ऋत्विक घटक और सत्यजीत राय के बाद कुमार शहानी और मणि कौल सम्भवतः देश के सबसे अध्ािक महत्वपूर्ण फि़ल्मकार रहे हैं। इनकी फि़ल्मों ने न सिर्फ़ हमारे फि़ल्म के देखने में बुनियादी बदलाव लाया है बल्कि इन फि़ल्मों की रौशनी में हम वास्तविकता और स्वयं अपने आप को भी कुछ और तरह से ही अनुभव करने के रास्ते खोज सके हैं या खोज सकते हैं। साठ के दशक में पुणे के भारतीय फि़ल्म और टेलीविज़न संस्थान से अध्ययन के बाद कुमार शहानी अध्येतावृत्ति पर पेरिस गये और उन्होंने वहाँ अद्वितीय फि़ल्मकार और फि़ल्म-शास्त्रज्ञ रोबेर बे्रसाँ के साथ प्रमुख सहनिर्देशक के रूप में उनकी दोस्तोयवस्की की प्रसिद्ध कहानी ‘मीक वन’ पर आध्ाारित फि़ल्म ‘द जेंटल क्रिचर’ पर काम किया। वहाँ से लौटकर उन्होंने अपनी पहली फि़ल्म ‘माया दर्पण’ बनायी जिसे देखते ही यह बात फि़ल्म प्रेमियों और आलोचकों के मन में सहज ही घर कर गयी कि वे कुछ ऐसा देख रहे हैं जो उन्होंने अब तक नहीं देखा था। वे एक ऐसे फि़ल्मकार की रचना के सामने हैं जो जीवन के छोटे से छोटे अंश के प्रति संवेदनशील हैं और जिसकी फि़ल्म का कैमरा निरन्तर इस महाद्वीप की प्रदर्शनकारी और अन्य कलाओं को जागृत करता चलता है और साथ ही जिसका वैश्विक कला सम्पदा के साथ आत्मिक संवाद है। यह दुखद है कि ऐसे विलक्षण फि़ल्मकार को हमारे देश में केवल कुछ ही फि़ल्में बनाने का अवसर मिला हालाँकि कुमार ने जो भी फि़ल्म बनायी है वह अपनी तरह की ‘क्लासिक’ है। उनकी फि़ल्में दुनियाभर के प्रयोगशील और दृष्टि सम्पन्न फि़ल्मकारों के लिए निरन्तर प्रेरणा का स्रोत रही हैं। यह संयोग नहीं कि कुमार शहानी को विश्व के श्रेष्ठ सिनेमा शिक्षकों में गिना जाता है। कुमार अपनी हर फि़ल्म में फि़ल्म बनाने के नये मार्गों की खोज करते हैं और वे निरन्तर इस खोज के लिए विशेषकर भारतीय प्रदर्शनकारी कलाओं और संगीत आदि की परम्परा को गहरे से गहरे तक समझने और टटोलने का मानो अनवरत प्रयास करते रहते हैं। उनकी फि़ल्में भारतीय और वैश्विक कला परम्परा से संवाद करती हुई आकार ग्रहण करती हैं।
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