता की अवध्ाारणा अलग है। मैं जिस तरह की स्वतन्त्रता की खोज खुद के लिए और अपने लोगों के लिए करता हूँ, वह उससे अलग है जो वे पोटाम्किन में कर रहे थे। लेकिन उस फि़ल्म में स्वतन्त्रता के प्रति गहरा आग्रह है। पोटाम्किन के बाद दुनिया में ऐसी एक भी फि़ल्म नहीं बनी जिसमें बड़े समूह को बिना पोटाम्किन की याद के फि़ल्माया जा सके। आपको पोटाम्किन की याद करना ही पड़ेगा। आप पोटाम्किन की नक़ल भले न करें पर आप उसे भूल नहीं सकते। अगर आप उसे भूलते हैं तो उसकी नक़ल कर जायेंगे। कैसी अज़ीब बात है।
उदयन- क्या कोई भी बड़े समूह का दृश्य फि़ल्माते वक्त?
कुमार- हाँ। तुम देख सकते हो कि कैसे हरेक ने पोटाम्किन के इस व्याकरण से कुछ न कुछ लिया है। इस फि़ल्म ने मानवीय ज्ञान में बहुत वृद्धि की है खासकर इस अर्थ में कि लोग उसे पीछे छोड़ नहीं पाते।
उदयन- आप लुई बुलुएल और उनकी फि़ल्म कला को किस तरह देखते हें ? आपने पूना में मुझे बुनुएल की जिन फि़ल्मों को देखने को कहा था, उनमें ‘विरिदियाना’ और ‘साईमन आॅफ़ द डेज़र्ट’ खास थीं। इसी से मुझे यह उत्सुकता हुई कि बुनुएल के बारे में आपसे सवाल करूँ जिससे आप उन पर एक बार फिर कुछ नया विस्तार करें।
कुमार- बुनुएल स्पहानी थे और फ्रेन्को के शासन ने उन्हें स्पेन आने दिया था और वहाँ रहकर फि़ल्म बनाने दिया था। शुरू में वे पेरिस में काम करते रहे। फिर वे अमरीका चले गये, वहाँ से मैक्सिको। उन्नीस सौ बीस के दशक के अन्त से ‘विरिदियाना’ (1961) बनाने तक वे लगातार यहाँ से वहाँ जाते रहे थे। अन्ततः उन्हें अपने घर, स्पेन में फि़ल्म बनाने आमन्त्रित किया गया। लेकिन फि़ल्म के बन जाने के बाद वहाँ की तानाशाही ने उसकी कई प्रतियाँ नष्ट कर डालीं। सौभाग्य से उस फि़ल्म के नेगेटिव लन्दन में थे। इस फि़ल्म के बचने की कहानी हैरतअंगेज़ है। मैं यह इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि वे (वहाँ के वामपन्थी) विरोध्ा करने में विश्वास रखते थे। उन्होंने बुनुएल को उनकी पहली फि़ल्म विरोध्ास्वरूप जलाने को कहा था कि वह जलाना खुद में एक कला रूप बन जाए। हमें यह याद रखना चाहिए कि वे अतियथार्थवाद (सुर्रलियज़्म) के शुरुआती दिन थे। बुनुएल अपने दोस्तों की सलाह मान गये कि वे फि़ल्म बनाकर उसे जला देंगे। लेकिन जब वे इसे जलाने पहुँचे, वहाँ कोई नहीं आया। बुनुएल अजीब चीजे़ं किया करते थे।
उदयन- ‘पेटलशिप पोटेम्फिन’ ने आपकी फि़ल्म कला में क्या भूमिका निभायी है ?
कुमार- ‘तरंग’ में मसलन मैं हड़ताल के दृश्य शूट कर रहा था, ज़ाहिर है यह ऐसा बिन्दु था जहाँ मैं आइजे़न्स्टाइन को उद्धृत कर सकता था। बहुत-से फि़ल्मकार इस स्थिति में अनायास ही वही करते। तथाकथित बुर्जुआ फि़ल्मकार, बेहद कमर्शियल या उसके विपरीत फि़ल्मकार भी वही करते, इसीलिए उनके किये को याद रखना ज़रूरी है, ताकि आप उसे दोहराने से बच जाएँ। मैं उन दृश्यों को शूट करते समय लगातार एक प्रार्थना की तरह याद करता रहा था, हम यह कहने से बच नहीं सकते कि आइजे़न्स्टाइन ने इसे यूँ किया था और उन्हें ही वैसा करने दिया जाए। इसीलिए मुझे तरंग के उन दृश्यों को शूट करके बहुत खुशी हुई थी। वह किसी भी सूरत में आइजे़न्स्टाइन की नक़ल नहीं थी।
उदयन- ‘तरंग’ के इन दृश्यों को अपनी तरह से शूट करते समय आप यह याद दिलाते चल रहे थे कि आप क्या करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं ?
कुमार- ‘तरंग’ में इस तरह दृश्यों को काटने का (सम्पादित करने का) कोई प्रयास नहीं था कि ‘मोंताज-प्रभाव’ आ सके। लेकिन इस तरह न करने के भी खतरे थे। आइजे़न्स्टाइन का अन्तिम रूपकात्मक सरोकार दिलचस्प था मसलन उनका संकेतन के प्रश्न के प्रति गहरा लगाव, जहाँ वे सिनेमा की अनुगूँजों, अमूर्तनों से यह बहुत अपेक्षा रखते थे कि वे दृश्यों के ठोस होने से परे जा सकें। कोई फि़ल्मकार ऐसा कैसे कर सकता है ? वह बिल्कुल कर सकता है, अपने भौतिक परिवेश में अपने ढंग से काम करके। ऐसा कहा जाता है कि इतने बड़े स्तर पर मोंताज का इस्तेमाल इसलिए हुआ क्योंकि उन दिनों सोवियत संघ इतना ग़रीब था कि फि़ल्म की छोटी-छोटी स्ट्रिप्स ही मिल पाती थीं। मोंताज उन भौतिक परिस्थितियों की ज़रूरत के कारण अस्तित्व में आया। मुझे नहीं पता कि यह किस्सा सही है या नहीं पर यह है दिलचस्प कि किस तरह आर्थिक विपन्नता में भी सृजन सम्भव हो पाता है।
उदयन- मुझे लगा कि ‘पोटेम्किन’ बेहद ढाँचाबद्ध (स्ट्रक्चर्ड) फि़ल्म है पर जब हम वहाँ से आपकी फि़ल्मों पर आते हैं वह ढाँचा (स्ट्रक्चर)...
कुमार- खुल जाता है। मैं उसे और ज़्यादा खोलना चाहता था।
उदयन- कुछ दिन पहले आप ‘खेल के नियम’ की बात कर रहे थे, उनसे मसलन कैमरे के चलाने के ढंग में क्या मदद मिलती है ?
कुमार- इस तरह हम सूक्ष्म संशोध्ाित (मोड्यूलेट) कर सकते हैं। मैंने इन वर्षों में दल्यूज़ को नहीं पढ़ा लेकिन सिनेमा के फ्राँसीसी सिद्धान्तकार के रूप अपने दोस्तों मुँह से उनके उद्ध्ारण सुने हैं। वे, ह्युस्टन और कुछ अन्य फि़ल्मकार मेरे दृष्टि में अच्छे और बुरे दोनों अर्थों में लिबरल हैं। पँूजीवादी विचारध्ाारा ने उन्हें इस तरह प्रस्तुत किया है मानो वे सूक्ष्म संशोध्ान (मोड्यूलेशन) को रहस्यपूर्ण बना रहे हों। लेकिन इनसे कहीं अध्ािक पश्चिम में इस विचार को बर्गसाँ ने प्रचारित किया था, हालाँकि मेरे ख्याल से उन्होंने यह भारत से लिया था। उन्होंने कभी कुछ भारतीय ग्रन्थ पढ़े होंगे। सूक्ष्म संशोध्ान (मोड्यूलेशन) का विचार हमारी संस्कृति में शुरू से है। तुम देखो, उदाहरण के लिए महाभारत में किसी नायिका का कैसे वर्णन किया जाता है, कद्रू का, विनिता या गंगा, कुन्ती या द्रौपदी का। उन सब का वर्णन लगभग एक-सा हो सकता हैः कमल-से नयन, जंघाएँ केले के तनों-सी और यही सब। लेकिन हर वर्णन में सूक्ष्म संशोध्ान किया जाता है और इस सूक्ष्म परिवर्तन से ही विस्फोटक बदलाव आ जाता है। यही कुछ हमारे संगीत में भी है। वह अनन्त स्केल पर चलता है क्योंकि हमारा स्केल बँध्ाा नहीं है बल्कि वह अविरल स्केल है। और तब भी हमारे पास स्वर को बाँध्ाने की व्यवस्था है। आप किसी स्वर तक कहीं से भी जा सकते हैं और हर बार वह सूक्ष्म स्वर संशोध्ान से सध्ा जाता है। मुझे हमेशा से सूक्ष्म-संशोध्ान के इसी रूप में रुचि रही है। लेकिन सूक्ष्म-संशोध्ान को बरतने का हमारा ढंग, लिबरल पद्धति से कहीं आगे का है। लेकिन यहाँ परम्परा से उपज करने का रास्ता मौजूद है जो एक सच्ची विरासत है, जहाँ आप सिर्फ़ रूपाकारों के सहारे ही उपज नहीं करते, बल्कि जीवन में भी सार से परे जाकर उपज करते हैं। यह हमारे पास सिर्फ़ दर्शन से ही नहीं, यहाँ के सचमुच के लोकव्यवहार से आया है। इसीलिए मैं पश्चिम से आये लिबरल सिद्धान्त के सूक्ष्म-संशोध्ान को स्वीकार नहीं कर पाता क्योंकि मैं सोचता हूँ कि सिद्धान्त बनने से पहले यह उनके व्यवहार से उत्पन्न होना चाहिए, शायद इसीलिए ये सिद्धान्त लिबरल विचारध्ााराओं का बोझ लिये हैं।
उदयन- आप यह कह रहे हैं कि उनके ये सिद्धान्त उनके ढंग के जीवन से जुड़े हुए नहीं है।
कुमार- बहुत जुड़े नहीं है। वे अभी भी संशोध्ाित-स्केल (टेम्पर्ड स्केल) पर चल रहे हैं। लेकिन मुझे बर्गसाँ का विचार पसन्द है क्योंकि उन्होंने उसकी पीड़ा सही है, उससे सम्पर्क में आने की पीड़ा। हमारी पद्धति में, जहाँ व्यक्तिवाद नहीं है बल्कि आत्म की व्यक्तिपरकता परम्परा का व्यक्ति-विशेष में विशेष प्रकटन होता है, जहाँ आप एक की कमल-मन्त्र बुद्ध के चारों ओर दस हज़ार बार दोहराते हैं। हर कमल-मन्त्र में उसकी अपनी ग़लती शामिल होती है, उनका अपना सूक्ष्म-संशोध्ान (मोड्यूलेशन)। उसे आप भले न जानें पर आप उसका व्यवहार करते हैं। जापानी यह समझते हैं, वैसे सूक्ष्म-संशोध्ान को वे हमसे बेहतर समझते हैं। याशूयिरो ओज़ू का उदाहरण लो। वह इण्डिविजूएशन है, मगर वह व्यक्तिवाद नहीं है क्योंकि वे सोचते हैं कि सब कुछ बुद्ध है और आत्मा कमल है हरेक के लिए एक अलग कमल।