कन्नड़ भाषा तथा संस्कृति को कर्नाटक के साहित्यकारों की क्या देन है स्पष्ट कीजिए? - kannad bhaasha tatha sanskrti ko karnaatak ke saahityakaaron kee kya den hai spasht keejie?

कर्नाटक के साहित्यकारों ने सारे संसार में कर्नाटक की कीर्ति फैलायी है। वचनकार बसवण्णा क्रांतिकारी समाज सुधारक थे। अक्कमहादेवी, अल्लमप्रभु, सर्वज्ञ, जैसे अनेक संतों ने अपने अनमोल वचनों द्वारा प्रेम, दया और धर्म की सीख दी है। पुरंदरदास, कनकदास आदि भक्त कवियों ने भक्ति, नीति, सदाचार के गीत गाये हैं। पम्प, रन्न, पौन, कुमारव्यास, हरिहर, राघवांक आदि ने महान् काव्यों की रचना कर कन्नड साहित्य को समृद्ध बनाया है।

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कन्नड़ भाषा तथा संस्कृति को कर्नाटक के साहित्यकारों की क्या देन है स्पष्ट कीजिए? - kannad bhaasha tatha sanskrti ko karnaatak ke saahityakaaron kee kya den hai spasht keejie?

प्राचीन कन्नड शिलालेख (578 ई ; बदामी चालुक्य राजवंश; बदामी गुफा मंदिर संख्या-३)

कन्नड साहित्य का इतिहास लगभग डेढ़ हजार वर्ष पुराना है।[1][2][3][4][5] कुछ साहित्यिक कृतियाँ जो ९वीं शताब्दी में रची गयीं थीं, अब भी सुरक्षित हैं।[6] कन्नड साहित्य को मुख्यतः तीन साहित्यिक कालों में बांटा जाता है- प्राचीन काल (450–1200 CE), मध्यकाल (1200–1700 CE) तथा आधुनिक काल (1700 से अब तक)।[7] कन्नड साहित्य की एक विशेष बात यह है कि इसमें जैन, वीरशैव और वैष्णव तीनों सम्रदायों ने साहित्य रचना की जिससे मध्यकाल में तीन स्पष्ट धाराएँ दिखतीं हैं।[8][9][10] यद्यपि १८वीं शताब्दी से पूर्व का अधिकांश साहित्य धार्मिक था, किन्तु कुछ असाम्प्रदायिक साहित्य भी रचा गया।[11][12]

काल विभाजन[संपादित करें]

कन्नड साहित्य के इतिहास पर जितने छोटे-बड़े ग्रंथ रचे गए हैं उनमें मुख्य निम्नलिखित हैं :

  1. सन् 1875 में रे. एफ़. किट्टल द्वारा लिखी नागवर्मा के "छंदोंबुधि" नामक ग्रंथ की प्रस्तावना,
  2. एपिग्राफ़िया कर्नाटिका में बी.एल. राइस का लेख,
  3. आर. नरसिंहाचार का लिखा हुआ "कर्नाटक कविचरित" (तीन भागों में, 1907),
  4. ई.पी.राइस की "ए हिस्ट्री ऑव केनरीस लिटरेचर" (अंग्रेजी में),
  5. डॉ॰आर.एस.मुगलि का "कन्नड साहित्य चरित्रे" (1953)।
  6. श्री.एम. मरियप्प भट्ट का "संक्षिप्त कन्नड साहित्य चरित्रे" (1901)।

इन इतिहासों में कन्नड साहित्य के इतिहास का कालविभाजन भिन्न-भिन्न आधारों पर किया गया है। किसी ने 12वीं शताब्दी के मध्यकाल तक जैन युग, 12वीं शताब्दी के मध्यभाग से 15वीं शती के मध्यभाग तक "वीरशैव युग", 15 वीं शताब्दी के मध्यभाग से 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक "ब्राह्मण युग" और उसके बाद के काल को आधुनिक युग माना है; और किसी विद्वान् के अनुसार आरंभकाल 10वीं शताब्दी तक, धर्म-प्राबल्य-काल, (10वी शताब्दी से 19वीं शताब्दी तक जैन कवि, वीरशैव कवि, ब्राह्मण कवि) रगले, षटपदि एवं नवीनकल कहा है। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि अब तक लिखे गए कन्नड साहित्य के इतिहासों में डॉ॰ आर.एस। मुगलि का लिखा हुआ कन्नड साहित्य चरित्रे कई दृष्टियों से सर्वोत्तम है। अत: यह कह सकते है कि मुगलि का कालविभाजन सर्वाधिक मान्य है जो इस प्रकार है–

  1. पंपपूर्व युग (सन् 950 तक),
  2. पंप युग (सन् 950 से सन् 1150 तक),
  3. बसवयुग (सन् 1150 से 1500 तक),
  4. कुमारव्यास युग (सन् 1500 से 1900 तक) और
  5. आधुनिक युग (सन् 1900 से)

प्रो॰ मुगलि ने प्रत्येक युग के सर्वाधिक प्रतिभासंपन्न कवि के नाम से उस युग का नामकरण करते हुए मोटे तौर पर सारे साहित्य को मार्ग युग, संक्रमण युग, देशी युग के रूप में विभाजित किया है।

पंपपूर्व युग[संपादित करें]

"कविराजमार्ग", कन्नड का प्रथम उपलब्ध ग्रंथ है। चंपू शैली में लिखा हुआ यह रीतिग्रंथ प्रधानतया दंडी के "काव्यादर्श" पर आधरित है। इसका रचनाकाल सन् 815-877 के बीच माना जाता है। इस बात में विद्वानों में मतभेद है कि इसके रचयिता मान्यखेट के राष्ट्रकूट चक्रवर्ती स्वयं नृपतुंग थे या उनका कोई दरबारी कवि। डॉ॰ मुगलि का यह मत है कि इसके लेखक नृपतुंग के दरबारी कवि श्रीविजय थे।

कविराजमार्ग का प्रतिपाद्य विषय अलंकार है। ग्रंथ तीन परिच्छेदों में विभाजित है। द्वितीय तथा तृतीय परिच्छेदों में क्रमश: शब्दालंकारों तथा अर्थालंकारों का निरूपण उदाहरण सहित किया गया है। प्रथम पच्छिेद में काव्य के दोषादोष (गुण, दोष) का विचार किया गया है। साथ ही ध्वनि, रस, भाव, दक्षिणी और उत्तरी काव्यपद्धतियाँ, काव्यप्रयोजन, साहित्यकार की साधना, साहित्यविमर्श के स्वरूप आदि का संक्षेप में परिचय दिया गया है। कन्नड भाषा, कन्नड साहित्य, कन्नड प्रदेश, कर्नाटक की जनता की संस्कृति आदि कई बातों की दृष्टि से कविराज मार्ग एक अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ है।

इस काल का दूसरा ग्रंथ है "वड्डाराधने" जिसमें 19 जैन महापुरुषों की कहानियाँ गद्य में निरुपित हैं। इसके लेखक तथा रचनाकाल के संबंध में यही समझा जाता है कि शिवकोटयाचार्य नामक जैन कवि ने इसे सन् 900-1070 के बीच रचा था। यह प्राकृत के "भगवतीआराधना" नामक ग्रंथ के आधार पर रचा गया है और इसमें उत्तम काव्य के गुण मिलते हैं। इस ग्रंथ की सबसे बड़ी महत्ता यह है कि इसमें कन्नड के गद्य का सर्वप्रथम रूप प्राप्त होता है।

उपर्युक्त दो ग्रंथों के अतिरिक्त अब तक इस काल का अन्य कोई ग्रंथ उपलब्ध नहीं हुआ है।

पंप युग[संपादित करें]

कन्नड साहित्य के इतिहास में पंप का काल विशेष महत्वपूर्ण है, जो "स्वर्णयुग" के नाम से भी प्रसिद्ध है। इस काल का दूसरा नाम है "जैन युग", क्योंकि इस अवधि में कन्नड साहित्य की श्रीवृद्धि करनेवालों में जैन मतावलंबी कवियों का विशेष हाथ रहा। इन जैन कवियों में प्रत्येक ने प्रधानतया दो प्रकार के काव्य रचे–एक जैन धर्म संबंधी काव्य अथवा धार्मिक काव्य की वस्तु किसी तीर्थकर या महापुरुष की कहानी होती थी और लौकिक काव्य में पौराणिक काव्यों के कथानकों का चित्रण होता था। इस प्रकार दो-दो ग्रंथ रचने का उद्देश्य एक और जैन धर्म के तत्वों का प्रचार करना था और दूसरी ओर संस्कृत के लोकप्रिय महाकाव्यों का कन्नड में प्रतिरूप प्रस्तुत करके लोगों को अपने धर्म की ओर आकर्षित करना था। ये जैन कवि संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषाओं के विद्वान् थे, साहित्यशास्त्र के मर्मज्ञ थे और प्रतिभासंपन्न कवि भी। इन कवियों ने आवश्यक परिवर्तन के साथ पौराणिक कथानकों को अपने धर्म के अनुकूल अवश्य बनाया, किंतु उनकी मौलिकता को नष्ट न होने देकर रोचकता को बनाए रखा। जैन कवियों की रचनाओं से कन्नड भाषा और साहित्य का बड़ा उपकार हुआ। इस अवधि में चंपू काव्यशैली का विशेष प्रचार हुआ। इस समय के धार्मिक काव्यों में अद्भूत तथा शांत और लौकिक काव्यों में वीर तथा रौद्र रसों की विशेष रूप से अभिव्यंजना हुई। उपर्युक्त दो प्रकार के काव्यों के अतिरिक्त छंद, रस, अलंकार, व्याकरण, कोश, ज्योतिष, वैद्यक आदि विभिन्न विषयों पर भी ग्रंथ लिखे गए। इस प्रकार इस युग में कन्नड साहित्य की सर्वतोमुखी उन्नति हुई।

इस युग के प्रसिद्ध कवि तीन थे–पंप, पोन्न तथा रन्न जो "रन्नत्रयी" के नाम से प्रसिद्ध हैं। महाकवि पंप अथवा आदि पंप ने दो काव्य रचे–"आदिपुराण" और "विक्रमार्जुनविजय" अथवा "पंपभारत"। आदिपुराण में जिनसेनाचार्यकृत संस्कृत पूर्वपुराण के आधार पर प्रथम तीर्थकर वृषभनाथ का जीवनचरित चित्रित किया गया है और "विक्रमार्जुनविजय" में महाभारत के कथानक का निरूपण किया गया है। ये दोनों चंपूकाव्य हैं। पंप कन्नड के आदिकवि माने जाते हैं। इनका समय सन् 941 के लगभग माना जाता है।

पोन्न पंप के समकालीन थे। उन्होंने तीन ग्रंथ रचे थे–"शांतिपुराण", "जिनाक्षरमाला" तथा "भुवनैकरामाभ्युदय"। अंतिम ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। रन्न की मुख्य रचनाएँ दो हैं– "अजितपुराण" तथा "साहस भीमविजय" अथवा "गदायुद्ध"। गदायुद्ध के नायक भीम हैं। गदायुद्ध में वीररस की अनूठी व्यंजना हुई है। इसी काव्य से रन्न की र्कीति अचल हुई है।

पंप युग के अन्य कवियों में चाउंडराय, नागवर्म (प्रथम), दुर्गसिंह, चंद्रराज, नागचंद्र, नागवर्म (द्वितीय) आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। चाउंडराय का "चाउंडरायुपराण" प्राचीन कन्नड गद्य का सुंदर नमूना है। नागवर्म प्रथम के दो ग्रंथ प्राप्त हुए हैं– "कर्नाटक कांदबरी" तथा "छंदोंबुधि"। "कर्नाटककादंबरी" बाण की कादंबरी का कन्नड प्रतिरूप है। यह चंपू शैली में है। प्रो॰ मुगलि का मत है कि कन्नड में अनूदित जितने ग्रंथ हैं उनमें नागवर्म (प्रथम) की कर्नाटककादंबरी सर्वश्रेष्ठ है–चंद्रराज और श्रीधराचार्य नागवर्म (प्रथम) के समकालीन कवि हैं। चंद्रराज का कामशास्त्र पर लिखा हुआ "मदनतिलक" नामक ग्रंथ और श्रीधराचार्य का "जातकतिलक" नामक ज्योतिष ग्रंथ, दोनों उत्तम कृतियाँ हैं। इसी काल में दुर्गसिंह ने, जो भागवत संप्रदाय के कवि थे, संस्कृत "पंचतंत्र" का अनुवाद प्रस्तुत किया।

11वीं और 12वीं शताब्दियों के बीच एक अन्य प्रसिद्ध कवि हुए, जिनका नाम नागचंद्र था। क्योंकि इन्होंने पंपभारत से प्रेरणा पाकर रामायण की रचना की, इसलिए इनका दूसरा नाम "अभिनव पंप" पड़ा। नागचंद्र ने भी पूर्ववर्ती जैन कवियों की भाँति दो काव्य रचे–"मल्लिनाथपुराण" तथा "रामचंद्रचरितपुराण" अथवा "पंपरामायण"। पंपरामायण ही कन्नड के उपलब्ध रामकथा संबंधी काव्यों में सबसे प्राचीन है।

पंपयुग में महाकवियों का आविर्भाव हुआ और उन्होंने अपनी महान कृतियों से कन्नड को समृद्ध बनाया। यद्यपि इस काल में बड़े-बड़े कलात्मक प्रौढ़ काव्यों का निर्माण हुआ, तो भी समाज के साधारण लोगों के जीवन के साथ साहित्य का संपर्क नहीं था। इसका मुख्य कारण यह था कि इस समय के कवि राजाओं के आश्रय में रहते थे और वे जो कुछ लिखते थे, या तो अपने आश्रयदाता राजाओं का यश गाने के लिए लिखते थे या दरबार के अन्य पंडितों के बीच वाहवाही लुटने के लिए अथवा अपने धर्म का प्रचार करने के लिए। इसका परिणाम यह हुआ कि बोलचाल की भाषा साहित्य सर्जन के लिए उपयुक्त नहीं समझी गई। सर्वत्र संस्कृत का प्रभाव पड़ा। चंपू शैली में जो प्रौढ़ काव्य रचे गए वे साधारण जनता की वस्तु न होकर पंडितों तक सीमित रहे।

बसव युग[संपादित करें]

१२वीं शताब्दी की कन्नड कवयित्री : अक्का महादेवी

12 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से 15वीं शताब्दी तक का काल बसव युग कहलाता है। इस युग का दूसरा नाम "क्रांतियुग" है। इस समय कर्नाटक में धार्मिक, सामाजिक या राजनीतिक, ऐसा कोई क्षेत्र नहीं था जो क्रांति से अछूता रह सका हो। इस क्रांति के उन्नायक बसव, बसवण्ण अथवा बसवेश्वर थे, इलिए इस युग का नाम बसव युग पड़ा।

इस काल में संस्कृतनिष्ठ कन्नड के स्थान पर बोलचाल की कन्नड साहित्य के निर्माण के लिए उपर्युक्त समझी गई और संस्कृत की काव्यशैली के बदले देशी छंदों को विशेष प्रोत्साहन दिया गया। पिछली शताब्दियों में जैन मतावलंबियों का साहित्यक्षेत्र में सर्वाधिकार था। इस युग में भिन्न-भिन्न मतावलंबियों ने साहित्य के निर्माण में योग दिया। साहित्य की श्रीवृद्धि में भक्ति एक प्रबल प्रेरक शक्ति के रूप में सहायक हुई।

12वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में बसवेश्वर का आविर्भाव हुआ। उन्होंने वीरशैव मत का पुन: संघटन करके कर्नाटक के धार्मिक एवं सामाजिक जीवन में बड़ी उथल पुथल मचाई। बसव तथा उनके अनुयायियों ने अपने मत के प्रचार के लिए बोलचाल की कन्नड को माध्यम बनाया। वीरशैव भक्तों ने भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, सदाचार एवं नीति पर निराडंबर शैली में अपने अनुभवों की बातें सुनाई, जो वचन साहित्य के नाम से प्रसिद्ध हुई। इन वीरशैव भक्तों अथवा शिवशरणों के वचन एक प्रकार के गद्यगीत हैं। शिवशरणों ने साहित्य के लिए साहित्य नहीं रचा। उनका मुख्य उद्देश्य अपने विचारों का प्रचार करना ही था। उनके विचारों में सरलता थी, सचाई थी और सच्चे जिज्ञासु की रसमग्नता था। इसलिए उनकी वाणी में साहित्यिक सौष्ठव अपने आप आ गया। इन शिवशरणों के वचनों ने कर्नाटक में वही कार्य किया जो कबीर तथा उनके अनुयायियों ने उत्तर भारत में किया।

बसव ने भक्ति का उपदेश दिया और इस भक्ति की साधना में वैदिक कर्मकांड, मूर्तिपूजा, जाति पाँति का भेदभाव, अवतारवाद, अंधश्रद्धा आदि को बाधक ठहराया। जातिरहित, वर्णरहित, वर्गरहित समाज के निर्माण द्वारा उन्होंने आध्यात्मिक साधन का मार्ग सर्वसुलभ बनाना चाहा। बसव के समकालीन वीरशैव भक्तों में अल्लमप्रभु, अक्कमहादेवी, चेन्न-बंसव तथा सिद्धराम प्रमुख हैं।

इन वचनकार शिवशरणों के अतिरिक्त वीरशैव मतावलंबी बहुत से ऐसे कवि हुए जिन्होंने भक्तिभावप्रधान नाना प्रकार के काव्यग्रंथ देशी छंदों का प्रयोग करते हुए प्रस्तुत किए। 12वीं और 13वीं शताब्दियों के बीच तीन श्रेष्ठ कवि हुए हरिहर, राघवांक और पद्मरस। इस काल के जैन कवियों में नेमिचंद्र, बंधुवर्मा, जन्न, मल्लिकार्जुन, केशिराज, रट्टकवि और कुमुदेंदु मुनि के नाम उल्लेखनीय हैं।

13वीं शताब्दी में कर्नाटक की धार्मिक स्थिति में फिर से उथल पुथल हुई। एक ओर कर्नाटक रामानुजाचार्य द्वारा स्थापित श्रीवैष्णव संप्रदाय से प्रभावित हुआ और दूसरी ओर उसमें मध्वाचार्य के द्वैत मत की भक्ति की नई लहर चली। इन दोनों वैष्णव संप्रदायों द्वारा चलाई गई भक्तिधारा से कन्नड साहित्य में नूतन शक्ति का संचार हुआ। परिणामस्वरूप पौराणिक महाकाव्यों के कथानकों का कन्नड में नए सिरे से विशुद्ध मूल रूप में निरूपण हुआ। इस अवधि में रुद्रभट्ट नामक एक वैष्णव कवि हुए जिनका "जगन्नाथविजय" कन्नड का सर्वप्रथम वैष्णव प्रबंध काव्य माना जाता है। यह चंपू शैली में लिखा गया है और इसकी कथावस्तु कृष्ण से संबंधित है।

कुमारव्यास युग[संपादित करें]

कन्नड़ भाषा तथा संस्कृति को कर्नाटक के साहित्यकारों की क्या देन है स्पष्ट कीजिए? - kannad bhaasha tatha sanskrti ko karnaatak ke saahityakaaron kee kya den hai spasht keejie?

कन्नड़ भाषा तथा संस्कृति को कर्नाटक के साहित्यकारों की क्या देन है स्पष्ट कीजिए? - kannad bhaasha tatha sanskrti ko karnaatak ke saahityakaaron kee kya den hai spasht keejie?

कनक दास (1509 ई --1609 ई)

15वीं शताब्दी से 19वीं श्ताब्दी के अंत तक का काल कुमारव्यास युग कहलाता है। इस अवधि में विजयनगर के सम्राटों तथा मैसूर के राजाओं ने कन्नड साहित्य की श्रीवृद्धि में विशेष हाथ बँटाया। वैष्णव धर्म की प्रतिष्ठा बढ़ी जिसकी प्रतिक्रिया कन्नड साहित्य में भी दिखाई पड़ी। वैष्णव धर्म द्वारा प्रचारित भक्ति साहित्यसर्जन में प्रेरक शक्ति के रूप में प्रकट हुई। साहित्य जनता के अति निकट संपर्क में आया। इस काल के सर्वश्रेष्ठ कवि नार्णप्प (नारणप्प) हैं जो अपनी लोकप्रियता के कारण "कुमारव्यास" के अभिधान से प्रख्यात हुए। कुमारव्यास भागवत संप्रदाय के प्रमुख कवि थे।

नार्णप्प अथवा कुमारव्यास की जन्मतिथि, जन्मस्थान तथा उनके रचनाकाल के संबंध में विद्वानों में मतभेद हैं। प्रो॰ मुगलि के अनुसार 14वीं और 15वीं शताब्दियों के बीच कुमारव्यास जीवित थे। कुमारव्यास ने "कन्नड भारत" अथवा "गदुगिन भारत" और "ऐरावत" नामक दो काव्य लिखे थे, ऐसा माना जाता है। लेकिन ऐरावत के उनकी कृति होने में संदेह प्रकट किया गया है। "कन्नड भारत" में व्यासरचित महाभारत के प्रथम दस पर्वो की कथा का निरूपण किया गया है। यद्यपि पंप ने अपने "पंपभारत" द्वारा महाभारत की सारी कथा का कन्नड प्रतिरूप प्रस्तुत किया था तो भी वह कुमारव्यास के कन्नडभारत की तरह लोकप्रिय नहीं हो सका। इसके दो कारण हैं– एक यह है कि पंपभारत में पांडित्यप्रदर्शन की प्रवृत्ति अधिक थी और दूसरा यह कि उसमें जैन धर्म का रंग भी चढ़ा था।

कुमारव्यास के कन्नडभारत के उपरांत महाभारत, रामायण और भागवत के कथानकों के आधार पर बहुत से उत्तम काव्य षट्पदि शैली में प्रस्तुत किए गए। कुमारव्यास के दिखलाए हुए मार्ग पर चलकर नरहरि अथवा कुमारवाल्मीकि नामक कवि ने वाल्मीकि रामायण के आधार पर कन्नड में "तोरवेरामायण" की रचना की। यह भी भक्तिप्रधान प्रबंध काव्य हैं, जो प्राचीन कन्नड की एक सरस कलाकृति है। भागवत मतावलंबी कवियों में तिम्मण्ण कवि, चाटु विट्ठलनाथ, लक्ष्मीश तथा नागरस के नाम उल्लेखनीय हैं। कुमारव्यास से प्रेरणा पाकर तिम्मण्ण कवि ने महाभारत के अंतिम आठ पर्वो की कथा का निरूपण "कृष्णराज भारत" नामक अपने काव्य में किया। सबसे पहले समग्र भागवत का कन्नड पद्यानुवाद चाटु विटठलनाथ नामक भागवत कवि ने प्रस्तुत किया। लगभग इसी काल में एक अत्यंत प्रतिभासंपन्न कवि हुए जिनका नाम लक्ष्मीश था। इनका लिखा हुआ "जैमिनिभारत" अनुपम काव्य है जिसमें महाभारत के कतिपय रोचक प्रसंगों का सुंदर एवं मर्मस्पर्शी वर्णन किया गया है। लोकप्रियता की दृष्टि से कर्नाटक में कुमारव्यास के भारत के बाद जैमिनिभारत का स्थान है। नागरस नामक कवि ने भगवद्गीता का "वासुदेवकथामृतसार" नामक कन्नड पद्यानुवाद प्रस्तुत किया।

जिस प्रकार इस अवधि में कुमारव्यास, कुमारवाल्मीकि, लक्ष्मीश जैसे भागवत संप्रदाय के कवियों ने भारत, रामायण, भागवत आदि महाकाव्यों से कथावस्तु लेकर कन्नड में भक्तिप्रधान प्रबंध काव्यों का प्रणयन किया, उसी प्रकार माध्वमतावलंबी भक्तों ने बोलचाल की कन्नड में गीत, भजन, कीर्तन रचकर भक्ति का संदेश कर्नाटक के घर-घर पहुँचाया। इन भक्तों की परंपरा का आरंभ 13वीं शताब्दी में नरहरितीर्थ द्वारा हुआ था। इस समय इन भक्तों की एक बड़ी मंडली जुट गई थी जो प्रधानतया दो भागों में विभाजित थी। एक दल का नाम था "व्यासकूट" और दूसरे का "दासकूट"। इन दोनों में अंतर यही था कि वे भक्त व्यासकूट के कहलाते थे जो अधिकांश ब्राह्मण थे और जो अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए संस्कृत को ही उपयुक्त समझते थे, एवं वे भक्त दासकूट के माने जाते थे जिनमें सभी जातियों के लोग सम्मिलित थे और जो कन्नड के माध्यम से भजन, कीर्तन रचते थे। संप्रदाय की तत्व संबंधी बातों में "व्यासकूट" तथा "दासकूट" के भक्तों में कोई अंतर नहीं था। इन दोनों दलों के भक्त कर्नाटक में हरिदास के नाम से प्रसिद्ध हैं। इन हरिदासों ने भक्ति, ज्ञान, सदाचार, नीति, प्रेम, लोकव्यवहार आदि विषयों पर सरस, किंतु व्याकरणबद्ध कन्नड में हजारों पद रचकर कन्नड साहित्य का भांडार भरा। हरिदासों की परंपरा 18वीं शती तक चलती है। हरिदासों के गीतों का कन्नडवासी जनता पर गहरा और व्यापक प्रभाव पड़ा है। इन हरिदासों में पुरंदरदास, कनकदास, जगन्नाथदास आदि प्रमुख हैं।

17वीं शताब्दी में मैसूर (संप्रति कर्नाटक) के राजा चिकदेवराय के आश्रय में रहते हुए कतिपय वैष्णव कवियों ने उत्तम काव्यों का निर्माण किया। इन कवियों में तिरुमलार्य, चिकुपाध्याय, सिंगरार्य, होन्नम्मा, हेळवन कट्टे गिरियम्मा, महालिंगरंग कवि के नाम उल्लेखनीय हैं। इसी समय पहली बार श्रीवैष्णव संप्रदाय का प्रभाव कन्नड साहित्य पर प्रत्यक्ष रूप में दिखाई पड़ा। चिकदेवराय "बिन्नप" तथा "गीतगोपाल" नामक अपनी रचनाओं में तिरुमलार्य ने श्रीवैष्णव संप्रदाय के साथ-साथ ऐकांतिक भक्ति का निरूपण किया है। "हदिवदेयधर्म" होन्नाम्मा का एक सुंदर काव्य है जिसमें सतीधर्म (गृहिणी धर्म) का प्रांजल भाषा में वर्णन किया गया है। महालिंगरंग कवि के लिखे "अनुभवामृत्त" में शंकर के अद्वैत सिद्धांत का सार सरस कन्नड में प्रस्तुत किया गया है। चिकदेवराय स्वयं अच्छे कवि थे।

इस युग में वीरशैव मतावलंबी भक्तों एवं कवियों ने भी नाना प्रकार के ग्रंथ रचकर कन्नड की सेवा की। इनमें कुछ शतक शैली में लिखे गए हैं। वचन शैली के अतिरिक्त कुछ गद्य ग्रंथ भी लिखे गए और सांगत्य, त्रिपदि, वृत्त, चंपू, गीत आदि छंदों का विशेष प्रयोग किया गया। किंतु इस लंबी अवधि में जितने वचनकार हुए वे इने गिने ही हैं।

चरितकाव्य प्रस्तुत करनेवाले वीरशैव कवियों में चामरस, विरूपाक्ष पंडित और षडक्षरदेव अग्रगण्य थे। चामरस के लिखे काव्यों में "प्रभुलिंगलीले" श्रेष्ठ चरितकाव्य है। "प्रभुलिंगलीले" में अल्लम प्रभु के जीवनवृत्त का विस्तार किया गया है। वीरशैव कवियों में श्रेष्ठ प्रबंध काव्य रचनेवालों में हरिहर के बाद चामरस का नाम आदर के साथ लिया जाता है। विरूपाक्ष पंडित का लिखा हुआ चेन्नबसव पुराण भी उत्तम प्रबंध काव्य है, जिसमें प्रसिद्ध वीरशैव भक्त चेन्नबसव की कहानी कही गई है। हरिहर के "बसवराजरगले" तथा चामरस के "प्रभुलिंगलीले" जैसे चरितकाव्यों में मतधर्म तथा काव्यधर्म का जैसा सुंदर समन्वय हुआ है, वैसा "चेन्नबसवपुराण" में नहीं हो पाया है।

पंप युग में जैन कवियों ने अपने श्रेष्ठ प्रबंध काव्यों के द्वारा कन्नड में चंपूशैली को अत्यंत लोकप्रिय बनाया। लेकिन आगे चलकर इस शैली का उपयोग कम होता गया। कुमारव्यास युग में फिर से यह शैली अपनाई गई। इसे अपनानेवाले कवि जैन नहीं अपितु वीरशैव थे। 17वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में षडक्षरदेव नामक एक प्रतिभासंपन्न वीरशैव कवि ने चंपूशैली में तीन प्रबंध काव्य रचे जिनके नाम "राजशेखरविलास", "शबरशंकरविलास", तथा "वृषभेंद्रविजय" हैं। "राजशेखरविलास" तथा "शबरशंकरविलास", में शिवलीला से संबंध रखनेवाली कहानियों का वर्णन किया गया है। "वृषभेंद्रविजय" की कथावस्तु बसव का जीवनवृत्त है।

इस युग में एक महान वीरशैव संत का अवतार हुआ। उनका असली नाम क्या था, इसका कुछ पता नहीं लगा है। इनका साहित्यिक उपनाम "सर्वज्ञ" था। इन्होंने "त्रिपदि" नामक छंद में अपनी अमृत वाणी सुनाई है। प्रत्येक छंद "सर्वज्ञ" शब्द के साथ समाप्त होता है और हिंदी के दोहे की तरह स्वतंत्र अर्थ रखता है।

इस अवधि में जैन धर्म का प्रभाव लुप्त हो चला था। फिर भी कुछ जैन मतावलंबी कवियों ने अपनी शक्ति भर कन्नड की सेवा की। जैन कवियों ने प्रचलित देशी काव्यशैलियों में काव्यरचना की। ऐसे कवियों में भास्कर, तेरकणांबि, बोम्मरस, शिशुमायण, तृतीययमंगरस, साल्व कवि तथा रत्नाकरवर्णि के नाम उल्लेखनीय हैं। इनमें रत्नाकरवर्णि सर्वश्रेष्ठ हैं, जिनकी कृतियों में "भरतेशवैभव" मुख्य है। प्रथम तीर्थकर आदिदेव के पुत्र भरत और बाहुबलि के उज्वल चरित्रों का वर्णन ही "भरतेशवैभव" की कथावस्तु है। पंत, हरिहर, कुमारव्यास जैसे कन्नड के महाकवियों की श्रेणी में रत्नाकरवर्णि का नाम भी लिया जाता है।

इस युग की अंतिम अर्थात् 19वीं शताब्दी में कुछ अच्छे कवि हुए। देवचंद्र नामक जैन कवि ने "रामकथावतार" लिखकर जैन रामायण परंपरा को आगे बढ़ाया। मैसूर (संप्रति कर्नाटक) के राजा मुम्मुडि कृष्णराज ओडियर के दरबारी कवियों में केंपुनारायण तथा बसवप्प शास्त्री ने संस्कृत एवं अंग्रेजी के कुछ नाटकों का अनुवाद प्रस्तुत करके कन्नड में नाटक साहित्य के निर्माण के लिए अनुकूल वातावरण तैयार किया। कालिदास के शाकुंतल आदि नाटकों का बसवप्प शास्त्री ने इतनी सफलता से अनुवाद किया कि वे "अभिनव कालिदास" के नाम से प्रसिद्ध हुए। केंपुनारायण ने मुद्रामंजूष" नामक, एक ऐतिहासिक उपन्यास लिखा। नंदवंश की कहानी इसकी कथावस्तु है जिसपर मुद्राराक्षस का प्रभाव लक्षित होता है। यही कन्नड का सर्वप्रथम उपन्यास है।

19वीं शताब्दी के अंत में मुद्दण नामक एक सफल कवि हुए जिन्होंने तीन सरस काव्य लिखे : "अद्भुत रामायण", "रामपट्टाभिषेक" और "रामाश्वमेध"। "अद्भूत रामायण" और "रामाश्वमेध" दोनों गद्य ग्रंथ हैं। इनके गद्य की यह विशेषता है कि प्राचीन कन्नड की प्रौढ़ता एवं मधुरता के साथ-साथ आधुनिक कन्नड की सरलता का परिचय मिलता है।

आधुनिक युग[संपादित करें]

कन्नड़ भाषा तथा संस्कृति को कर्नाटक के साहित्यकारों की क्या देन है स्पष्ट कीजिए? - kannad bhaasha tatha sanskrti ko karnaatak ke saahityakaaron kee kya den hai spasht keejie?

भारतीय जीवन के इतिहास में 19वीं शती का उत्तरार्ध अत्यंत महत्वपूर्ण है। चूँकि इस समय समान परिस्थितियों तथा प्रभावों से सारा भारतीय जीवन मथित तथा आंदोलित हुआ था, अत: यह कहा जा सकता है कि आधुनिक कन्नड साहित्य की गतिविधि की कहानी अन्य प्रादेशिक भाषाओं के साहित्य की कहानी से कुछ भिन्न नहीं हैं।

आधुनिक कन्नड साहित्य को प्रधानतया चार भागों में विभाजित किया जा सकता है जो इस प्रकार हैं:

  • (क) 1900 तक प्रथम उत्थान,
  • (ख) 1901 से 1920 तक द्वितीय उत्थान,
  • (ग) 1921 से 1940 तक तृतीय उत्थान, तथा
  • (घ) 1940 से अब तक चतुर्थ उत्थान।

आधुनिक कन्नड का प्रथम उत्थान[संपादित करें]

आधुनिक कन्नड का प्रथम उत्थान गद्य के साथ प्रारंभ होता है जिसके निर्माण में ईसाई मिशनरियों (प्रोटेस्टेंट) की सेवा उल्लेखनीय है। कहा जाता है, 1809 में रेवरेंड विलियम केरी ने बाइबिल का अनुवाद प्रस्तुत किया। लगभग 1831 में बळळारि तथा मंगलोर में मिशनरियों द्वारा मुद्रणालय स्थापित किए गए जिनके कारण कन्नड ग्रंथों की छपाई में सहायता मिली। प्राय: सन् 1823 में प्रकाशित कन्नड बाइबिल ही आधुनिक कन्नड का सर्वप्रथम गद्य ग्रंथ है। तदुपरांत ईसाई पादरियों ने अपने धर्म के प्रचार के हेतु कन्नड में पत्रपत्रिकाएँ प्रकाशित कराई जिनमें "सभापत्र", "सत्यदीपिके", तथा "कर्नाटक" मुख्य हैं। 19वीं शती की अंतिम तीन दशाब्दियों में कन्नड भाषा तथा साहित्य के अभिवर्धन के लिए महत्वपूर्ण कार्य हुआ। इधर दक्षिण कर्नाटक में कर्नाटक के राजाओं के प्रोत्साहन के फलस्वरूप कर्नाटक में प्राच्य पुस्तकालय तथा उधर धारवाड़ में कर्नाटक विद्यावर्धक संघ की स्थापना हुई। इन दोनों संस्थाओं की ओर से प्राचीन शिलालेखों तथा पांडुलिपियों के संग्रह, संपादन तथा प्रकाशन का कार्य प्रारंभ हुआ। बी.एल.राइस तथा आरॅ. नरसिंहाचार ने अनथक प्रयत्न करके "दि एपिग्राफ़िया कर्नाटिका" का बारह भागों में प्रकाशन कराया। राइस ने भट्टाकळंक के "शब्दानुशासन" नामक प्राचीन व्याकरण ग्रंथ का संपादन किया और उसकी प्रस्तावना में कन्नड साहित्य के इतिहास की रूप रेखा अंग्रेजी में पहली बार प्रस्तुत की। मंगलोर के बासेल मिशन के तत्वावधान में रेवरेंड एफ़. किट्टल नामक एक जर्मन पादरी ने 18 वर्ष निरंतर परिश्रम करके कन्नड पंडितों के सहयोग से "कन्नड अंग्रेजी बृहत्कोश" प्रकाशित कराया, साथ ही कन्नड के प्राचीन ग्रंथों का संग्रह एवं संपादन कार्य प्रारंभ किया। इसी अवधि में मद्रास विश्वविद्यालय की ओर से फ़ोर्ट सेंट कालेज में कन्नड सिखाने के उद्देश्य से पाठय पुस्तकें प्रकाशित की गई। इस प्रकार यद्यपि कन्नड भाषा तथा साहित्य के पुनरुद्धार के लिए स्तुत्य उद्योग हुआ, तो भी स्कूल कालेजों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होने के कारण कन्नड के प्रति जनता में जैसा आदर होना चाहिए था वैसा नहीं उत्पन्न हुआ।

द्वितीय उत्थान[संपादित करें]

1900 से 1921 ई. तक का काल अधिक निश्चित और विविध उपलब्धियों का काल है। पहली बार ऑर. नरहिंसाचार ने सन् 1907 में कन्नड साहित्य का एक बृहत् इतिहास "कर्नाटक कविचरिते" तीन भागों में प्रकाशित किया जिसमें एक सहस्र वर्षो के कन्नड के समस्त कवियों तथा उनकी कृतियों का प्रामाणिक इतिवृत्त प्रस्तुत हो गया। यद्यपि यह नहीं कहा जा सकता कि इस इतिहास में कवि और काव्य का मूल्यांकन आधुनिक आलोचना पद्धति के आधार पर किया गया है, फिर भी यह निश्चित है कि कन्नड साहित्य के अध्ययन, अध्यापन तथा शोध कार्य के लिए "कर्नाटक कविचरिते" द्वारा एक निश्चित आधारशिला प्रस्तुत हो गई। सन् 1915 में ई.पी. राइस ने अंग्रेजी में हिस्ट्री ऑव कनरीज़ लिटरेचर लिखकर पाश्चात्य दृष्टिकोण से कन्नड साहत्य के अध्ययन का मार्ग प्रशस्त किया। इस प्रकार प्रथम उत्थान में राइस के "दि एपिग्राफ़िया कर्नाटिका" के प्रकाशन के फलस्वरूप आधुनिक दृष्टिकोण से साहित्य का ऐतिहासिक अध्ययन प्रारंभ हुआ और नरहिंसाचार के "कर्नाटक कविचरिते" के निर्माण से कन्नड के साहित्यकारों की जीवनियों तथा उनकी कृतियों के आलोचनात्मक अध्ययन की निश्चित पृष्ठभूमि तैयार हुई। इसी समय एक ओर बँगलोर में कन्नड साहित्य परिषद् का जन्म हुआ और दूसरी ओर मैसूर विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। इन दोनों सस्थाओं के आश्रय में कन्नड भाषा एवं साहित्य के संवर्धन के लिए नया परिवेश प्रस्तुत हुआ।

तृतीय उत्थान[संपादित करें]

सन् 1921 से 1940 तक की अवधि में कन्नड का आधुनिक काल अपने स्वर्णयुग में प्रवेश करता है। इस तृतीय उत्थान के प्रारंभ में प्रो॰ बी. एम. श्रीकंठय्या, जो कर्नाटक में "श्री" अभिधान से लोकप्रिय हैं, कन्नड भाषा और साहित्य में नवोदय के अग्रदूत हुए। पाश्चात्य साहित्य के प्रभाव से कन्नड में भी आधुनिक साहित्य की विभिन्न विधाएँ प्रस्फुटित हो निबंध आदि सभी विधाएँ अपने सच्चे रूप में विकसित होने लगीं जिसके परिणामस्वरूप कन्नड का साहित्य सशक्त होकर जीवन को सही अर्थ में प्रतिबिंबित करने लगा।

कन्नड साहित्य का परिचय[संपादित करें]

कविता[संपादित करें]

कन्नड में आधुनिक कविता का प्रारंभ एक प्रकार से अंग्रेजी कविता के अनुवाद तथा अनुकरण के साथ-साथ हुआ। विशेष रूप से बी.एम. श्रीकंठय्या का अंग्रेजी कविताओं का कन्नड अनुवाद "इंगलीषु गीतेगलु" नवयुवकों के लिए भाषा, वस्तुविधान, शैली, छंद एवं अलंकारयोजना की दृष्टि से पथप्रदर्शक बन गया। इसी समय कर्नाटक के विविध भागों में कवियों की खासी मंडलियाँ स्थापित हुई, धरती का प्रेम तथा राष्ट्रीयता का पूरा भावलोक व्यक्त हुआ। प्रगाथा, विसापिका, गीतिकाव्य, सॉनेट गीत और भजन, वर्णनात्मक कविता, खंडकाव्य, वीरकाव्य, रोमांस, दार्शनिक कविता, गद्यगीत और स्वागतभाषण–ये और अन्य काव्यविभाग उत्कृष्ट आनंद और उच्च प्रेरणा से विकसित हुए। इस दल के कवियों में अनुभूति की गहराई, व्यापकता तथा कृतियों के परिमाण की दृष्टि से कुवेंपु (के.वी. पुट्टप्पा) तथा अंबिकातनयदत्त (द.रा.बेंद्रे) सर्वश्रेष्ठ कहे जा सकते हैं। लगभग बीस कवितासंग्रह तथा रामायणदर्शन नामक अतुकांत महाकाव्य कुवेंपु की अमर कीर्ति के आधारस्तंभ हैं। प्रधानतया बेंद्रे ने गीत ही रचे हैं। "गरि", "सखीगीत", "नादलीले", "अरुळ मरुळ" उनके गीतसंग्रहों में मुख्य हैं।

सन् 1930 में जिस प्रगतिशील आंदोलन का सूत्रपात हुआ उसने इस समय के साहित्य पर गहरा प्रभाव डाला। कविता के क्षेत्र में भी नई शक्ति का संचार हुआ। नए छंद और नए रचनाविधान की प्रतिष्ठा हुई।

लघुकथा[संपादित करें]

आधुनिक कन्नड़ा साहित्य में छोटी कहानी सबसे अधिक लोकप्रिय है। मास्ति वेंकटेश अयंगार (श्रीनिवास) आधुनिक कन्नड़ा कहानी साहित्य के पिता माने जाते हैं। उनकी कहानियों में दार्शनिकता, देशभक्ति, ऐतिहासिकता, ग्रामीण जीवन के चित्र, मनोवैज्ञानिक विश्लेषण, पारिवारिक चित्रण आदि तत्वों का बड़ा ही सुंदर समावेश हुआ है। कहानी के वस्तुविधान तथा शिल्पविधान की दृष्टि से इस समय कन्नड़ा की कहानी में विकासक्रम का स्पष्ट परिचय मिलता है।

उपन्यास[संपादित करें]

कन्नड़ा में बँगला और मराठी उपन्यासों के अनुवाद के साथ उपन्यास साहित्य के निर्माण में नई प्रेरणा का संचार हुआ। बी.वेंकटचार ने बंकिमचंद्र के उपन्यासों का सफल अनुवाद प्रस्तुत किया। गलगनाथ ने अनुवाद के अतिरिक्त "माधव करुण विलास" तथा "कुमुदिनी" नामक दो मौलिक ऐतिहासिक उपन्यास भी लिखे। फिर भी, गुल्वाडि वेंकटराव का लिखा "इंदिरादेवी" (1899) तथा एम.एस. पुट्टण्णा का लिखा "माडिदुण्णों महाराया" कन्नड़ा के सर्वप्रथम मौलिक उपन्यास माने जाते हैं। इस अवधि में कन्नड़ा में विशिष्ट उपन्यास लिखे गए जिनके कई उदाहरण आज भी मिलते हैं, जैसे बटगेरि के "सुदर्शन" में सामाजिक शिष्टाचार के उपन्यास, ए.एन. कृष्णराव के "संध्याराग" में चरित्रप्रधान उपन्यास, कस्तूरि के "चक्रदृष्टि" में व्यंग्यप्रधान उपन्यास, देवुड के "अंतरंग" में मनोवैज्ञानिक उपन्यास, शिवराम कारंत के "मरळि मण्णिगे" में कालप्रधान उपन्यास, मुगलि के "कारणपुरुष" में समस्याप्रधान उपन्यास। मास्ति का "चेन्नबसव" नामक, के.वी.अय्यर का "शांतला" तथा ए.एन. कृष्णराव का "नटसार्वभौम", त.रा.सु. का "हसंगीते", के. वी. पुट्टप्पा का "कानूर सुब्बम्म हेग्गडति", कारंत के "बेट्टद जीव" और "चोमनदुडि" गोकाक" का "समरस वे जीवन" आदि उपन्यास अपने विशिष्ट गुणों के कारण कन्नड़ा भाषाभाषियों के जीवन, संस्कृति तथा इतिहास के सच्चे प्रतिनिधि कहे जा सकते हैं। मिर्जी अण्णाराव, बसवराज, कट्टीमानी, कुळकुंद, शिवराव, इनामदार और पुराणिक भी आधुनिक कन्नड़ा के समर्थ उपन्यासकार हैं। कारंत का "मरलि मण्णिगे", के.वी. अय्यर का "शांतला", त.रा.सु. का "हंसगीते" का हिंदी रूपांतर प्रकाशित हो चुका है। कुवेंपु का "कानूर सुब्बम्म हेग्गडिति" अपने ढंग का अनूठा उपन्यास है।

नाटक[संपादित करें]

जिस प्रकार हिंदी के नाटक साहित्य और रंगमंच का मूल रूप रामलीला, कृष्णलीला, रासधारी मंडलियों के रूप में पाया जाता है उसी प्रकार कन्नड़ा के नाटक तथा रंगमंच का मूलरूप "यक्षगान", "बयलाट", "ताळमद्दले" के रूप में प्राप्त होता है। यक्षगान के लिए लिखे गए नाटक प्राय: पद्य में पाए जाते हैं। कन्नड के प्राचीन साहित्य के अंतर्गत सन् 1680 में लिखा हुआ सिंगरार्य का "मित्रविंदा गोविंद" कन्नड़ा का सर्वप्रथम नाटक माना जाता है। यह हर्ष की "रत्नावली नाटिका" के आधार पर लिखा हुआ रूपक है। आधुनिक कन्नड़ा में पहले पहल संस्कृत तथा अंग्रेजी नाटकों का अनुवाद प्रस्तुत किया गया। इन अनुवादकों में बसवप्प शास्त्री, नंजनगूड, श्रीकंठ शास्त्री एवं गहणि कृष्णाचार्य, रामशेष शास्त्री, अनंतनारायण शास्त्री, कवितिलक अप्पा शास्त्री, नरहरि शास्त्री के नाम उल्लेखनीय हैं। इस समय अनूदित नाटकों में उत्तररामचरित, रत्नावली, वेणीसंहार, विक्रमोर्वशीय, मुद्राराक्षस, नागानंद मृच्छकटिक, हरिश्चंद्र, शाकुंतल आदि मुख्य हैं। अनुवाद करने की कला में बसवप्पा शास्त्री ने इतनी सफलता पाई कि उन्हें कर्नाटक के तत्कालीन महाराजने "अभिनव कालिदास" की उपाधि से पुरस्कृत किया। आगे चलकर अंग्रेजी के प्रसिद्ध नाटकों का अनुवाद होने लगा। इसी समय कुछ नाटक कंपनियाँ भी स्थापित हुई जिनके लिए विशेष रूप से पौराणिक तथा कुतूहलवर्धक सामाजिक नाटक लिखे गए। ऐसे नाटकों में कृष्णलीला, रुक्मिणीस्वयंवर, लंकादहन, कृष्णपारिजात, सदार में, कबीरदास, जलंधर मुख्य हैं। कर्नाटक के प्रसिद्ध नट ए.बी. वरदाचार तथा गुब्बिवीरण्णा द्वारा कंपनियों के आश्रय में रंगमंच की ही नहीं, नाटय साहित्य की भी विशेष वृद्धि हुई।

अंग्रेजी साहित्य के अध्ययन के फलस्वरूप कन्नड़ा के नाटक साहित्य पर पाश्चात्य नाट्यकला का प्रभाव पड़ा। आधुनिक कन्नड़ा के प्रमुख साहित्यकारों ने भी नाटक रचकर उसकी श्रीवृद्धि में योग दिया। नाटक की वस्तुओं में विविधता दिखाई देने लगी। शेरिडन, ऑस्कर वाइल्ड और इब्सन जैसे पाश्चात्य लेखकों का अनुकरण करके कन्नड़ा में बड़े ही सुंदर, व्यंगात्मक, हास्य-रस-प्रधान नाटक रचे गए। ऐसे नाटकों में टी.पी. कैलासम के "होमरूल" तथा "टोल्लुगट्टि", श्रीरंग का "हरिजन्वार", कारंत का "गर्भगुडि", कुवेंपु का "रक्तक्षि" आदि नाम उल्लेखनीय हैं। दु:खांत नाटकों में, बी.एम. "श्री" के "अश्वत्थामन" और "गदायुद्ध" तथा कुवेंपु के "बेरल्गेकोरल" मुख्य कहे जा सकते हैं। रोमांटिक एवं सुखांत नाटकों में गोकाक के "युगांतर" जैसे नाटक पठनीय हैं। आधुनिक कन्नड़ा में एकांकी, गीतिनाटक, अतुतांक पद्यनाटक, संगीतरूपक (ऑपेरा), रेडियो नाटक आदि नाटक के विविध रूपों का भी प्रचलन हुआ है।

निबन्ध[संपादित करें]

निबंध आधुनिक कन्नड़ा साहित्य की एक महत्वपूर्ण विधा है। आधुनिक युग के द्वितीय उत्थान में आलूर वेंकटराव के "कर्नाटक गतवैभव" तथा पंडित तारानाथ के "धर्मसंभव" जैसे विचारात्मक ग्रंथों द्वारा आधुनिक कन्नड़ा की गंभीर गद्यशैली का मार्ग प्रशस्त हुआ। डी.वी. गुडप्पा के "साहित्यशक्ति", स.स. मालवाड के "कर्नाटक-संस्कृति-दर्शन", सिद्धवनहल्लि कृष्णशर्मा के गांधी साहित्य में विचारप्रधान गद्यशैली निखरने लगी। व्यंग्यात्मक निबंधों के लिए जी.पी. राजरत्नम्, ना. कस्तूरि, कारंत, बल्लारि बीचि की रचनाएँ उल्लेखनीय हैं। पी.टी. नरसिंहाचार के भावनाचित्र, प्रो॰ए.लुन. मूर्तिराव के हगएगनसुगलु एवं वामन भट्ट के कोदंडन उपन्यास गलु जैसे निबंधों में लघु वार्तालाप के सुंदर नमूने मिलते हैं। बेंद्रे के रेखाचित्र, टी.एन. श्रीकंठय्या और ए.एन. कृष्णराव के आलोचनात्मक निबंध, पुटटप्पा के वर्णनात्मक निबंध, गोकाक के पत्रात्मक तथा भौगोलिक सांस्कृतिक निबंध, मोटे तौर पर यह दर्शाते हैं कि इस क्षेत्र में कितनी और कैसी उपलब्धियाँ हुई हैं। डी.वी.गुडप्पा के "गोखले", पुट्टप्पा के "विवेकानंद", मधुचेत्र के "प्रिल्यूड" मास्ति के "रवींद्रनाथ ठागुर" राजरत्नम् के "दस वर्ष", दिवाकर के "सेरेमने", गोकाक के "समुद्रदाचेयिंद" आदि ग्रंथों में क्रमश: क्लासिकल जीवनचरित्, रोमांटिक साहित्यिक तथा सौंदर्यात्मक जीवनवृत्त, साहित्यिक डायरी, आदि निबंध के विविध रूपों के सुंदर नमूने हैं। वी. सीतारामय्या के "पंपा यात्रे", कारंत के "आबुविंद" और "बरामक्के", मान्वि नरसिंहराव के निबंध इत्यादि प्रवास संबंधी साहित्य के आदर्श प्रस्तुत करते हैं।

कोश[संपादित करें]

बच्चों का विश्वकोश बालप्रपंच लिखकर संभवत: भारतीय भाषाओं के साहित्यों के सम्मुख एक नूतन आदर्श उपस्थित करने का श्रेय कन्नड़ा के महान लेखक शिवराम कारंत को मिलना चाहिए। उन्होंने "ईजगत्त" के नाम से अपने विश्वकोश के प्रथम भाग का प्रकाशन कराया है और अन्य भागों के संपादन कार्य में अब वे निरंतर लगे हुए हैं।

समालोचना[संपादित करें]

रेवरेंड एफ. किट्टल, बी.एल. राइस तथा ऑर. नरसिंहाचार जैसे विद्वानों ने कन्नड़ा के प्राचीन ग्रंथों का शोध, संपादन तथा प्रकाशन कार्य ही नहीं किया अपितु आधुनिक काव्यविमर्श की भी पंरपरा चलाई। अंग्रेजी तथा प्राचीन संस्कृत काव्यशास्त्र का गंभीर अध्ययन करके कन्नड़ा में आलोचना साहित्य के लिए निश्चित मार्ग दर्शन करनेवालों में डी.वी. गुंडप्पा, मास्ति वेंकटेश अयंगार, ए.आर. कृष्णशास्त्री तथा एम. गोविंद पै मुख्य कहे जा सकते हैं। डी.वी. गुंडप्पा का जीवन सौंदर्य मतु साहित्य" और "साहित्यशक्ति", मास्ति का तीन भागों में प्रकाशित "विमर्शे", ए.ऑर. कृष्ण शास्त्री का "भाषणगळु मत्तु लेखनगळु", आधुनिक कन्नड़ा के आलोचना साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। डॉ॰ए. वेंकटसुब्बय्या तथा एम. गोविंद पै ने अपने शोधपूर्ण निबंधों में कन्नड़ा के प्राचीन कवियों के कालनिर्णय, वस्तुनिरूपण, भाषास्वरूप आदि पर गंभीर अध्ययन प्रस्तुत किया है। कन्नड़ा साहित्य परिषद् की छमाही पत्रिका "परिषत्पत्रिके" तथा मैसूर विश्वविद्यालय की त्रैमासिक पत्रिका "प्रबुद्ध कर्नाटक" में कन्नड़ा के कवि और काव्य पर आलोचनात्मक लेख गत पच्चीस तीस वर्षो से बराबर प्रकाशित होते आ रहे हैं। मैसूर विश्वविद्यालय तथा कन्नड़ा साहित्य परिषद् के तत्वावधान में पंप, कुमारव्यास, नागचंद्र, रन्न आदि प्राचीन कवियों पर उत्तम विमर्शात्मक ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं। साथ ही अन्यान्य साहित्य संघों की ओर से छोटे बड़े आलोचनात्मक निबंधों के संग्रह निकाले गए हैं। पी. जी. हलकट्टि, आर.आर. दिवाकर, एम. आर. श्रीनिवासमूर्ति जैसे विद्वानों ने क्रमश: "वचनशास्त्रसार", "वचनशास्त्ररहस्य", "वचनधर्मसार", तथा "भक्ति भंडारि बसवण्ण" नामक ग्रंथों में वीरशैव भक्त कवियों तथा उनकी कृतियों का गंभीर अध्ययन प्रस्तुत किया है। मुलिय तिम्मप्पया का "नाडोजपंप", शि.शि. बसवनाल का "प्रभुलिंगलीले", कुंदणगार का "हरिहर देव", महादेवियकक, आर.सी. हिरेमठ का "महाकविराघवांक", के.वी. राघवाचार का "यशोधरचरित", ए.आर. कृष्णशास्त्री का "संस्कृत नाटकगलु", "टी.एन. श्रीकंठय्या का "भारतीय काव्यमीमांसे और "काव्यसमीक्षे", कुवेंपु के "साहित्यविहार" तथा "तपोनंदन", "विभूतिपूजे", बेंद्रे का "साहित्यसंशोधने", गोविंद पै का "कन्नड़ा साहित्यद प्राचीनते", बेटगेरि का "कर्नाटक दर्शन", आर.एस. पंचमुखी का "हरिदास साहित्य", डॉ॰ कर्कि का "छंदोविकास", डी.एल. नरसिंहाचार द्वारा संपादित "शब्दमणिदर्पण", आर. एस.मुगळि का "कन्नड़ा साहित्यचरित्र" आदि ग्रंथ ऐसे महत्वपूर्ण हैं जिनके अध्ययन से कन्नड़ा भाषा एवं साहित्य की व्यापकता तथा गहराई पर स्पष्ट प्रकाश पड़ता है। सन् 1947 में मैसूर विश्वविद्यालय की ओर से एक "बृहत अंग्रेजी-कन्नड़ा-कोश" प्रकाशित हुआ। शिवराम कारंत का "कन्नड़ा अर्थकोश" तथा डी.के भारद्वाज का "कन्नड़ा-अंग्रेजी-कोश" उल्लेखनीय हैं। कर्नाटक राज्य सरकार तथा भारत सरकार के अनुदान से कन्नड़ा-साहित्य-परिषद् की ओर से एक बृहत कन्नड़ा कोश का संपादन कार्य चल रहा है।

शिशुसाहित्य[संपादित करें]

आधुनिक कन्नड़ा में शिशु साहित्य के निर्माण के लिए भी प्रशंसनीय कार्य हुआ है। इस दिशा में पहले पहल पंजेमंगेशराव ने "बाल-साहित्य-मंडल" नामक संस्था की स्थापना करके बालसाहित्य की वृद्धि में योग दिया। कुवेंपु, जी.पी. राजरत्न, दिनकर देसाई, होइसल, देवुडु नरसिंह शास्त्री, आदि अनेक आधुनिक कन्नड़ा के लेखकों ने बच्चों के लिए सुंदर गीत रचकर शिशुसाहित्य को लोकप्रिय बनाया है। कर्नाटक में बच्चों की शिक्षा के लिए शिशुविहार जगह-जगह स्थापित हुए हैं। "अखिल कर्नाटक मक्कलकूट", "चिक्कवरकणज" जैसी बच्चों की संस्थाओं के कारण शिशुसाहित्य के सृजन में विशेष प्रोत्साहन मिला है। मक्कल पुस्तक, नम्मपुस्तक कंद, चंदमामा, जैसी बच्चों की मासिक पत्रिकाओं के नाम उल्लेखनीय हैं।

लोकसाहित्य[संपादित करें]

कन्नड़ा के लोकगीतों तथा लोककलाओं के अध्ययन का कार्य भी प्रारंभ हुआ है। कर्नाटक में गत 300 वर्षो से अत्यंत लोकप्रिय लोककला "यक्षगान" पर शिवराम कारंत का लिखा हुआ "यक्षगान" वयलाट एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है जिसपर भारत सरकार ने 5,000 रुपए का पुरस्कार प्रदान किया है। मास्ति वेंकटेश अयंगार ने अपने "पापुलर कल्चर इन कर्नाटक" में कन्नड़ा के लोकसाहित्य का सुंदर परिचय दिया है। ग्रामगीतों के भी कई संग्रह प्रकाशित हुए हैं जिनमें बेंद्रे का "गरतियरहाडु", एल. गुंडप्पा का "हल्लियपदगलु", बी.एन. रंगस्वामी तथा गोरूर रामस्वामयंगार का "हल्लियहाडुगलु", मतिगट्ट कृष्णमूर्ति का "हल्लियपदगलु", तथा का.रा.कृ. का "जनपदगीतेगलु" उल्लेखनीय हैं।

विगत 60-70 वर्षो से कन्नड़ा में अध्यात्म, दर्शन, ज्योतिष, विज्ञान, भूगोल, इतिहास, अर्थशास्त्र, शिक्षा, प्राणिशास्त्र, गणित, आरोग्य, वैद्यक, शस्यशास्त्र, कृषि, चित्रकला, संगीतकला आदि विभिन्न विषयों पर ग्रंथनिर्माण का कार्य हुआ है। इधर कुछ वर्षो से हाई स्कूलों तथा कालेजों की पढ़ाई के लिए कन्नड़ा को माध्यम के रूप में स्वीकार किया जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न विषयों पर कन्नड़ा में पाठय पुस्तकें भी तैयार की जा रही हैं।

पत्र-पत्रिकाएँ[संपादित करें]

आधुनिक कन्नड़ा साहित्य की श्रीवृद्धि में कन्नड़ा की पत्रपत्रिकाओं का सहयोग कुछ कम महत्व का नहीं है। मंगलोर के बासेल मिशन के पादरियों को कन्नड़ा में सर्वप्रथम पत्रिका प्रकाशित करने का श्रेय दिया जाता है। इन पादरियों ने ईसाई धर्म के प्रचार के लिए सन् 1856 में वार्तिक" नामक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया। अंग्रेजी भाषा तथा साहित्य के प्रचार के साथ-साथ कर्नाटक के विभिन्न प्रदेशों से अनेक पत्रपत्रिकाओं का संपादन प्रारंभ हुआ। मैसूर के एम. वेंकटकृष्णय्या के परिश्रम के फलस्वरूप कन्नड़ा की प्रारंभिक पत्रिकाओं में हितबोधिनी, सुदर्शन, आर्यमतसंजीवनी, कर्नाटक काव्यकलानिधि, सुवासिनी, वाग्भूषण, विवेकोदय, सद्गुरु सद्बोधचंद्रिके, धनुर्धारी, मधुरवाणी, श्रीकृष्णसूक्ति तथा साधवनी के नाम उल्लेखनीय हैं। सन् 1921 के सर्वेक्षण के अनुसार कर्नाटक के विभिन्न प्रदेशों से कुल 66 पत्रपत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही थीं। आजकल की दैनिक पत्रिकाओं में संयुक्त कर्नाटक, प्रजावाणी, जनवाणी, तमिलनाडु तथा नवभारत मुख्य हैं। प्रजामत, कर्मवीर, जनप्रगति आदि साप्ताहिक पत्र लोकप्रिय हैं। कहानी संबंधी पत्रिकाओं में कतेगार, कथांजलि, कथाकुंज, कोरवंजी तथा मासिक पत्रिकाओं में जीवन, कस्तूरि, जय कर्नाटक आदि उल्लेखनीय हैं।

कन्न्ड साहित्य और समाज[संपादित करें]

आधुनिक कन्नड के प्रथम तथा द्वितीय उत्थान में राष्ट्रीयता का स्वर मुखरित हुआ। उसके बाद समाजसुधार तथा दलित जातियों के उद्धार की भावना जोर पकड़ने लगती है। पौराणिक विषयों तथा पात्रों का मानवीकरण एक महत्वपूर्ण विषय है। प्रकृति के प्रति रोमांटिक दृष्टिकोण पूरी तरह से व्यक्त हुआ है। नवीन लेखक के कई महत्वपूर्ण सिद्धांतों में एक आत्माभिव्यंजना है। मनुष्य के व्यक्तित्व की महानता तथा उसकी पवित्रता पर सर्वत्र आग्रह दिखाई देता है। लेखकों के लिए यह नया साक्षात्कार था कि साहित्य व्यक्तित्व की अभिव्यंजना होकर स्वयं पूर्णता को प्राप्त होता है। गीत और निबंध, उपन्यास और नाटक इत्यादि भी इसी व्यक्तिवाद से अनुप्राणित हुए हैं। यथार्थवादी लेखकों ने सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक संस्थाओं के झूठे विश्वासों तथा खोखलेपन का पर्दाफाश किया है। प्रगतिशील साहित्यकारों ने प्रधानतया समाज की दुव्र्यवस्था की समस्या को माक्र्सवादी विचारधारा के आधार पर हल करने का प्रयत्न किया है। रूढ़िवादी लेखक अपने सुप्रतिष्ठित विश्वास के मूल्य में आस्था रखते हैं। लेखकों का एक वर्ग वह है जिसने काव्यात्मक धार्मिक अनुभूतियों की सुंदर व्यंजना की है। ऐसे भी कतिपय लेखक हैं जिनका चरम उद्देश्य सौंदर्यजगत् में साहसपूर्ण अभियान है। लेखकों की एक आस्तिक धारा भी है जिसमें नीति तथा विचारपूर्ण दार्शनिकता की ध्वनि मुखरित है। इस धारा के लेखकों पर रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद एवं अरविंद के जीवनदर्शन का गहरा प्रभाव लक्षित होता है। इस दल की कृतियों में बुद्धिवाद और रहस्यवाद, सौंदर्यवाद और समाजवाद, कर्म और ज्ञान जैसे परस्पर विरोधी तत्वों, का समाहार हुआ है। इस प्रकार विविध विचारधारा के लेखकों ने साहित्य की विभिन्न विधाओं के माध्यम से कन्नड भारती को सजाया है। इन विभिन्न विचारधाओं से जिस साहित्यसंगम की सृष्टि हुई है उसके समष्टिरूप में से एक मानवतावादी उज्वल जीवनदर्शन प्रकाशित हुआ है जिसका कालांतर में व्यापक प्रभाव अवश्य लक्षित होगा।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. Ramanujan, A. K. (1973), Speaking of Śiva Harmondsworth: Penguin, p. 11, ISBN 0-14-044270-7
  2. R.S. Mugali (2006), The Heritage of Karnataka, pp. 173–175 ISBN 1-4067-0232-3
  3. Kannada literature. (2008). Encyclopædia Britannica: "The earliest records in Kannada are full length inscriptions dating from the 5th century AD onward. The earliest literary work is the Kavirajamarga (c. AD 850), a treatise on poetics based on a Sanskrit model."
  4. David Crystal's Dictionary of Language, (Crystal 2001, p. 177), "... with inscriptions dating from the late 6th century AD, ...
  5. Other scholars have dated the earliest Kannada inscription to 450 A.D.(Master 1944, pp. 297–307), 500 A.D. (Mugali 1975, p. 2), and "about 500" (Pollock 1996, pp. 331–332). Epigraphist G. S. Gai has dated it to the "end of the fifth century A. D. or the beginning of the 6th century A.D." (Gai 1992, pp. 300–301); epigraphist, D. C. Sircar to "about the end of the 6th century," ( Sircar 1965, पृष्ठ 48)
  6. Zvelebil (2008), p.2
  7. Steever, S.B. (1998), p. 129; Krishnamurti (2003), p. 23; Pollock (2007), p. 81; Sahitya Akademi, Encyclopaedia of Indian Literature, vol. 2 (1988), p. 1717
  8. Kittel in Rice E.P. (1921), p. 14
  9. Sastri 1955, pp. 355–365
  10. Narasimhacharya (1934), pp. 17, 61
  11. Narasimhacharya (1934), pp. 61–65
  12. Rice E. P, (1921), p. 16

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

कन्नड़ भाषा तथा संस्कृति को कर्नाटक के साहित्यकारों की क्या देन है?

कन्नड साहित्य को मुख्यतः तीन साहित्यिक कालों में बांटा जाता है- प्राचीन काल (450–1200 CE), मध्यकाल (1200–1700 CE) तथा आधुनिक काल (1700 से अब तक)। कन्नड साहित्य की एक विशेष बात यह है कि इसमें जैन, वीरशैव और वैष्णव तीनों सम्रदायों ने साहित्य रचना की जिससे मध्यकाल में तीन स्पष्ट धाराएँ दिखतीं हैं।

कर्नाटक के साहित्यकारों ने कन्नड़ साहित्य को समृद्ध बनाया है कैसे स्पष्ट कीजिए?

अक्कमहादेवी, अल्लमप्रभु, सर्वज्ञ, जैसे अनेक संतों ने अपने अनमोल वचनों द्वारा प्रेम, दया और धर्म की सीख दी है। पुरंदरदास, कनकदास आदि भक्त कवियों ने भक्ति, नीति, सदाचार के गीत गाये हैं। पम्प, रन्न, पौन, कुमारव्यास, हरिहर, राघवांक आदि ने महान् काव्यों की रचना कर कन्नड साहित्य को समृद्ध बनाया है।

कन्नड़ भाषा की लिपि का नाम क्या है?

कन्नड लिपि ब्राह्मी से व्युत्पन्न एक भारतीय लिपि है जिसका प्रयोग कन्नड लिखने में किया जाता है।

19 कन्नड़ के ज्ञानपीठ पुरस्कृत साहित्यकार कौन कौन हैं?

कन्नड़ भाषा के मशहूर लेखक अनंतमूर्ति की रचनाओं का अँगरेज़ी में अनुवाद हुआ और वह कन्नड़ साहित्य के नए आंदोलन 'नव्या' के प्रणेता रहे. अनंतमूर्ति को 1994 में कन्नड़ साहित्य में उनके योगदान और आम आदमी के लिए लिखने की उनकी नई सोच के लिए साहित्य क्षेत्र के सर्वोच्च पुरस्कार ज्ञानपीठ से नवाजा गया.