भारतीय परिप्रेक्ष्य में जेण्डर
संवेदी शिक्षक-प्रशिक्षण की आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से हैं Show
(1) सरकार बालिकाओं की शिक्षा को विशेष
महत्त्व देने के लिए वचनबद्ध है। यह स्वीकार करती है कि यदि सार्वजनिक प्रारम्भिक शिक्षा को
यथार्थ रूप में साकार करना है तो बालिकाओं की प्रवेश संख्या को बढाना होगा तथा उनकी स्कूल
छोड़ने की दर को कम करना होगा। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए संक्रमण काल में विभिन्न
पद्धतियों को अपनाना होगा; जैसे-औपचारिक, अनौपचारिक, (2) स्कूलों के लिए प्रावधान करना ही पर्याप्त नहीं होगा। उन कठिनाइयों पर सर्वोच्च ध्यान दिया जाएगा जिनके कारण बालिकाएँ स्कूल में उपस्थित होने से रोक दी जाती हैं। घरेलू काम
के बोझ को ढ़ोने तथा कई घण्टों तक काम करने के बाद थक जाने से, बालिकाओं के प्रति स्कूल में
विशेष ध्यान रखे जाने की आवश्यकता है। बालकों को विशेषकर बालिकाओं की स्कूल में उपस्थिति बनाए रखने के लिए स्कूल के वातावरण को सुखद एवं सुरक्षित बनाना, शिक्षण कार्य को आनन्दमय बनाना आवश्यक
है। । (3) जिन बालिकाओं के ऊपर अपने छोटे भाई-बहनों की देखरेख की जिम्मेदारी है, उनके लिए स्कूल या शिशुपालन सम्बन्धी सुविधाएँ उपलब्ध करवाई जानी चाहिए, जिससे ऐसी बालिकाओं के लिए स्कूल में प्रवेश व लम्बे अन्तराल तक शिक्षा सम्भव हो सके। (4)
महिलाओं के सकारात्मक चित्रण को प्रोन्नत करने, परिवार एवं समाज के भीतर उनके योगदान को स्वीकार करने तथा
उनके अधिकारों को सम्मान देने की दृष्टि से विद्यमान पाठ्यपुस्तकों एवं शैक्षिक सामग्री की समीक्षा
करना। (5) बालिकाओं एवं महिलाओं के लिए आदर्श भूमिका प्रस्तुत करने की दृष्टि से, (6) बालिकाओं की विशेष स्थिति के बारे में समस्त अध्यापकों, महिलाओं एवं पुरुषों का आमुखीकरण करना, जेण्डर
मुद्दों के प्रति उन्हें संवेदनशील बनाना तथा बालिका शिक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करने के लिए उन्हें
सक्षम व समर्थ बनाना। (7) महिला शिक्षकों एवं शैक्षिक कार्यकर्ताओं के लिए अतिरिक्त प्रशिक्षण कार्यक्रम
आयोजित करना ताकि नियमित सेवा पूर्व एवं सेवान्तर्गत प्रशिक्षण के लिए उन्हें तैयार किया जा सके।
पुरुषों की तरह उन्हें भी समान स्तर पर लाने के लिए यह कदम अति आवश्यक है। (8) सभी कार्यकर्ताओं के लिए जेण्डर प्रशिक्षण चाल करना। (9) विद्यालयों में एवं अभिमानित पंचायतों में
बालिकाओं एवं उनके माता-पिताओं के लिए व्यावसायिक एवं कैरियर गाइडेंस की व्यवस्था करना। भारतीय समाज में लिंग असमानता के कारणों पर चर्चा करें तथा सुधारात्मक उपाय भारत में लैंगिक असमानता/विषमता प्राचीनकाल से ही है परन्तु आजकल लैंगिक विषमता काफी बढ़ रही है। इसके प्रमुख कारण
निम्नलिखित है लैंगिक असमानता/विषमता के कारण(1)पितृसत्ता-भारतीय समाज में पितृसत्ता की भावना सदैव से मानी जाती है। समाज में पुरुष को सबसे अधिक महत्त्व दिया जाता है इसलिए परिवारों में पुत्र जन्म को सबसे अधिक महत्त्व देकर पुत्र के जन्म पर खुशियाँ मनाई जाती है। लड़की को पराया धन मानकर उसके लालन-पालन पर भी विशेष ध्यान नहीं दिया जाता है। शिक्षा की दृष्टि से भी बालिका शिक्षा व महिला शिक्षा दर बहुत कम है। (2) स्त्रियों की उपेक्षाअनेक सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक कारणों से स्त्री शिक्षा की
उपेक्षा की गई। समाज में यह धारणा बन गई कि स्त्री शिक्षा अनावश्यक है। शिक्षा के अभाव
में स्त्रियाँ अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं बन सकी। वे परिवार की चार दीवारी तक ही
सीमित रही। पुरुषों ने एक-एक करके उनके सब अधिकार छीन लिए। अशिक्षा के कारण महिलाएँ
अंधविश्वासों व कुरीतियों और रुढ़ियों में फँस गई । इसका परिणाम यह हुआ कि पुरुषों की तुलना में
महिलाएँ पीछे रहने लगी। (3) हिन्दू आदर्शहिन्दू समाज में विवाह एक धार्मिक संस्कार
माना जाता है। कन्यादान को विशेष महत्त्व दिया जाता है। समाज में पति परमेश्वर की धारणा
विद्यमान है। इस प्रकार 'कन्यादान' की भावना ने लड़की को भी एक वस्तु की तरह
माना है। दान से प्राप्त वस्तु पर प्राप्तकर्ता का पूर्ण अधिकार माना जाता है। वह चाहे
उसका उपयोग कैसे ही करें। इससे महिलाओं के अधिकार समाप्त हो गए। विवाह के बाद तो
वह ससुराल की दासी ही बन गई। पति परमेश्वर की भावना से ही पति की मृत्यु के बाद सती परम्परा बनी। जिसे अंग्रेजों के शासन काल में कानून के जरिए समाप्त कर दिया गया है। (4) वैवाहिक कुरीतियाँसमाज में बाल विवाह की प्रथा थी जो छुट-पुट रूप में अभी
भी देखी जाती है। वैसे सरकार ने बाल विवाह पर रोक लगा दी है। बाल विवाह
के कारण लड़कियों की शिक्षा नहीं होती थी। शिक्षा के अभाव में उनके व्यक्तित्व का पूर्ण
विकास नहीं होता था। विवाह में दहेज प्रथा के कारण भी परिवार में लड़कियों के साथ लड़कों
की तरह व्यवहार नहीं किया जाता है। दहेज प्रथा बंद है परन्तु अप्रत्यक्ष रूप से यह अभी
भी चालू है। (5)संयुक्त परिवार प्रथाभारत में हिन्दू परिवारों में संयुक्त
परिवार प्रथा रही है जो कहीं-कहीं अभी भी है। नौकरियों के कारण अब परिवार एकांकी बनने
लगे है। संयुक्त परिवार व्यवस्था में स्त्रियों को कोई अधिकार नहीं थे। परिवार की सम्पत्ति पर
पुरूषों का ही अधिकार माना जाता था। स्त्रियों का काम बच्चों की देखभाल करना और परिवार के
वृद्धजनों की सेवा करना ही होता था। (6) पुरुषों पर आर्थिक निर्भरताप्रायः देखा जाता
है कि महिलाएं अपने जीवनयापन के लिए पुरुषों पर ही आश्रित थी। युवावस्था में पति पर तथा
वृद्धावस्था में पुत्रों पर आश्रित रहना ही उनकी नियति थी। बचपन में माता-पिता पर आश्रित
रहती थी। पुरुषों पर आश्रित रहने के कारण स्त्री का जीवन सदैव परावलम्बी रहा है। इसी
कारण समाज में सदैव उनके साथ असमानता का व्यवहार रहा है। लिंग असमानता दूर करने हेतु सुधारात्मक उपाय–लिंग समानता लाने के लिए हम निम्नलिखित उपाए
कर सकते हैं (1)जनसंचार माध्यमों द्वारा जागरूकता पैदा करना (To create an awarness through means of mass communication)समाज में लिंग समानता के लिए रेडियो, टी.वी. जैसे जनसंचार साधनों द्वारा ऐसे कार्यक्रम
दिखाए जाएँ जिसमें महिलाओं को उनकी परम्परागत भूमिका से भिन्न भूमिका दी जाए। महिलाएं नौकरी करते
हुए दिखाई जाएँ, पुरुषों को घर के कामकाज में सहयोग करते दिखाया जाए। लिंग भेद को दूर
करने के लिए बनाई गई संवैधानिक व्यवस्थाओं व कानून के विषय में जानकारी दी जाए। (2) कानून (Law)भारतीय समाज में लिंग भेद का अनुभव करते हुए कानून के द्वारा इसे
दूर किया जाए। संविधान में दिया गया है कि राज्य, धर्म, लिंग, जन्म, स्थान आदि के आधार
पर नागरिकों में कोई भेद नहीं करेगा। समान कार्य के लिए स्त्री-पुरुष को समान वेतन देने
की (3) परस्पर सहयोग (Mutual Cooperation)भारत में लिंग समानता के लिए संगठन व आयोग कार्यरत हैं; जैसे—महिला आयोग, महिला संगठन
व राष्ट्रीय व राज्य मानवाधिकार आयोग। इसके अतिरिक्त सरकारी, गैर-सरकारी तथा अर्द्ध-सरकारी संगठन भी
प्रयासरत हैं। अच्छा यह होगा कि ये सभी संगठन आपसी सहयोग से कार्यरत हों, तभी ये सभी
सफल हो सकते हैं। (4) महिला सशक्तिकरण (Women empowerment)महिलाओं को सशक्त बनाए बिना लिंग
समानता नहीं आ सकती। नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ. अमर्त्य सेन ने स्त्री व पुरुष में असमानता
के सात कारण बताए हैं। जो कि इस प्रकार हैं-नैतिकता, उत्पत्ति क्रम, बुनियादी सुविधाएँ, विशेष
अवसर, व्यवसाय, प्रभुत्व व परिवार से सम्बन्ध । इन्हें दूर करके ही महिला सशक्तीकरण सम्भव है।
उन्हें अपनी मानसिकता भी बदलनी होगी। (5) मुस्लिम समाज की सोच में परिवर्तन (Change in thinking of Muslim community)मुस्लिम समुदाय में महिलाओं की दशा अत्यधिक शोचनीय है । उन्हें शिक्षित करना
व आर्थिक आजादी देना मुस्लिम समुदाय नहीं चाहता। हालांकि पैगम्बर मोहम्मद का कथन है-"यदि तुमने एक पुरुष को पढ़ाया तो एक व्यक्ति को पढ़ाया और यदि एक महिला को पढ़ाया तो पूरे परिवार को
पढ़ाया।" आज भी मुस्लिम महिलाएँ निरक्षरता व पर्दा-प्रथा के चलते बदहाली का शिकार हैं।
अत: लिंग समानता के लिए मुसलमानों की सोच को बदलना होगा। (6) शिक्षा (Education)शिक्षा लिंग समानता लाने का सबसे सशक्त साधन है। शिक्षा पुरुषों की सोच को बदल सकती
है कि वे महिलाओं को आदर व समानता की दृष्टि से देखें। महिलाएँ भी हीन-भावना को दूर
कर आत्मगौरव का अनुभव कर सकती हैं। शिक्षा ही महिलाओं में आत्मविश्वास पैदा करती है।
स्वयं को स्वावलम्बी बनने, सफलता के आयाम स्थापित करने के योग्य बनाती हैं। शिक्षा द्वारा ही
लिंग भेद को समाप्त कर जेण्डर समानता स्थापित की जा सकती है। लैंगिक/असमानता विषमता को दूर करने में विद्यालय की भूमिका—लैंगिक विषमता में कमी लाने
में विद्यालयों का स्थान महत्त्वपूर्ण है। जिस प्रकार परिवार का महत्त्व किसी बालक के विकास में
होता है ठीक उसी प्रकार औपचारिक शिक्षा के केन्द्र विद्यालयों के बिना किसी बालक के सर्वांगीण विकास
की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। विद्यालय को अब समाज का लघु रूप माना जाता
है जिसके कारण विद्यालयों में वे समस्त कार्य तथा गतिविधियाँ आयोजित की जाती हैं जो समाज में की
जाती हैं। विद्यालय वर्तमान में केवल अध्ययन-अध्यापन के कार्य तक ही सीमित नहीं
है, अपितु सामाजिक दोषों, कुरीतियों तथा अन्धविश्वासों को समाप्त करने में भी इनकी अग्रणी भूमिका है।
लैंगिक विषमता को समाप्त करने और जागरूकता लाने में विद्यालय की भूमिका निम्न प्रकार है 1. विद्यालयों की जनतंत्रीय स्वरूप-लैंगिक विषमता दूर करने में विद्यालय अपनी भूमिका निर्वहन विद्यालयी परिवेश को
जनतंत्रीय बनाकर करते हैं । जनतांत्रिक व्यवस्था में सभी व्यक्ति समान होते हैं। भारतीय संविधान भी अपनी सभी नागरिकों को स्वतन्त्रता, समानता तथा न्याय के साथ-साथ अधिकार प्रदान करता है। इसमें
जाति, धर्म, जन्म, स्थान तथा लिंगादि के 2. सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास-वर्तमान विद्यालयों में बालकों को खाली बर्तन
मानकर ज्ञान को ढूंसने की अपेक्षा ज्ञान के प्रकाश को उनके भीतर निहित माना जाता है।
विद्यालय बालक हो या बालिकाएँ, उनकी अन्तर्निहित शक्तियों-शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, सांवेगिक तथा आध्यात्मिक आदि का
समन्यात्मक विकास करने का कार्य करते हैं, जिससे धैर्य तथा विवेकयुक्त सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास होता
है। सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास द्वारा विद्यालय लैंगिक मुद्दों पर समान तथा सकारात्मक विवेकपूर्ण दृष्टि का
विकास करते हैं जिसके कारण लैंगिक विषमता का भेदभाव समाप्त होने में सहायता प्राप्त होती है। 3.व्यक्तिगत विभिन्नता–प्रत्येक बालक या बालिका स्वयं में विशिष्ट होता है, क्योंकि उनमें कुछ व्यक्तिगत
विभिन्नताएँ विद्यमान होती हैं, अन्यों की अपेक्षा । व्यक्तिगत विभिन्नता का सिद्धान्त विद्यालयों में बालकों तथा
बालिकाओं दोनों पर समान रूप से लागू होता है जिससे बालक-बालिका अर्थात् लिंग विषयक विषमता नहीं
पनपने पाते हैं। 4. व्यावसायिक शिक्षा-विद्यालयों में व्यावसायिक शिक्षा प्रदान की
जाती हैं और बालिकाओं की रुचियों तथा आवश्यकताओं के अनुरूप उनकी व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था विद्यालय करते
हैं, जिससे लैंगिक विषमता में कमी आ रही हैं क्योंकि व्यावसायिक शिक्षा उन्हें सशक्तीकरण की ओर अग्रसर
करती है। 5.मनोवैज्ञानिकतापूर्ण वातावरण-विद्यालयी वातावरण शिक्षार्थियों के मनोवैज्ञानिक पर आधारित
होता है और ऐसे वातावरण में अधिगम सरल तथा प्रेरणादायक होता है, जिससे बालिकाओं में मनोवैज्ञानिक सुरक्षा
के भाव का विकास होता है। इस प्रकार विद्यालय अपने मनोवैज्ञानिकतापूर्ण वातावरण के द्वारा भी लैंगिक विषमता
को कम करते हैं। 6. वयस्क शिक्षा की व्यवस्था-विद्यालय निरक्षरों को साक्षर
बनाने, व्यावहारिक कुशलता लाने के लिए व्यस्क शिक्षा (Adult Education) की व्यवस्था करते हैं, जिससे समाज
में जागरूकता आती है और लड़कियों को लड़कों के ही समान स्थान प्रदान किया जाता है। 7.सह-शिक्षा की व्यवस्था विद्यालयों में सह-शिक्षा का प्रचलन अब देखा जा रहा है जिसे
भारतीय समाज भी स्वीकार कर रहा है। सह-शिक्षा के द्वारा बालक-बालिकाएँ साथ साथ शिक्षा ही नहीं
ग्रहण करते, अपितु सहयोग करना, एक-दूसरे के गुणों तथा उनकी समस्याओं से अवगत होते हैं, जिससे
परिवार लिंग के प्रति स्वस्थ वैचारिक आदान-प्रदान होता है, सुरक्षा का विस्तार, संवेगात्मक सहयोग
का विकास तथा कुण्ठाओं और भावना ग्रन्थियों का जन्म नहीं होता। सह-शिक्षा के द्वारा
बालक-बालिकाओं को सम्मान और सुरक्षा प्रदान करते हैं, जिससे लिंगी दुर्व्यवहार तथा असमानता का भाव
मिटता है। 8. सामूहिकता की भावना का विकास-विद्यालय भले ही व्यक्तिगत विभिन्नता का
आदर करते हों, परन्तु वे सामूहिकता की भावना के उद्देश्य को प्रमुखता देते हैं । विद्यालय में
इस भावना के विकास हेतु विभिन्न कार्य दिये जाते हैं जो जाति, धर्म, अमीर-गरीब या लिंग देखकर
नहीं दिये जाते। इस प्रकार एक-दूसरे के सहयोग से भावी जीवन में भी साथ-साथ काम
करने, जीवनयापन करने की कला का विकास होता है और लिंगीय विषमता कम होती हैं। 9.शिक्षण उद्देश्य, पाठ्यक्रम, अनुशासन तथा शिक्षणविधियों द्वारा विद्यालयों में प्रवेश बिना किसी भेदभाव के
लिया जाता है तथा शिक्षण उद्देश्यों में सभी के लिए एक समानता होती है। पाठ्यक्रम में
बालिकाओं की रुचियों, स्त्रियों के त्याग, धैर्य तथा वीरता की कथायें और उनकी और उनकी उपलब्धियों का
वर्णन होता है। प्रभावी तथा सामाजिक अनुशासन के द्वारा बालिकाओं का आदर करना, गत्यात्मक शिक्षण विधियों
के प्रयोग द्वारा भी लैंगिक विषमताओं को कम करने का प्रयास विद्यालय द्वारा किया जा रहा
है। 10. प्रशिक्षित शिक्षक-शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों के द्वारा आदर्श शिक्षक के गुण,
अधिगम की प्रभाविता, विद्यालय तथा समाज के मध्य सम्बन्ध, लैंगिक मुद्दों पर जागरूकता इत्यादि का ज्ञान और प्रशिक्षण
प्रदान किया जाता है जिससे शिक्षक में उदारता का दृष्टिकोण और नवीन विचारों का सृजन होता
है। प्रशिक्षित शिक्षक विद्यालय और अपने सम्पर्क के परिवेश में लैंगिक विषमताओं को नहीं पनपने देते
हैं। 11. अन्य अभिकरणों से सहयोग-विद्यालय को वर्तमान युग में समाज और राष्ट्र निर्माता
कहा जाता है। किसी भी देश की दिशा और दशा का निर्धारण वहाँ के विद्यालय करते
हैं। विद्यालयों को लैंगिक मुद्दों पर अपनी सशक्त भूमिका के निर्माण के लिए अन्य अभिकरणों,
जैसे–परिवार, समाज, समुदाय तथा राज्य आदि से सहयोग प्राप्त करना चाहिए। लैंगिक विषमता को दूर करने में मीडिया की भूमिका–वर्तमान में मीडिया एक शक्तिशाली स्रोत
है। इसी कारण मीडिया लैंगिक विषमता को दूर करने में एक सक्रिय एवं सार्थक भूमिका निभा
सकता है। महिलाओं से जुड़ी समस्याओं को जन सामान्य के सामने लाकर उनका समाधान ढूँढ़ सकता
है तथा विभिन्न क्षेत्रों; जैसे—शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, न्याय आदि में महिलाओं के लिए एक सकारात्मक वातावरण
बना सकता है। मीडिया के
माध्यमों द्वारा महिलाओं को विचार स्वतंत्रता हेतु मंच प्रदान किया जा रहा है जो उनसे सम्बन्धित मुद्दों
पर न्याय पाने और न्याय नहीं मिलने जैसी दोनों ही स्थिति में व्यवस्था पर दबाव समूह के
रूप में कार्य करती है, मीडिया चैनलों में समाचार संवाददाता, समाचार एंकर और समाचार निर्माता जैसे चुनौतिपूर्ण
उत्तरदायित्व द्वारा सम्पूर्ण समाज के अनेक सक्षम नेतृत्व और प्रतिनिधित्व के प्रति एक सकारात्मक माहौल का
निर्माण कर समाज के सामने अनुकरणीय आदर्श उपस्थित कर रहा है। महिलाओं से सम्बन्धित कानून और कल्याणकारी योजनाओं की जानकारी महिलाओं तक पहुँचाने, उनके
सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और शैक्षणिक अधिकारों की बात करने, उनका समर्थन करने, महिला सशक्तिकरण को अपनी
मूल्यवान, सक्रिय और प्रतिभाशाली भूमिका और समाज में अपनी पहचान सालों के आधार पर नहीं बल्कि हर
घंटे के आधार पर दिये जा रहे अंजाम के रूप में देखा, सुना और पढ़ा जा सकता
है। लिंग समानता की आवश्यकतालिंग समानता की समझ को विकसित करने में शिक्षक का योगदान लिंग समानता की आवश्यकता एवं महत्त्व लिंग
समानता की आवश्यकता एवं महत्त्व भारतीय समाज में लिंग समानता की आवश्यकता एवं महत्त्व निम्न प्रकार से
हैं लिंग समानता का प्राप्त करने में अध्यापक की भूमिकाRole of a Teacher in achieving Gender Equality) (1) कक्षा में लड़कों
व लड़कियों पर समान ध्यान दें।वह ध्यान रखें कि लड़कियाँ एक ओर दुबक कर न
बैठी रहें, वरन् कक्षा की प्रत्येक गतिविधि में समान रूप से भाग लें। लिंग समानता को विकसित करने में परिवार की भूमिकालिंग समानता को विकसित
करने में परिवार की भूमिका समाज में जाति, भाषा, धर्म, रंग, प्रजाति, देश, जन्मस्थान आदि के आधार
पर मनुष्य, मनुष्यों से भेदभावपूर्ण व्यवहार सदियों से करता आया है। इसी प्रकार का एक भेदभाव
है लैंगिकता को लेकर किया जाने वाला भेदभाव। स्त्री-पुरुष दोनों ही ईश्वर की अमूल्य कृतियाँ
हैं या यूँ कहें कि एक व्यक्ति की दोनों आँखों के समान हैं, फिर भी स्त्रियों को सदैव
पुरुषों की अपेक्षा नीचा समझा जाता है। उनसे सम्मानपूर्ण तथा बराबरी का व्यवहार नहीं किया जाता
है। चूंकि कोई भी व्यक्ति के विचारों, आदर्शों, मान्यताओं तथा दृष्टिकोणों की नींव परिवार में पड़ती
है। अत: इस ज्वलन्त समस्या का समाधान भी पारिवारिक पृष्ठभूमि में खोजने का प्रयास इन बिन्दुओं
के अन्तर्गत किया जा रहा है 1.सर्वांगीण विकास का कार्यपरिवार को अपने सभी
बच्चे, चाहे वे लड़की हों या लड़के, सर्वांगीण विकास के प्रयास का कार्य करना चाहिए, जिससे उनमें
किसी प्रकार की हीनता का भाव न पनप पायें। जिन बालकों को सर्वांगीण विकास नहीं होता,
उनमें हीनता की भावना व्याप्त रहती है और वे विकृत मानसिकता से शिकार होकर लैंगिक भेदभावों को
जन्म देते हैं तथा महिलाओं के प्रति संकीर्ण विचार रखते हैं। 2. समानता का व्यवहार--परिवार में यदि लड़के-लड़कियों के प्रति समानता का व्यवहार किया जाता है तो ऐसे परिवारों में लिंगीय
भेदभाव कम होते हैं। समानता के व्यवहार के अन्तर्गत लडके-लडकियों को पारिवारिक कार्यों में समान
स्थान, समान शिक्षा, रहन-सहन और खान-पान की सुविधाएँ प्राप्त होनी चाहिए, जिससे प्रारम्भ से ही
बालकों में श्रेष्ठता का बोध स्थापित न हो और वे बालिकाओं और भविष्य में महिलाओं के साथ समान
व्यवहार करेंगे। पारिवारिक सदस्यों को चाहिए कि वे लिंगीय टिप्पणियाँ, भेदभाव तथा शाब्दिक निन्दा और दुर्व्यवहार
कदापि न करें, क्योंकि बालक जैसा देखता है वह वैसा ही अनुकरण करता है। इस प्रकार परिवार
में किया जाने वाला समानता का व्यवहार लैंगिक भेदभावों को कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्वहन करता
है। 3.समान शिक्षा की व्यवस्थापरिवारों में प्राय: देखा जाता है कि लड़के-लड़कियों
की शिक्षा व्यवस्था में असमानता का व्यवहार किया जाता है, जिससे लड़कियाँ उपेक्षित और पिछड़ी रह जाती
हैं। लड़कियों की शिक्षा व्यवस्था भी उत्तम कोटि की करनी चाहिए, परन्तु पैसे इत्यादि की समस्याओं
के कारण लड़कियों की रुची इत्यादि के अनुरूप शिक्षा व्यवस्था नहीं मिल पाती है, जिससे वे स्वावलम्बी नहीं
बन पाती हैं। अत: लैंगिक भेदभाव को कम करने के लिए लड़कों के समान ही लड़कियों
की शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए, जिससे लड़के-लड़की के मध्य भेदभाव में लड़कियों की शैक्षिक
स्थिति उन्नत होने से सुधार आयेगा।। 4.उदार दृष्टिकोण का विकास-परिवारों में महिलाओं और लड़कियों के प्रति संकीर्ण दृष्टिकोण बरता जाता है। पारिवारिक कार्यों तथा महत्त्वपूर्ण विषयों पर निर्णय लेते समय महिलाओं की राय पूछी तक नहीं जाती है और यही भाव परिवार की
भावी पीढ़ियों में भी व्याप्त हो जाता है। महिलाओं को कठोर सामाजिक और पारिवारिक प्रतिबन्धों में
रहना पड़ता है। यदि उनसे कोई चूक हो जाये तो कठोर दण्ड दिये जाते हैं। इस
प्रकार परिवार के सदस्यों तथा रीति-रिवाजों एवं परम्पराओं में महिलाओं के प्रति उदार दृष्टिकोण का विकास
करना चाहिए। इस प्रकार महिलाओं को भी समुचित स्थान और सम्मान मिलेगा तथा उनको समानता का
अधिकार मिलेगा। 5. बालिकाओं के महत्त्व से अवगत कराना—परिवार को चाहिए कि वह अपने
बालकों को बालिकाओं के महत्त्व से परिचित कराये जिससे वे धाक जमाने की बजाय सम्मान करना सीखें
। बालिकाएँ ही बहन, माता, पत्नी आदि हैं और इन रूपों की उपेक्षा करके पुरुष का जीवन
अपूर्ण रह जायेगा। 6.साथ-साथ रहने, कार्य करने की प्रवृत्ति का विकासपरिवार परस्पर सहयोग की नींव डालता हैं और अपने सदस्यों में, जिससे स्त्री-पुरुष के मध्य किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं रहता है, क्योंकि कार्य सम्पादन में दोनों ही एक-दूसरे का सहयोग कर रहे हैं। साथ-साथ कार्य करने की प्रवृत्ति के द्वारा महिलाओं की महत्ता स्थापित होती है जिससे लैंगिक भेदभावों में कमी आती है। 7. पारिवारिक कार्यों में समान सहभागिता-परिवार को अपने सभी सदस्यों की रुचि के अनुरूप कार्यों में सहभागिता
सुनिश्चित करनी चाहिए न कि लिंग के आधार पर। अधिकांश परिवारों में लड़कों और लड़कियों के
लिए कार्यों का एक दायरा बना दिया जाता हैं जो उचित है। इससे लड़कियाँ कभी भी बाहरी
दुनिया और बाह्य कार्यों को कर नहीं पाती हैं और उन्हें इस हेतु अयोग्य समझा जाता है और
बाहरी कार्यों को करने में वे स्वयं भी असहज महसूस करने लगती हैं। 8.हीनतायुक्त
शब्दावली का प्रयोग निषेध-परिवार में भाषा का प्रयोग कैसा हो रहा है, उसका प्रभाव भी
लैंगिक भेदभावों पर पड़ता है। कुछ परिवारों में लड़कियों और महिलाओं के लिए हीनतायुक्त शब्दावली का प्रयोग किया जाता है जिससे वे हीन भावना की शिकार हो जाती है और बालकों का मनोबल बढ़ता
है। वे भी बालिकाओं को सदैव हीन समझकर उनके लिए हीनतायुक्त शब्दावली का प्रयोग करते हैं,
जिससे लैंगिक भेदभावों को बढ़ावा मिलता है। 9.सामाजिक वातावारण में बदलाव-परिवार
को चाहिए कि वह लड़के-लड़कियों में किसी भी प्रकार का भेदभाव न करें। ऐसी सामाजिक परम्पराएँ
जिसमें लड़कियों के प्रति भेदभाव किया जाता है और उनकी सामाजिक स्थिति में ह्रास आता हो, ऐसी
स्थितियों में परिवार को बदलाव लाने की पहल करनी चाहिए। परिवार से ही सामाजिक वातावरण को
सुधारा जा सकता है क्योंकि समाज परिवार का समूह होता है। 10. अन्धविश्वासों तथा जड़ परम्पराओं का बहिष्कार-लड़के ही वंश चलाते हैं, वे ही नरक से पिता को बचाते
हैं, पैतृक कर्मों तथा सम्पत्तियों को वहीं संचालित करते हैं, पुत्र ही अन्त्येष्टि तथा पिण्डदान इत्यादि कार्य
करते हैं। इस प्रकार के कई अन्धविश्वास और जड़ परम्पराएँ परिवारों में मानी जाती हैं। अत:
इन परम्पराओं और विश्वासों को तार्किकता की कसौटी पर कसना चाहिए। यदि परिवार इन जड़ परम्पराओं,
अन्धविश्वासों और कुरीतियों के प्रति जागरूक हो जाये तो स्त्रियों की स्थिति स्वत: उन्नत हो
जायेगी। 11. उच्च चरित्र तथा व्यक्तित्व का निर्माणपरिवारों को चाहिए कि वे अपनी
संततियों के उच्च चरित्र तथा सुदृढ़ व्यक्तित्व निर्माण पर बल दें। उच्च चरित्र और व्यक्तित्व सम्पन्न
व्यक्ति अपने अस्तित्व के साथ-साथ सभी के अस्तित्व का आदर करता है। स्वामी विवेकानन्द, महात्मा
गाँधी आदि उच्च चरित्र तथा सुदृढ़ व्यक्तित्व वाले नायकों ने स्त्रियों की समानता पर बल दिया।
इस प्रकार चारित्रिक और व्यक्तित्व के विकास के द्वारा परिवार लैंगिक भेदभावों में कमी करने का प्रयास
कर सकते हैं। 12. व्यावसायिक कुशलता की शिक्षा-परिवार को चाहिए कि वह अपने सभी सदस्यों
को आत्मनिर्भर बनाने के लिए उनकी व्यावसायिक कुशलता की उन्नति हेतु प्रयास करे। यह शिक्षा परिवार
द्वारा औपचारिक तथा अनौपचारिक दोनों ही प्रकार से प्राप्त कराने का प्रबन्ध किया सकता है। जब
परिवार के सभी सदस्य अपने-अपने कार्यों में संलग्न रहेंगे तो उनके विचारों और सोच में गतिशीलता
आयेगी जिससे लैंगिक भेदभावों में कमी आयेगी। 13. जिम्मेदारियों का अभेदपूर्ण वितरणपरिवार में
स्त्री-पुरुष लड़के-लड़कियों के मध्य लिंग के आधार पर भेदभाव न करके सभी प्रकार की जिम्मेदारियाँ
बिना भेदभाव के प्रदान. करनी चाहिए, जिससे लैंगिक भेदभाव की बात तक भी दिमाग में न
आये। 14. आर्थिक संसाधनों पर एकाधिकार की प्रवृत्ति का समापन-परिवार को चाहिए कि वह
आर्थिक संसाधनों को इस प्रकार प्रबन्धन और वितरण करें कि स्त्री-पुरुष में किसी भी प्रकार का
कोई भेदभाव न रहे। इस प्रकार आर्थिक संसाधनों पर पुरुष वर्ग के एकाधिकार की समाप्ति का
परिवार लैंगिक भेदभावों को समाप्त करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर सकते हैं। 15. बालिकाओं को आत्म-प्रकाशन के अवसरों की प्रधानता परिवार में बालिकाओं की रुचियों और प्रवृत्तियों के
आत्म-प्रकाशन के अवसर बालकों के समान ही प्रदान करने चाहिए, इससे उनमें आत्मविश्वास आयेगा, हीनता नहीं आयेगी और
अपनी प्रतिभा को प्रकाशित करने का उन्हें अवसर प्राप्त होगा। आत्म-प्रकाशन के द्वारा उनमें भावना ग्रन्थियाँ
नहीं पनपेंगी। 16. सशक्त बनाना—कुछ परिवारों में प्रत्येक कार्य में लड़कियों को यह स्मरण
कराया जाता है कि वे लड़कियाँ हैं, अत: उन्हें अपनी सीमा में रहना चाहिए, परन्तु इस प्रकार का व्यवहार
उनमें कुण्ठा और निराशा के भाव भर देता है वहीं यदि परिवार के सदस्य सदैव महिलाओं के सशक्त
रूप का वर्णन और प्रोत्साहन करते हैं तो ऐसे परिवारों में लड़कियाँ भी लड़कों के समान सभी
उत्तरदायित्वों को पूर्ण करती हैं। अत: परिवार को चाहिए कि वे स्त्री को अबला न समझकर उसे
शक्ति और सबला समझें जिससे भावी पीढ़ियों की सोच में परिवर्तन आयेगा और लैंगिक भेदभावों में कमी
आयेगी। लिंग समानता के विकास में शिक्षा को प्रभावी बनाने हेतु सुझाव लैंगिकता की शिक्षा में प्राथमिक शिक्षा का महत्त्व तो एक स्वर से स्वीकार है।
इस समय बालकों के अपरिपक्व मन पर जो छाप पड़ जाती है, वह आजीवन बनी रहती है।
अब प्राथमिक शिक्षा की लैंगिकता की शिक्षा के विकास में प्रभावी बनाने हेतु कुछ सुझाव इन बिन्दुओं में दिये जा रहे हैं महिलाओं को लैंगिक भेदभावों से बाहर निकालने में भारतीय संविधान में न्यायिक प्रावधानमहिलाओं को लैंगिक भेदभावों से बाहर निकालने, समानता, स्वतन्त्रता तथा उनके
अधिकार प्रदान करने के लिए भारतीय संविधान में कुछ न्यायिक प्रावधान निम्नांकित प्रकार से किये गये हैं 1.प्रसवपूर्व नैदानिक तकनीकी अधिनियम, 1994(The Pre-Natal Diagnostic Techniques Act-PNDT, 1994)—प्रसवपूर्व ही गर्भ में
पल रहे शिशु के लिंग के विषय में पता लगाकर बालिका भ्रूण की गर्भ में ही हत्या कर
दी जाती थी, जिसका दुष्परिणाम हमारे समक्ष बिगड़ते लिंगानुपात के रूप में उपस्थित है। राजस्थान तथा हरियाणा जैसे राज्यों में लिंगानुपात की स्थिति अत्यन्त चिन्ताजनक है। अत: इस विषय पर तत्काल प्रभाव से
संज्ञान लेते हुए प्रसवपूर्व नैदानिक तकनीकी अधिनियम 20 सितम्बर, 1994 को पारित किया गया। इसको 'लिंगचयन प्रतिषेध
अधिनियम' के नाम से भी जाना जाता है। इस अधिनियम के द्वारा गर्भ में पल रहे शिशु
के लिंग का परीक्षण कराना कानूनी रूप से अपराध की श्रेणी में आता है। इस अधिनियम को
1996 में संशोधित किया गया। लिंग जानने या किसी अन्य इरादे से लिंग पता करना तथा कराने
वाले व्यक्ति या करने वाले डॉक्टर, क्लीनिक तथा अस्पताल के विरुद्ध सख्त कार्यवाही करने का प्रावधान किया
गया है। बिना औरत की सहमति के जबरन गर्भपात कराने वाले को धारा 313 के द्वारा दस वर्ष
की सजा, आजीवन कारावास तथा जुर्माने का प्रबन्ध किया गया है। 2. यौन हमला कानून प्रारूप में सुधार भारत, 2000—यौन हमलों से तात्पर्य है गलत इरादों से किसी स्त्री की ओर
दृष्टि डालना।यौनजनित हमलों में बलात्कार, शालीनता भंग, जबरन सम्बन्ध बनाना, अश्लील सामग्री प्रस्तुत करना, शादी
तथा जबरन अपहरण करके शारीरिक सम्बन्ध बनाने हेतु विवश करना। इसकी प्रभाविता के लिए यौन हमला
कानून प्रारूप में 2000 में सुधार किये गये। धारा 376 में बलात्कार के लिए दस वर्ष की
सजा या उम्रकैद का प्रावधान किया गया है। धारा 354 के द्वारा शालीनता भंग करने के लिए दो वर्ष की सजा का प्रावधान किया गया है। धारा 366 में शादी, अपहरण हेतु विवश करने
पर दस वर्ष की सजा का प्रावधान किया गया है। धारा 306 के द्वारा अश्लील कार्य के
लिए दस वर्ष की सजा तथा धारा 294 के द्वारा अश्लील कार्य आदि के लिए तीन माह की
कैद तथा जुर्माने का प्रावधान किया गया है। अपशब्दों के लिए धारा 509 में एक वर्ष की सजा का प्रावधान किया गया है। 3. घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 (Domestic Violence Act, 2005)-घरेलू हिंसा के निवारण के लिए घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 में बनाया गया तथा 26 अक्टूबर, 2006 से यह अधिनियम
प्रभावी हुआ। यह कानून महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाया गया। महिलायें रोजमर्रा की जिन्दगी
में पुरुषों की प्रताड़ना, मार-पीट तथा गाली-गलौज का सामना करती रहती हैं और इसे अपनी
नियति मानकर चलती रहती हैं, जिससे वे अपने अधिकारों से युक्त तथा गरिमामयी जीवन व्यतीत नहीं कर
पाती। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण III के आँकड़ों के अनुसार भारत में विवाहित महिलाओं का बड़ा हिस्सा
लगभग 37.2% शारीरिक तथा यौन शोषण का शिकार है और इस सर्वेक्षण के द्वारा यह तथ्य भी सम्मुख
आता है कि शिक्षा से वंचित महिलाएँ पतियों द्वारा अधिक प्रताड़ित होती हैं। घरेलू हिंसा की
परिभाषा में दुर्व्यवहार या धमकी, यौनाचार, मौखिक, भावनात्मक या आर्थिक दुर्व्यवहार सम्मिलित हैं। इस अधिनियम ने
महिलाओं को पूरा अधिकार दिया कि वे पति के घर में रहने की अधिकारिणी हैं। पितृसत्तात्मक
भारतीय समाज में महिलाओं को सम्पत्ति तथा आर्थिक अधिकारों से वंचित रखा गया है। यह अधिनियम
महिलाओं को ससुराल तथा मायके की पैतृक सम्पत्ति में बराबर का अधिकार प्रदान करता है। दूसरी पत्नी
या बिना विवाह के रह रही महिला को आश्रय देने का प्रावधान है। विविक सेवा प्राधिकरण
अधिनियम, 1987 के द्वारा पीड़िता को नि:शुल्क विविक सेवा प्रदान करने का प्रावधान भी किया गया
है। इस प्रकार घरेलू हिंसा महिलाओं की सुरक्षा, संरक्षा और सम्मान की. दिशा में अत्यधिक सशक्त
कानून है। 4. महिला आरक्षण (Reservation for Women)-15 अगस्त, 1947 को भारत ने चिरकाल से देखे जाने वाले अपने स्वप्न स्वतन्त्रता को साकार किया। वर्षों से शोषित भारतीय जनमानस को असमानता से बाहर निकालने के लिए लोकतन्त्र की स्थापना की गयी। लोकतन्त्र में सभी को समानता, स्वतन्त्रता, न्याय तथा अधिकार प्रदान किये गये हैं, परन्तु महिलाओं को उनकी दयनीय स्थिति देखते हुए उनको आरक्षण प्रदान किया गया है। स्वतन्त्र भारत की लोकतांत्रिक उपलब्धियों को यदि परिगणित किया जाये तो 'महिला आरक्षण' एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। पंचायती राज की सफलता को मापा जायेगा, तब महिला आरक्षण तथा इसकी सफलता महत्त्वपूर्ण उपलब्धि होगी। संयुक्त राष्ट्र की एजेन्सी यू.एन.एफ.पी.ए. ने अपनी ताजा रिपोर्ट में भारत में पंचायतों में आरक्षण के फलस्वरूप महिलाओं में उपजी नई चेतना की सराहना की है। आज सभी राज्यों में पंचायत के माध्यम से महिलायें नये उत्साह और स्फूर्ति के साथ विकास की गतिविधियों में योगदान दे रही हैं । संविधान के 73 व 74वें संशोधन के पश्चात् सभी स्थानीय निकायों में एक-तिहाई आरक्षण
मिलने के पश्चात् करीब 25 हजार महिलाएँ पंचायतों में चुनी गयी हैं जो ग्राम, प्रशासन और विकास को
नवीन दिशा दे रही हैं। पंचायतों में कुल 28 लाख प्रतिनिधियों में से लगभग 10 लाख महिलायें हैं
जो राजनीति के क्षेत्र में महिलाओं की सशक्त उपस्थिति का द्योतक हैं। 5.बाल-विवाह प्रतिषेध अधिनियम, (Child Marriage Act 2006)-बाल-विवाह भारतीय समाज की एक प्रमुख कुरीति है। इस कुरीति का प्रचलन छठवीं शताब्दी
से माना जाता है। वर्तमान में बालिका और बालिकाओं के लिए विवाह की आयु क्रमश: 18 और 21
वर्ष निर्धारित कर दी गयी है, फिर भी कुछ रूढ़ियों और अन्धविश्वासों के कारण बाल-विवाह का प्रचलन
है। कम उम्र में ही बालिकाओं का विवाह करना धर्मसम्मत और अपने उत्तरदायित्व से मुक्त होना,
क्योंकि कन्या पराया धन है, मानकर कर दिया जाता है, जिससे बालिकाओं को अपने बचपन को जीने का
अधिकार भी नहीं मिला पाता है। बाल-विवाह के द्वारा बालिकाओं का शारीरिक और मानसिक विकास अवरुद्ध
हो जाता है। कुपोषण, बाल एवं मातृ मृत्यु-दर, जनसंख्या वृद्धि, जीवन की गुणवत्ता और दक्षता
का ह्रास इत्यादि समस्याएँ बाल-विवाह के कारण उत्पन्न होती हैं। महिलाओं के सशक्तिकरण में शिक्षा की भूमिका(सुखाड़िया बी.एड., 2018) उत्तर-आजकल 'सशक्तिकरण महिला
सशक्त समाज' यह नारा अवसर सुनने को मिलता है। इसका अभिप्राय यह है कि कोई समाज रभी
सशक्त होगा जब वहाँ की महिलाएँ भी सशक्त हों। दूसरे शब्दों में सशक्त महिला ही सशक्त
राष्ट्र का निर्माण कर सकती है। सामान्यतः यह देखा या है कि यदि किसी समाज की महिलाएँ
अशिक्षित हैं तो वह समाज भी कभी आगे नहीं बढ़ सकता। वास्तव में शिक्षा ही वह साधन है
जिसके द्वारा महिलाओं को सशक्त बनाकर समाज को सशक्त करने का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता
है। यही कारण है कि आज 'महिला सशक्तिकरण के लिए शिक्षा' (Education for Woman Empowerment) पर विशेष बल दिया जा
रहा है। प्रश्न यह उठता है कि इसका क्या अर्थ है और शिक्षा द्वारा उन्हें सशक्त कैसे
बनाया जाए। महिला सशक्तीकरण के लिए शिक्षा का अर्थ (Meaning of Education For Women Empowerment)महिला सशक्तिकरण का यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि महिलाएँ कमजोर हैं। इतिहास साक्षी है
कि उनमें बहुत कुछ करने की क्षमता है लेकिन वे अपनी इन क्षमताओं को पहचान नहीं पाती या
उनके विकास के पर्याप्त अवसर नहीं हो पाते । अत:'महिला सशक्तिकरण के लिए शिक्षा' का अभिप्राय
यह है कि उन्हें सशक्त बनाने के उद्देश्य से शिक्षा दी जाए। शिक्षा द्वारा उन्हें इस
योग्य बनाए जाए कि जेंडर समानता लाने में शिक्षा की क्या भूमिका है?जेंडर समानता स्थापित करने की दृष्टि से विद्यालय की भूमिका अतिमहत्त्वपूर्ण है। सहशिक्षा वाले विद्यालयों में शिक्षकों तथा अन्य शालेय स्टाफ द्वारा बालक– बालिकाओं की गतिविधियों पर नजर रखी जाती है तथा ऐसे प्रयास किये जाते हैं कि बालक बालिकाओं के साथ समानता के व्यवहार करने हेतु प्रेरित हों ।
जेंडर संवेदनशीलता से आप क्या समझते हैं?लैंगिक संवेदनशीलता यानी हर लिंग (चाहे पुरुष हो या महिला) का व्यक्ति दूसरे लिंग (चाहे पुरुष हो या महिला) के प्रति सम्मान का भाव रखे. लिंग भेद को दरकिनार कर एक-दूसरे के प्रति सम्मान के भाव होना ही लैंगिक संवेदनशीलता है.
जेंडर संवेदनशीलता का समाज में क्या महत्व है?लिंग संवेदनशीलता के माध्यम से समाज में स्त्रियों के प्रति होने वाले अमानवीय आचरण एवं शोषण का उन्मूलन होता है। प्रत्येक स्त्री एवं पुरुष को सम्मानित रूप में सामाजिक जीवन व्यतीत करने का अवसर प्राप्त होता है। इसलिये यह एक सामाजिक प्रक्रिया के रूप में जानी जाती है।
लैंगिक असमानता को दूर करने में विद्यालय की क्या भूमिका है?वर्तमान के विद्यालयों में बालक के मानसिक विकास पर ही नहीं बल्कि संपूर्ण व्यक्तित्व के विकास पर भी ध्यान देना चाहिए। जिससे बालक का शारीरिक मानसिक समाजिक तथा आर्थिक विकास हो सके। संपूर्ण व्यक्तित्व के विकास तथा लैंगिक भेदभाव को समाप्त करने में सहायता प्राप्त होती हैं।
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