पर्यावरण शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है परि+आवरण इसमें परि का अर्थ होता है चारों तरफ से एवं आवरण का अर्थ है 'ढके हुए। अंग्रेजी में पर्यावरण को Environment कहते हैं इस शब्द की उत्पकि 'Envirnerl' से हुई और इसका अर्थ है-Neighbonrhood अर्थात आस-पड़ोस। पर्यावरण का शाब्दिक अर्थ है हमारे आस-पास जो कुछ भी उपस्थित है जैसे जल-थल, वायु तथा समस्त प्राकृतिक दशाएँ, पर्वत, मैदान व अन्य जीवजन्तु, घर, मोहल्ला, गाँव, शहर, विद्यालय महाविद्यालय, पुस्तकालय आदि जो हमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं। paryavaran kya hai Show
"डगलस व रोमन हॉलेण्ड के अनुसार “पर्यावरण उन सभी बाहरी शक्तियों व प्रभावों का वर्णन करता है जो प्राणी जगत के जीवन स्वभाव व्यवहार विकास एवं परिपक्वता को प्रभावित करता है।" पर्यावरण के अवयवसौरमंडल का पृथ्वी ही एक ऐसा ग्रह है जिस पर कि मानव जीवन वनस्पति जीवन और पशु जीवन विकसित हो सका। पृथ्वी पर मानव सभ्यता और संस्कृति की प्रगति हुई। पृथ्वी को भूमण्डल भी कहते है। इसके चार मण्डल निम्नलिखित है-
स्थल मण्डल (Lithosphere) पृथ्वी के सबसे ऊपर की ओर ठोस परत पाई जाती है यह अनेक प्रकार की चट्टानों मिट्टी तथा ठोस पदार्थो से मिलकर बनी होती है। इसे ही स्थल मंडल कहते है। स्थलमंडल में भूमि भाग व समुद्री तल दोनों की आते हैं। स्थल मंडल सम्पूर्ण पृथ्वी का केवल 3/10 भाग है शेष 7/10 भाग समुद्र ने ले लिया है। जल मण्डल (Hydrosphere) पृथ्वी के स्थल मण्डल के नीचे के भागों में स्थित जल से भरे हुए भाग को जल मण्डल कहते हैं जैसे झील, सागर व महासागर आदि। 97.3% महासागरों और सागरों में है। शेष 2.7% हिमनदो और बर्फ के पहाड़ों, मीठे जल की झीलों नदियों और भूमिगत जल के रूप में पाया जाता है। वायुमण्डल (Atmosphere) भूमण्डल का तीसरा मण्डल वायुमण्डल है। स्थल मण्डल व जल मण्डल के चारों और गैस जैसे पदार्थो का एक आवरण है। इसमें नाईट्रोजन, ऑक्सीजन, कार्बनडाइआक्साइड व अन्य गैसें, मिट्टी के कण, पानी की भाप एवं अन्य अनेक पदार्थ, मिले हुए हैं। इन सभी पदार्थो के मिश्रण से बने आवरण को वायुमण्डल कहते है। वायुमण्डल पृथ्वी की रक्षा करने वाला रोधी आवरण है। यह सूर्य के गहन प्रकाश व ताप को नरम करता है। इसकी ओजोन (O3) परत सूर्य से आने वाली अत्याधिक हानिकारक पराबैंगनी किरणों को सोख लेती है। इस प्रकार यह जीवों की विनाश होने से रक्षा करती है। जैव मण्डल (Biosphere) जैव मण्डल का विशिष्ट लक्षण यह है कि वह जीवन को आधार प्रदान करती है। यह एक विकासात्मक प्रणाली है। इसमें अनेक प्रकार के जैविक व अजैविक घटकों का संतुलन बहुत पहले से क्रियाशील रहा है। जीवन की इस निरन्तरता के मूल में अन्योन्याश्रित सम्बन्धों का एक सुघटित तंत्र काम करता है। वायु जल मनुष्य, जीव जन्तु, वनस्पति, लवक मिट्टी एवं जीवाणु ये सभी जीवन चरण प्रणाली में अदृश्य रूप से एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और यह व्यवस्था पर्यावरण कहलाती है। सौर ऊर्जा सूर्य से प्राप्त होती है। ये जैवमण्डल को सजीव बनाए रखती है।। जैव मण्डल को मिलने वाली कुल ऊर्जा का 99.98% भाग इसी से प्राप्त होता है। पर्यावरण के प्रकारविभिन्न पर्यावरणविद ने पर्यावरण के विभिन्न-विभिन्न प्रकार दिए। वैसे मुख्य रूप से पर्यावरण तीन रूपों में पाया जाता है:-
भौतिक पर्यावरण या प्राकृतिक पर्यावरण इसके अंतर्गत वायु, जल व खाद्य पदार्थ भूमि, ध्वनि, उष्मा प्रकाश, नदी, पर्वत, खनिज पदार्थ, विकिरण आदि पदार्थ शामिल हैं। मनुष्य इनसे लगातार सम्पर्क में रहता है इसलिए ये मनुष्य के स्वास्थ्य पर सीधा प्रभाव डालते हैं। जैविक पर्यावरण जैविक पर्यावरण बहुत बड़ा अवयव है जो कि मनुष्य के इर्द-गिर्द रहता है। यहाँ तक कि एक मनुष्य के लिए दूसरा मनुष्य भी पर्यावरण का एक भाग है। जीवजन्तु व वनस्पति इस घटक के प्रमुख सहयोगी है। जैविक पर्यावरण को दो भागों में बाँटा गया है।
जानवरों का वातावरण मनो-सामाजिक पर्यावरणः- मनो-सामाजिक मनुष्य के सामाजिक संबंधों से प्रगट होता है। इसके अंतर्गत सामाजिक आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्रों में मनुष्य के व्यक्तिगत के विकास का अध्ययन करते हैं। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है उसे परिवार में माता-पिता, भाई-बहन, पत्नि तथा समाज में पड़ौसियों के साथ संबंध बना कर रहना पड़ता है। उसे समुदाय प्रदेश एवं राष्ट्र से भी सम्बन्ध बना कर रहना पड़ता है। मनुष्य सामाजिक व सांस्कृतिक पर्यावरण का उत्पाद है जिसके द्वारा मनुष्य का आकार तैयार होता है। रहन-सहन, खान-पान, पहनावा-औढ़ावा, बोल-चाल या भाषा शैली व सामाजिक मान्यताएँ मानव व्यक्तिगत का ढाँचा बनाती है। पर्यावरण के हानिकारक तत्वपर्यावरण को निम्नलिखित तत्व हानि पहुँचाते है:- हानिकारक गैसें जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ती जा रही है वैसे-वैसे मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वन काटकर औद्योगिक धंधों का विस्तार करता जा रहा है। कल-कारखानों से जहरीली गैंसों का उत्सर्जन होता है जिससे हमारे सम्पूर्ण विश्व का पर्यावरण प्रदूषित होता जा रहा है। प्रदूषण से विभिन्न प्रकार की बीमारियाँ फैलती जा रही हैं। नाक, साँस लेने में परेशानी, पीलिया होना, सिरदर्द, दृष्टिदोष, क्षयरोग व कैंसर आदि रोग जहरीली गैसों के कारण होते है। नियंत्रण मनुष्य के हानिकारक गैसों से बचने के निम्न लिखित उपाय है- परम्परागत ईधन स्त्रोतों को छोड़ कर नवीन ईधन प्रणाली एल.पी.जी. गैस प्रणाली को अपनाना चाहिए। उद्योग एवं कारखानों के क्षेत्र में हरे वृक्ष एवं विभिन्न प्रकार के पौधे लगाकर प्रदूषण को कम किया जा सकता है। जल प्रदूषण जल प्रदूषण का प्रभाव विश्व के समस्त देशों को प्रभावित करता है। समुद्री प्रदूषण को खनिज तेलों को ले जाने वाले जहाजों के दुर्घटनाग्रस्त होने व नदियों के प्रदूषित जल का समुद्र में मिलना आदि बढ़ावा देते हैं। समुद्री जल के प्रदूषण से जीव-जन्तु व मनुष्य के जीवन पर दुष्प्रभाव पड़ते हैं और संक्रामक रोग हो जाते हैं। प्रदूषण को रोकने का भरसक प्रयास करना चाहिए। विश्व पर्यावरण सम्मेलन में समुद्र में होने वाले प्रदूषण को रोकने के लिए राज्यों को ऐसे प्रयास करने चाहिए जिससे मनुष्य व समुद्री जीव-जन्तुओं के स्वास्थ्य को हानि न हो। रेगिस्तानीकरण पृथ्वी पर यदि मरूस्थल क्षेत्र बढ़ जाता है तो मनुष्य के लिए गम्भीर समस्या खड़ी हो जाती है। इसके मुख्य कारण पृथ्वी में पानी की कमी वन क्षेत्रों का मनुष्य द्वारा किया गया विनाश, संरक्षण प्रदान करने वाली पहाड़ियों की निर्जनता तथा जनसंख्या में वृद्धि होना। मरुस्थल का ताप 0°C हो जाता है जिससे मनुष्य के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इससे बचने के लिए सबसे पहले वनों की कटाई रोकनी पड़ेगी। विकरणीय प्रदूषण विकरणीय प्रदूषण मानवीय स्वास्थ्य एवं उसके विकास के लिए हानिकारक होता है। इसका प्रभाव मानव शरीर के आंतरिक व बाहरी भागों पर पड़ता है। इसलिए रेडियोधर्मी विकिरण से बचना चाहिए। X-Rays किरणों के उपयोग को विशेष परिस्थिति में स्वीकार करना चाहिए तथा इनके अधिक प्रयोग से बचना चाहिए। पर्यावरण शिक्षा का अर्थप्रत्येक मनुष्य यदि ये अच्छी प्रकार से समझे कि किये गये कार्यो से ही पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। हमारी पृथ्वी जो कि प्राकृतिक संसाधनों का भंडार है रिक्त होती जा रही है। भविष्य की बात तो छोड़े वर्तमान जीवन भी कठिन हो गया है इसलिए यह सम्भव कि एक तरह से नष्ट हो रही पृथ्वी की स्थिति पर कुछ नियंत्रण किया जा सकता है और उसे विनाश से बचाया जा सकता है। पर्यावरण शिक्षा की परिभाषाटेलर, चौपमेन के अनुसार :- “पर्यावरण शिक्षा का अभिप्राय सदनागरिक विकसित करने के लिए सम्पूर्ण पाठ्यक्रम को पर्यावरणीय मूल्यों एवं समस्याओं पर केन्द्रित करना है ताकि सदनागरिकता का विकास हो सके तथा अधिगमकर्ता पर्यावरण के सम्बंध में अनभिज्ञ प्रेरित व उत्तरदायी हो सके।" स्वान के अनुसार “पर्यावरण शिक्षा एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा ऐसी नागरिकता का विकास किया जाये जो अपने पर्यावरण तथा उससे 1939 थीन मैन ने इस तंत्र को जैव तंत्र (Biosystem) कहा। पर्यावरण की आवश्यकताप्रकृति का क्षेत्र अधिक विस्तृत तथा रहस्यमय है जो कि पर्यावरण के साथ जुड़ा हुआ है। मनुष्य विकसित तथा सामाजिक प्राणी है इसलिए वह प्राकृतिक घटनाओं का ज्ञान व उसके कारण ढूँढ़ता है। खेत, बगीचे, नदी, झरने आदि व जन्तु आदि पर्यावरण को सुन्दर व स्वच्छ बनाते हैं। प्रकृति की गोद में बालक जाकर प्राकृतिक दृश्यों का बोध करता है और आँखों से देखकर हाथों से स्पर्श कर उन्हें समझ लेता है। यूनिसेफ ने प्राथमिक स्तर पर एक योजना पर्यावरणीय शिक्षा विद्यालयों में शुरू कर दी है। इसके द्वारा विद्यार्थियों को शिक्षण दिया जाता है। जिससे वे पर्यावरण के प्रति जागरूक भी हो जाते है। पर्यावरण का महत्वआज बढ़ते हए प्रदूषण की दुनिया में पर्यावरण का निम्नलिखित महत्व है-
पर्यावरण के प्रति शिक्षकों में जागरूकता आज पर्यावरण पदूषण विश्वव्यापी ज्वलन्त समस्या है। इस समस्या के समाधान के लिये प्रत्येक आयु वर्ग के सभी स्त्री-पुरूषों में पर्यावरण के प्रति सकारात्मक संचेतना का होना अनिवार्य है। यह दायित्व शिक्षक ही निभा पाता है। शिक्षक देश के विकास व सामाजिक परिवर्तन में प्रायः महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। शिक्षा द्वारा महत्वपूर्ण कार्यों की क्रियान्विति के लिए है। शिक्षक की भूमिका ही सशक्त होती है। पर्यावरण जागरूकता के लिए शिक्षक निम्न प्रकार से अपना योगदान दे सकते हैं- विद्यालय में शिक्षक द्वारा प्रवृत्तियों का आयोजन
विभिन्न विद्यालयों में कार्यक्रम
जनतंत्रात्मक प्रवृत्तियाँ विद्यालय में निम्नलिखित माध्यम द्वारा पर्यावरण शिक्षा देना जिससे जनतंत्र में कौशल एवं दक्षताओं का विकास होता है ये निम्न लिखित हैं- वाद-विवाद प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाना चाहिए। निबन्ध लेखन प्रतियोगिता का आयोजन करना चाहिए जिसका कि विषय पर्यावरण प्रदूषण की समस्याओं के कारण तथा उन्हे कम करने के उपाय" तथा "पर्यावरण प्रदूषण को किस प्रकार रोका जा सकता है आदि होने चाहिए। रेडियो, समाचार सुनने की व्यवस्था की जायें। पाठ्य-सहगामी क्रियाओं का आयोजन शिक्षक द्वारा पर्यावरण शिक्षा के अन्तर्गत विद्यार्थियों द्वारा विभिन्न प्रकार की गतिविधियाँ करवायी जा सकती हैं जिससे पर्यावरण में सुधार हो सके जैसे (1) वृक्षारोपण करवाना तथा वनों का संरक्षण। (2) जहाँ कहीं भी गन्दा दिखे वहाँ की सफाई करने एवं करवाने के लिए विद्यार्थियों को प्रेरित करना जैसे नदी, जलाशय, शहरों की गन्दी नालियों की सफाई, सड़क पर गन्दगी आदि। पर्यटन विद्यार्थियों को भ्रमण एवं पर्यटन के माध्यम से विशिष्ट स्थलों एवं आत्म विवृतियों तथा प्रदूषणों को दृष्टान्त बताकर, पर्यावरण प्रदूषण से सम्बन्धित स्थलों पर ले जाकर प्रदूषण द्वारा पड़ रहे प्रभावों का निरीक्षण करवाना चाहिए जिससे विद्यार्थी अवलोकन कर अनुभव प्राप्त कर सकें। जनसंख्या नियंत्रण जनसंख्या नियंत्रण के प्रयास हेतु शिक्षक अपने योग्य विद्यार्थियों के साथ गाँवों कस्बों तथा झुग्गी-झोपड़ियों में जाकर श्रव्य-दृश्य सामग्रियों एवं छोटे-छोटे नाटकों द्वारा जनसंख्या नियंत्रण संबंधी तथ्यों को जनसामान्य तक प्रभावी ढंग से पहुँचा सकते हैं। आदतों का विकास शिक्षक अपने विद्यार्थियों को बाल्यावस्था से लेकर किशोरावस्था तक ऐसी आदतों का विकास किया जा सकता है जो आजीवन चिरस्थायी प्रभाव वाले होते हैं जैसे रात के समय पेड़ो के नीचे वहीं सोना चाहिए, वनों को नहीं काटना, पानी का दुरुपयोग नहीं करना, घर तक तथा उसके आस-पास के वातावरण को साफ रखना आदि। प्रदूषण से हानि पर्यावरण को समझने, प्रदूषण से हानि ज्ञात करने, हवा, जल के प्रदूषण को पहचानने, वन्य जीवन के विनाश के दुष्परिणामों को जानने, भूसंरक्षण पर निरन्तर ध्यान देने के लिए पर्यावरण शिक्षा आवश्य है। विद्यार्थियों को चिपको आन्दोलन' जैसी हियाओं को समझाना होगा जहाँ वन-विनाश को रोकने तथा वायु एवं जल प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिये जन-आन्दोलन का सहारा लिया जाता है अतः पर्यावररणीय समस्याओं के समाधान के लिये ऐसी अभिप्रेरणा विकसित करनी होगी। पर्यावरणीय संकट पर्यावरणीय संकट को समझने तथा उसे कम करने के लिए शिक्षक निम्न साधनों का उपयोग भी कर सकता है, यह कार्य शिक्षा विभाग एवं पर्यावरणीय शिक्षा द्वारा राज्य एवं केन्द्र सरकार द्वारा किया जा रहा है। ये संचार के माध्यम निम्नलिखित रूप से अनुपयोगी है।
इस प्रकार शिक्षक एक कुम्हार के समान होता है जिसके द्वारा समाज एवं राष्ट्र के भावी कर्णधारों का निर्माण होता है। अतः शिक्षक पर्यावरण के प्रसार में प्रभावी एवं महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। पर्यावरण की प्रति विद्यालय की भूमिका पर्यावरण संबंधी संरक्षण में विद्यालय की भूमिका को निम्न माध्यमों द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है या निम्नलिखित कार्यक्रम आयोजित किये जा सकते है-
अतः पर्यावरण संरक्षण, पर्यावरण प्रदूषण को रोकने के लिए, पर्यावरण को स्वस्थ बनाये रखने के लिए पर्यावरण शिक्षा बहुत महत्वपूर्ण है और पर्यावरण शिक्षा का आवश्यक माध्यम विद्यालय है। प्रो. एस.के. दुबे के अनुसार “विद्यालय के सहयोग के अभाव में जन सामान्य तथा समाज में पर्यावरणीय जागरूकता पैदा नहीं की जा सकती है क्यों कि विद्यालय ही वह आधार है जिस पर पर्यावरणीय भवन खड़ा किया जा सकता है अन्यथा संपूर्ण प्रयास निरर्थक ही सिद्ध होंगे।" पर्यावरणिय परिवेश में कार्यक्रम आयोजन एवं गतिविधिया पर्यावरण विभाग में भारत सरकार ने सन् 1982-83 से प्रारम्भ किये हैं इन्हे पारिस्थितिकी विकास शिविर, व्याख्यान श्रृंखला, प्रशिक्षण कार्यक्रम, फिल्म प्रदर्शन, प्रदर्शनियों तथा कार्य गोष्ठियाँ आयोजन कर क्रियान्वित किया गया है। पर्यावरण को स्वच्छ एवं उसके प्रति जागरूकता उत्पन्न करने के लिए निम्न माध्यम होते है- पर्यावरणीय खेल - खेल बालकों के शारीरिक विकास के लिए जरूरी है। विद्यार्थियों की अभिवृति एवं विषय वस्तु पर ध्यान केन्द्रित करने के लिये एक अच्छा साधन है। खेल उन गुणों का बढ़ाता है जिससे उसका व्यक्तित्व बनता है। खेल निम्नलिखित प्रकार से विद्यार्थियों के लिए उपयोगी है
चलचित्र या फिल्म शिक्षा की दृष्टि से मनोरंजन के साथ-साथ शैक्षिक क्रिया को पूरा करने का एक महत्वपूर्ण साधन होता है। इसके माध्यम से दूरस्थ परिस्थितियों को भी उसी रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। आजकल विद्यार्थियों में अच्छी आदतों के निर्माण तथा नैतिकता चारित्रिकी विकास और इसी प्रकार नागरिकता के गुणों से सम्बद्ध अनेक चलचित्र बनाये जाते हैं। लोक संचार नई दिल्ली द्वारा अनेक अभिनयात्मक फिल्म ऐसी तैयार की गयी है जो पर्यावरणीय बोध उसके फलस्वरूप एवं संरक्षण द्वारा उसके रचनात्मक स्वरूप को स्पष्ट करती है। अभिनय ऐतिहासिक प्रकरणों तथा कठिन पर्यावरणीय अध्ययन के सम्प्रत्ययों को अभिनय के रूप में बोधगम्य एवं सुगम बनाया जा सकता है। छोटी कक्षाओं में इन्हें वार्तालाप के रूप में प्रस्तुत करना अधिक उपयुक्त रहता है। पर्यावरण बचाओ जैसे अभिनय विद्यालय में कराये जा सकते है। पारिस्थितिक तंत्रसन 1935 में टेन्सले ने पारिस्थितिक तंत्र शब्द की रचना सर्व प्रथम की थी वह तंत्र जो दो प्रकार के घटक जैविक और अजैविक से मिलकर बना होता है वह तंत्र पारिस्थितिक तंत्र कहलाता है। जैविक घटक (Biotic Component) :- इसके अन्तर्गत समस्त जीवधारियों को रखा गया है इसमें जन्तु और वनस्पति दोनों सम्मिलित है ये आपस में संबंधित होते है। जैविक घटक दो प्रकार के होते है-
स्वपोषी घटक (Auto trophs) वे जीव जो अपना भोजन स्वय बनाते है वे स्वपोषी घटक कहलाते है जैसे हरे पौधे प्रकाश संश्लेषण क्रिया द्वारा अपना भोजन (कार्बोहाइड्रेट्स) बनाते है इन्हे स्वपोषी घटक कहते है और स्वपोषी जीवों को उत्पादक (Producers) कहते है। प्रकाश संश्लेषण (Photosynthesis) परपोषित घटक (Heterotoroprophs) वे जीव जो अपने भोजन के लिए स्वपोषित जीवों द्वारा निर्मित जैविक पदार्थों पर निर्भर करते हैं वे पर-पोषी जीव कहलाते है ये निम्नलिखित प्रकार के होते है-
अजैविक घटक (Abiotic component) :- निर्जीव पदार्थ जो पर्यावरण में उपस्थित रहते है उन्हे पारिस्थितिक तंत्र के अजैविक घटक (Abiotic component) कहते है। ये तीन प्रकार के होते है-
पारिस्थितिक तंत्र की परिभाषालिण्डमेन के अनुसार - “किसी भी आकार की किसी भी क्षेत्रीय इकाई में भौतिक - जैविक क्रियाओं द्वारा निर्मित व्यवस्था पारिस्थितिक तंत्र (ecosystem) कहलाती है।" ओडम के अनुसार - “पारिस्थितिक तंत्र पारिस्थितिक की एक आधारभूत इकाई है जिसमें जैविक एवं अजैविक पर्यावरण परस्पर प्रभाव डालते हुए पारस्परिक अनुक्रिया से ऊर्जा और रासायनिक पदार्थों के संचार से पारस्थितिक तंत्र की कार्यात्मक गतिशीलता को बनाए रखते है।" थ्रीमेन के अनुसार :- “वह इकाई जिसमें सभी जैविक तत्व पाये जाते है अर्थात् क्षेत्र के सामुदायिक जीव परस्पर अन्तक्रिया करते है अपने भौतिक वातावरण से भी अन्तः क्रिया करते हैं जिससे ऊर्जा का प्रवाह निरन्तर चलता रहता है इस्से जैव जगत व भौतिक जगत में ऊर्जा का आदान - प्रदान होता है इसे ही पारिस्थितिक तंत्र कहते है।" पारिस्थितिक तंत्र के प्रकारक्रियाशीलता के आधार पर पारिस्थितिक तंत्र निम्नलिखित प्रकार के होते है-
मुख्य रूप से दो प्रकार है
1. प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र (Natural Ecosystem) :- वे तंत्र जो कि स्वयं प्राकृतिक रूप से संतुलित रहते है, इन पर मनुष्य का अधिक हस्तक्षेप नहीं रहता है आवासीय स्थिति के आधार पर यह निम्न लिखित प्रकार के होते है- 1. स्थलीय पारिस्थितिक तंत्र (Terrestril Ecosystem) वे पारिस्थितिकी तंत्र जो कि थल में पाये जाते है वे स्थलीय पारिस्थितिक तंत्र कहलाते है जैसे वन पारिस्थितिकी तंत्र, मरूस्थलीय एवं घास के मैदान का पारिस्थितिक तंत्र। मरूस्थलीय पारिस्थितिक तंत्र (Desert Ecosystem) पृथ्वी के लगभग 17% भाग पर उष्ण मरूस्थल है। यहाँ का पर्यावरण अल्प वर्षा व उच्च ताप के कारण विशेष होता है। यहाँ पर जल की कमी होती है जिससे यहाँ की वनस्पति भी विशेष प्रकार की होती है तथा शुण्कता के कारण बालू के स्तूपों का सर्वत्र विस्तार होता है। मरूस्थल क्षेत्र की प्राकृतिक वनस्पति कंटीली झाड़ियाँ छोटी घास व कुछ शुण्कता सहन करने वाले वृक्ष होते हैं। मरूस्थलीय क्षेत्र में रेंगने वाले व अन्य जीवों के साथ ऊँट, भेड़, बकरी की संख्या अधिकाधिक होती है जो कम वर्षा तथा अल्प भोजन पर जीवन व्यतीत कर सकें। इन क्षेत्रों में अपघटक क्रिया अपेक्षाकृत कम होती है। इन प्रदेशों में पशु पालन के साथ जहाँ जल उपलब्ध हो जाता है मोटे अनाज की खेती भी की जाती है। ऐसा अनुमान है कि मरूस्थलीय क्षेत्र में जल उपलब्ध हो जाए तो वहाँ भी उत्तम कृषि हो सकती है जैसा कि नील नदी की घाटी में थार के इन्दिरा गाँधी नगर क्षेत्र में आदि। इन क्षेत्रों के पारिस्थितिक तंत्र में फिर परिवर्तन आ जाता है और खेती भी आसानी से की जा सकती है। वनीय पारिस्थितिक तंत्र (Forest Ecosystem) पृथ्वी सौर मण्डल का ऐसा बहुत बड़ा गृह है जिस पर कि जीवन सम्भव है। इसके विस्तृत क्षेत्रों में वनों का विस्तार है। एक ओर सदाबहार उष्ण कटिबन्धीय वन हैं तो दूसरी ओर शीतोष्ण के पतझड़ वाले एवं शीत-शीतोष्ण के सीमावर्ती प्रदेशों के कोणधारी वन हैं। वन या प्राकृतिक वनस्पति जहाँ एक ओर पर्यावरण के विभिन्न तत्वों जैसे ताप दाब वर्षा, आर्द्रता, मृदा आदि को नियंत्रित करते हैं वही उनका अपना पारिस्थितिक तंत्र होता है। वनीय क्षेत्रों की मृदा में मिश्रित कई खनिज लवण व वायु मण्डल के तत्व इस प्रदेश के अजैविक तत्वों उत्पादक, उपभोक्ता व अपघटक के रूप में विभिन्न पौधे और जीव शामिल होते हैं। उत्पादक के रूप में वनीय प्रदेशों में विभिन्न प्रकार के वृक्ष होते हैं जो उष्ण शीतोष्ण व शीत दशाओं के साथ-साथ परिवर्तित होते हैं। इन सबके साथ-साथ विषुवतीय प्रदेशों में झाड़ियाँ, लताएं आदि की अधिक संख्या में पाई जाती हैं। प्राथमिक उपभोक्ताओं में विभिन्न प्रकार के जानवर जो वनस्पति का प्रयोग करते हैं कीट, वृक्षों पर रहने वाले पक्षी द्वितीय उपभोक्ता में माँसाहारी जीव-जन्तु पक्षी शामिल है। मनुष्य भी एक हद तक भक्षक का कार्य करता है। वनस्पति लगातार गिरती रहती है और सड़ जाती है व मृदा में मिल जाती हैं। इस प्रकार जीव-जन्तु भी मृत्यु के बाद जीवाणुओं द्वारा सड़ा दिए जाते हैं और उनका शरीर अपघटित हो जाता है और अंत में वे मृदा में मिल जाते है। विश्व के उष्ण कटिबन्धीय वनों की ओर वर्तमान में पर्याप्त ध्यान आकृष्ट है क्योंकि इनका तेजी से हो रहा विनाश विश्व पारिस्थितिक तंत्र के लिए खतरा है। 2. जलीय पारिस्थितिक तंत्र (Aquatic Ecosystem) जलीय स्त्रोतो के पारिस्थितिकी तंत्रो को जलीय पारिस्थितिक तंत्र कहते है ये निम्न प्रकार के होते है। अवलणीय जलीय पारिस्थितकी तंत्र :- ये अलवणीय जलीय स्थान का पारिस्थितिक तंत्र होता है इसे दो भागों में बांटा गया है
लवणीय पारिस्थितिक तंत्र (Marine Ecosystem) : - समुद्र महासागर, खाड़ी आदि का पारिस्थितिक तंत्र। कृत्रिम पारिस्थितिक तंत्र (Artificial Ecosystem) वह पारिस्थितिक तंत्र जो मनुष्य द्वारा निर्मित किया जाता है वह कृत्रिम पारिस्थितिक तंत्र कहलाता है। इस तंत्र में ऊर्जा प्रवाह नियोजन एवं प्राकृतिक संतुलन में व्यवधान रहते है। जैसे खेत की फसल का पारिस्थितिक तंत्र, बाग का पारिस्थितिक तंत्र। कृषि क्षेत्र पारिस्थितिक तंत्र प्राकृतिक तंत्र के अलावा मनुष्य द्वारा भी पारिस्थितिक तंत्र निर्मित किए जाते हैं। मनुष्य के तकनीकी व वैज्ञानिक ज्ञान के कारण प्राकृतिक पर्यावरण के साथ सांमजस्य स्थापित कर नए पारिस्थितिक तंत्र का विकास किया गया है जैसे कृषि क्षेत्र का पारिस्थितिक तंत्र। इसमें मनुष्य अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए विभिन्न प्रकार के रासायनिक तत्वों का प्रयोग करता है। मृदा में कृत्रिम उर्वरक डालकर उसमें खनिज लवणों की पूर्ति करता है। विशेष प्रकार के बीज सिंचाई व्यवस्था व तकनीकी प्रयोग से न केवल कृषि क्षेत्र में विस्तार करता है वरन उत्पादन में वृद्धि उन्नमता में विकास नई-नई फसलों के उत्पादन द्वारा अधिक विकास करता है। जब हम फसल लगाते हैं तो इन फसलों के साथ कई प्रकार के पौधे स्वतः ही उग आते हैं ये पौधे उपभोक्ता द्वारा उपभोग कर लिए जाते है इन फसलों से पत्ते-फल अनाज हम तथा पालतू जानवर भी खा जाते है, जब फसल पक जाती है तो विभिन्न कार्बनिक पदार्थ मृदा मे मिल जाते है। इस प्रकार प्राकृतिक पर्यावरण में परिवर्तन के साथ-साथ पारिस्थतिक तंत्र में परिवर्तन आ जाता है मानवीय प्रयास उसमें और अधिक समानुकूलन पैदा करते है जिससे कई नवीन पारिस्थितिक तंत्र का विकास हो जाता है। स्थलीय पारिस्थितिक तंत्र (Terristrial Ecosystem) घास के मैदान का पारिस्थितिक तंत्र घास के मैदान में जैविक घटक के उत्पादक उपभोक्ता अपघटक और अजैविक घटक वायु, दाव, ताप और प्रकाश होते है- जैविक घटक :- जैविक घटक निम्न लिखित है- 1. उत्पादक (Producer) हरी घास यहां उत्पादक है हरी घास सूर्य प्रकाश (Sunlight) और क्लोरोफिल की उपस्थिति में अपना भोजन स्वयं बनाती है अर्थात् कार्बोहाइड्रेटस का निर्माण करती है इस क्रिया को प्रकाशसंश्लेषण कहते है और हरी घास को उत्पादक कहते है। जलीय पारिस्थितिक तंत्र (Aquatic Ecosystem) इसमें जैविक व अजैविक दोनों घटक पाए जाते है जैविक में घटक उत्पादक, उपभोक्ता व अपघटक होते है- 1. उत्पादक (Producer) जलीय जैसे तालाब के पारिस्थितिक तंत्र में उत्पादक छोटी छोटी हरी घास शैवाल होती है। 2. उपभोक्ता (Consumer)
3. अपघटक (Decoveposers) सूक्ष्मकीट होते है जो उपरोक्त सभी के मृत शरीर को अपघटित कर देते हैं। अजैविक घटक :- जल, ताप, दाव, वायु, आर्द्रता आदि पारिस्थितिक तंत्र का महत्वपारिस्थितिकी तंत्र में जैविक व अजैविक घटक आपस में मिलकर इस प्रकार एक दूसरे से संयोग करते है कि एक सन्तुलित व्यवस्था बनी रहती है जैसे वन का पारिस्थितिकी तंत्र है जो अनेक कार्यों का सम्पादन कर पर्यावरण को संतुलित रखता है और स्वयं भी संतुलित रहता है। पर्यावरण किसे कहते हैं इसके घटक कौन कौन से हैं?हमारा वातावरण हमें रोजमर्रा के जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं की एक किस्म प्रदान करता है। इन प्राकृतिक संसाधनों में हवा, पानी, मिट्टी, खनिज के साथ-साथ जलवायु और सौर ऊर्जा शामिल हैं जो प्रकृति के निर्जीव या अजैविक भाग का निर्माण करते हैं।
पर्यावरण किसे कहते हैं और यह कितने प्रकार के होते हैं?पर्यावरण के प्रकार
अर्थात प्रकृति के द्वारा जितनी भी वस्तुयें जैसे – नदी, तालाब, पेड़, महासागर, पहाड़, पथर आदि निर्मित किये गए है वह हमारा प्राकृतिक पर्यावरण है। प्राकृतिक पर्यावरण के अंतर्गत उन सभी जैविक एवं अजैविक तत्वों को शामिल किया जाता है जोकि पृथ्वी पर प्राकृतिक रूप में पाए जाते है।
पर्यावरण क्या है परिभाषा हिंदी?"परि" जो हमारे चारों ओर है"आवरण" जो हमें चारों ओर से घेरे हुए है,अर्थात पर्यावरण का शाब्दिक अर्थ होता है चारों ओर से घेरे हुए। पर्यावरण उन सभी भौतिक, रासायनिक एवं जैविक कारकों की समष्टिगत एक इकाई है जो किसी जीवधारी अथवा पारितंत्रीय आबादी को प्रभावित करते हैं तथा उनके रूप, जीवन और जीविता को तय करते हैं।
पर्यावरण के तीन मुख्य घटक कौन से हैं?Solution : ( i ) जैविक या जीवित <br> ( ii ) अजैविक या अजीवित <br> ( iii ) ऊर्जा घटक ।
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