अपादान कारक के उदाहरण संस्कृत में - apaadaan kaarak ke udaaharan sanskrt mein

जिस वस्तु से किसी का पृथक् होना पाया जाता है, अर्थात् जिससे वस्तु अलग होती है, उसे अपादान कारक कहते हैं। अथवा संज्ञा के जिस रूप से एक वस्तु का दूसरी से अलग होना पाया जाए, वह अपादान कारक कहलाता है। अपादान कारक में पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। इसका विभक्ति-चिह्न ‘से, अलग होने के लिए’ है। ‘ करण कारक का भी चिह्न ‘से’ होता है, लेकिन वहाँ इसका मतलब सहायक (साधन) से है।

उदाहरण – वृक्षात् पत्राणि पतन्ति। वृक्ष से पत्ते गिरते हैं। इस वाक्य में पेड़ से पत्ते अलग होते हैं, तो वृक्ष में अपादान संज्ञा हुई और अपादान में पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग होता है।

अपादान कारक के उदाहरण संस्कृत में - apaadaan kaarak ke udaaharan sanskrt mein

अपादान कारक (पञ्चमी विभक्ति) का सूत्र – ‘ध्रुवमपायेऽपादानम्, अपादाने पञ्चमी।’

किसी व्यक्ति या वस्तु के अलग होने में जो कारक ध्रुव अर्थात् अचल है, वह अपादान कारक कहलाता है। अपादान कारक में पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग किया जाता है।

उदाहरण – रमेशः ग्रामात् आयाति। रमेश गाँव से आता है। इस वाक्य में ग्राम् अचल है, इसलिये इसकी अपादान संज्ञा हुई और उससे पञ्चमी विभक्ति हुई।

(1) जुगुप्साविरामप्रमादार्थानामुपसंख्यानाम् –

जुगुप्सा (घृणा करना), विराम (रुकना), प्रमाद (असावधानी करना) अर्थ वाली धातुओं के प्रयोग में जिससे घृणा आदि की जाती है, उसकी अपादान संज्ञा होती है और अपादान में पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग होता है। जैसे-

सः पापात् जुगुप्सते। वह पाप से घृणा करता है।

रविः अध्ययनात् विरमति। रवि अध्ययन से रुकता है।

सः धर्मात् प्रमाद्यति। वह धर्म से प्रमाद करता है।

(2) भीत्रार्थानां भयहेतुः –

भय अर्थ वाली और रक्षा अर्थ वाली धातुओं के योग में भय का जो कारण रहता है, उसमें पंचमी विभक्ति होती है। जैसे-

बालकः सर्पात् बिभेति। बालक साँप से डरता है।

नृपः दुष्टेभ्यः रक्षति। राजा दुष्टों से रक्षा करता है।

(3) पराजेरसोढः –

‘परा’ उपसर्ग पूर्वक ‘जि’ धातु के योग में असह्य वस्तु की अपादान संज्ञा होती है और उसमें अपादान में पंचमी विभक्ति होती है। जैसे-

मोहनः अध्ययनात् पराजयते। मोहन अध्ययन से हार मान रहा है।

(4) वारणार्थानामीप्सित: –

जिससे किसी व्यक्ति या वस्तु को दूर किया जाए, उसमें पंचमी विभक्ति होती है। जैसे-

शस्यात् वृषभं वारयति। फ़सल से बैलों को हटाता है।

(5) अन्तर्धौ येनादर्शनमिच्छति –

अन्तर्धि का अर्थ है ‘ओट (व्यवधान)’, व्यवधान होने पर जिससे अपने आप को छिपाना चाहता है, उसमें पंचमी विभक्ति होती है। जैसे-

मातुर्निलीयते कृष्णः। कृष्ण माता से छिपता है।

(6) आख्यातोपयोगे –

जिससे नियमपूर्वक विद्या सीखी जाती है, उसमें पंचमी विभक्ति होती है। जैसे-

सः उपाध्यायाद् वेदम् अघीते। वह उपाध्याय से वेद पढ़ता है।

(7) जनिकर्तुः प्रकृतिः –

जो जन्म देता है या उत्पत्ति करता है, उसमें पंचमी विभक्ति होती है। जैसे-

ब्रह्मणः प्रजाः प्रजायन्ते। ब्रह्मा प्रजा की उत्पत्ति करते हैं।

(8) भुवः प्रभवः –

‘भू’ धातु के योग में जहाँ से कोई चीज उत्पन्न होती है उसमें पंचमी विभक्ति होती है। जैसे-

हिमालयात् गङ्गा प्रभवति। हिमालय से गंगा निकलती है।

(9) अन्यारादितर्ते दिक्शब्दाचूत्तरपदाजाहियुक्ते –

अन्य (दूर), आरात् (समीप), ऋते (बिना), दिक्शब्दा (दिशावाची शब्द), अचूत्तरपद (प्राक्, प्रत्यक्), आच् प्रत्ययान्त (दक्षिणा आदि शब्द) आहि प्रत्ययान्त (दक्षिणाहि आदि शब्द) आदि शब्दों के योग में पंचमी विभक्ति होती है। जैसे-

गृहात् आरात् क्षेत्रम् अस्ति। घर के समीप खेत है।

ग्रामात् उत्तरस्यां तडागः अस्ति। गाँव से उत्तर में तालाब है।

परिश्रमात् ऋते विद्या न भवति। परिश्रम के बिना विद्या नहीं होती है।

चैत्रात् पूर्वः फाल्गुनः भवति। चैत्र से पहले फाल्गुन होता है।

(10) पृथग्विनानानाभिस्ततीयान्यतरस्याम् –

पृथग्, विना, नाना के योग में विकल्प से तृतीया विभक्ति होती है और पक्ष में पंचमी और द्वितीय विभक्ति भी होती है। जैसे-

धर्मात्, धर्मेण, धर्मं वा विना कुत्र सुखं ? धर्म के बिना सुख कहाँ ?

नगरात् पृथक् आश्रमः अस्ति। नगर से पृथक् आश्रम है।

(11) बहिर्योगे पंचमी –

बहि: (बाहर) के योग में पंचमी विभक्ति होती है। जैसे-

ग्रामात् बहिः मन्दिरं वर्तते। गाँव के बाहर मन्दिर है।

(12) पचम्यपाङ्परिभिः  –

अप, आङ्, परि इन कर्मप्रवचनीय संज्ञाओं के योग में पंचमी विभक्ति होती है। जैसे-

आमुक्तेः संसारः। मुक्ति तक संसार है।

(13) अपेक्षार्थे पञ्चमी –

तुलना में जिसे श्रेष्ठ बताया जाए, उसमें पंचमी विभक्ति होती है। जैसे-

विद्या धनादपि गरीयसी। विद्या धन से भी श्रेष्ठ है।


कारक / विभक्ति के भेद –

कर्त्ता कारक (प्रथमा विभक्ति)

कर्म कारक (द्वितीया विभक्ति)

करण कारक (तृतीया विभक्ति)

सम्प्रदान कारक (चतुर्थी विभक्ति)

अपादान कारक (पंचमी विभक्ति)

संबंध (षष्ठी विभक्ति)

अधिकरण कारक (सप्तमी विभक्ति)


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अपादान कारक का उदाहरण क्या है?

अपादान कारक की परिभाषा संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से अलग होने, निकलने, डरने, रक्षा करने, सीखने, लजाने अथवा दो मैं से तुलना करने का भाव प्रकट हो तो उसे अपादान कारक कहते है। गंगा हिमालय से निकलती है। पेड़ से पत्ता गिरता है। बालक बिल्ली से डरता है।

करण कारक और अपादान कारक में क्या अंतर है उदाहरण सहित लिखें?

करण और अपादान कारक में अंतर परन्तु अर्थ के आधार पर दोनों में अंतर होता है। करण कारक में जहाँ पर 'से' का प्रयोग साधन के लिए होता है, वहीं पर अपादान कारक में अलग होने के लिए किया जाता है। कर्ता कार्य करने के लिए जिस साधन का प्रयोग करता है उसे करण कारक कहते हैं। लेकिन अपादान में अलगाव या दूर जाने का भाव निहित होता है।

संस्कृत में अपादान कारक के लिए कौन सी विभक्ति का प्रयोग होता है?

अपादान कारक में पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग किया जाता है।

संस्कृत में कितने कारक होते हैं उनके नाम बताइए?

संस्कृत में छह कारक होते है । "कर्ता कर्म च करणं , सम्प्रदानं तथैव च । अपादानादि - अधिकरणम् - इत्याहु कारकणि षट्॥ "