सार्वजनिक व्यय (पब्लिक एक्सपेन्डीचर) से अभिप्राय उन सब खर्चों से है जिन्हें किसी देश की केन्द्रीय, राज्य तथा स्थानीय सरकारें अपने प्रशासन, सामाजिक कल्याण, आर्थिक विकास तथा अन्य देशों की सहायता के लिए करती है। Show सार्वजनिक व्यय सम्बन्धी सिद्धान्त[संपादित करें]अधिकतम सामाजिक लाभ का सिद्धान्त[संपादित करें]आधुनिक राज्य कल्याणकारी राज्य है जिसका मुख्य उद्देश्य लोगों का अधिकतम कल्याण करना है। सरकार की राजकोषीय व बजटीय गतिविधियां संपूर्ण अर्थव्यवस्था को बहुत प्रभावित करती है। इसलिए सार्वजनिक वित्त लगाते समय सार्वजनिक वित्त के कार्यों के लिए कुछ ऐसे कारक स्थापित किए जाए जिससे अधिकतम सामाजिक कल्याण प्राप्त किया जा सके। इसी कारण इस सिद्धान्त को अधिकतम सामाजिक लाभ का सिद्धान्त कहा जाता है। प्रो. शशांक ने इसे 'अधिकतम सामाजिक लाभ का सिद्धान्त' नाम दिया है। इस सिद्धान्त का प्रतिपादन मुख्य रूप में प्रो. शशांक तथा प्रो. पीगू द्वारा किया गया। इसलिए इसे शशांक अथवा पीगू का सिद्धान्त भी कहा जाता है। उनके अनुसार प्रत्येक दिशा में सार्वजनिक व्ययको इस प्रकार किया जाना चाहिए कि समाज को किसी भी दिशा में होने वाली छोटी सी वृद्धि से प्राप्त होने वाला लाभ, किसी भी कराधान में होने वाली वृद्धि या किसी भी सार्वजनिक आय के अन्य स्रोत से प्राप्त होने वाली हानि के बराबर हो। अंतिम व आदर्श बिंदु वह होगा जहां पर राज्य द्वारा खर्च पैसे की प्रत्येक इकाई से प्राप्त होने वाला लाभ वसूल किये गए राजस्व की प्रत्येक इकाई में होने वाले त्याग के बराबर होगा। इस बिंदु पर समुदाय के कर का सामाजिक त्याग तथा सार्वजनिक व्यय से प्राप्त होने वाला सामाजिक लाभ एक दूसरे को परस्पर काटते हैं। अधिकतम सामाजिक लाभ का सिद्धान्त इस तथ्य पर आधारित है कि न तो प्रत्येक कर ही एक बुराई है और न ही प्रत्येक व्यय एक अच्छाई है। कर तथा सार्वजनिक व्यय के प्रभावों के बीच सन्तुलन की आवश्यकता है ताकि अधिकतम सामाजिक लाभ प्राप्त किया जा सके। डाल्टन के अनुसार अधिकतम सामाजिक लाभ का सिद्धान्त यह बताता है कि, "सार्वजनिक वित्त का सबसे अच्छी प्रणाली वह है जिसके द्वारा राज्य अपने कार्य द्वारा अधिकतम सामाजिक लाभ प्राप्त करता है।" अधिकतम सामाजिक सिद्धान्त की आलोचना[संपादित करें]अधिकतम सामाजिक लाभ सिद्धान्त निम्नलिखित मान्यताओं पर आधारित हैः 1. कर सरकार की आय का मुख्य स्रोत हैं। 2. घटते सीमान्त सामाजिक लाभ का नियम सार्वजनिक व्यय पर लागू होता है। 3. करों पर बढ़ती सीमान्त सामाजिक अनुपयोगिता लागू होती है। अधिकतम सामाजिक लाभ की शर्तें[संपादित करें]अधिकतम सामाजिक लाभ की मुख्य शर्तें निम्नलिखित हैः 1. सार्वजनिक व्यय पर खर्च किए गए रुपये से सामाजिक लाभ (डैठ) उस त्याग के बराबर होना चाहिए जो कर के रुप में एकत्रित अन्तिम रुपये के त्यागने से होता है। इसका अर्थ है कि अधिकतम लाभ तब प्राप्त होगा जब सीमान्त सामाजिक लाभ और सीमान्त सामाजिक त्याग बराबर हो जाएं अर्थात् डैठ त्र डै 2. सार्वजनिक व्यय विभिन्न स्कीमों में इस प्रकार से वितरित किया जाना चाहिए कि इन विभिन्न स्कीमों पर खर्च किए गए अन्तिम रुपये से प्राप्त लाभ समान हो। 3. विभिन्न दिशाओं में कर इस विधि से लगाए जाने चाहिए कि प्रत्येक दिशा से प्राप्त अन्तिम रुपये का त्याग अथवा अनुपयोगिता बराबर हो। सार्वजनिक व्यय से क्या तात्पर्य है?सार्वजनिक प्रावधान तथा सार्वजनिक उत्पादन में अन्तर होता है । वस्तुओं की सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा अभिप्राय है कि इनका वित्तपोषण बजट के द्वारा होता है तथा बिना कोई प्रत्यक्ष भुगतान किए इनका उपयोग किया जा सकता है। सार्वजनिक वस्तुओं का उत्पादन निजी क्षेत्र के द्वारा या सरकार के द्वारा किया जा सकता है।
सार्वजनिक व्यय में स्वीकृति के सिद्धांत का क्या अर्थ है?मितव्ययता के सिद्धांत का एक यह भी अर्थ होता है कि धन को सरकार इस प्रकार व्यय करें कि समाज की उत्पादन कुशलता व क्षमता में अधिकतम वृद्धि हो। इसके लिए यह आवश्यक है कि सार्वजनिक व्यय का लोगों की कार्य, बचत व विनियोग करने की योग्यता तथा इच्छा पर उचित प्रभाव पड़े और आर्थिक साधनों का दुरुपयोग न हो।
सार्वजनिक व्यय कितने प्रकार के होते हैं?सार्वजनिक व्यय (पब्लिक एक्सपेन्डीचर) से अभिप्राय उन सब खर्चों से है जिन्हें किसी देश की केन्द्रीय, राज्य तथा स्थानीय सरकारें अपने प्रशासन, सामाजिक कल्याण, आर्थिक विकास तथा अन्य देशों की सहायता के लिए करती है।
सार्वजनिक व्यय के मुख्य सिद्धांत क्या है?इस सिद्धान्त की मान्यता यह है कि (i) उत्पादन में वृद्धि होनी चाहिए। (ii) उत्पादित वस्तुओं का वितरण उचित ढंग से होना चाहिये, (iii) आर्थिक विषमता और बेरोजगारी दूर होनी चाहिये, (iv) समाज को अधिकतम लाभ व सुविधा प्राप्त होनी चाहिये, (v) आन्तरिक शान्ति व व्यवस्था होनी।
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