आत्म ज्ञान से किसकी निवृत्ति होती है? - aatm gyaan se kisakee nivrtti hotee hai?

<<   |   <   |  | &amp;nbsp; &lt;a target="_blank" href="http://literature.awgp.org/book/jeevan_kee_sarvopari_aavashyakata_aatmgyaan/v2.14" title="Next"&gt;&lt;b&gt;&amp;gt;&lt;/b&gt;&lt;i class="fa fa-forward" aria-hidden="true"&gt;&lt;/i&gt;&lt;/a&gt; &amp;nbsp;&amp;nbsp;|&amp;nbsp;&amp;nbsp; &lt;a target="_blank" href="http://literature.awgp.org/book/jeevan_kee_sarvopari_aavashyakata_aatmgyaan/v2.30" title="Last"&gt;&lt;b&gt;&amp;gt;&amp;gt;&lt;/b&gt;&lt;i class="fa fa-fast-forward fa-1x" aria-hidden="true"&gt;&lt;/i&gt; &lt;/a&gt; &lt;/div&gt; &lt;script type="text/javascript"&gt; function onchangePageNum(obj,e) { //alert("/book/jeevan_kee_sarvopari_aavashyakata_aatmgyaan/v2."+obj.value); if(isNaN(obj.value)==false) { if(obj.value&gt;0) { //alert("test"); //alert(cLink); location.replace("/book/jeevan_kee_sarvopari_aavashyakata_aatmgyaan/v2."+obj.value); } } else { alert("Please enter a Numaric Value greater then 0"); } } <div style="float:right;margin-top:-25px"> </div> </div> <div class="post-content"> <div class="versionPage"> <br><br>संसार को दूरदर्शी दार्शनिकों ने दुःखालय की संज्ञा दी है। इस संज्ञा का आधार यही है कि मनुष्य संसार में जन्म लेकर सदा ही किसी-न-किसी प्रकार के दैहिक, दैविक अथवा मानसिक दुःखों से घिरा रहता है। मनुष्य का सारा परिश्रम, पुरुषार्थ एवं प्रयत्न दुःखों से बचने का ही एक उपक्रम है। किंतु जीवन भर प्रयत्न करते रहने पर भी मनुष्य का प्रायः छुटकारा नहीं हो पाता और अंत में वह कष्ट-क्लेशों की मानसिक अथवा शारीरिक स्थिति में ही इस संसार को छोड़ जाता है।<br><br>अनेक लोग अभावों को ही दुःख का कारण मानते हैं। संसार में एक-से-एक बढ़कर साधन संपन्न व्यक्ति पड़े हैं, किंतु क्या वे सुखी अथवा संतुष्ट होते हैं? अपने विपुल साधनों के बीच भी वे तरसते-तड़पते और आह-कराह करते नजर आते हैं। जिनको अभाव का दुःख नहीं, उन्हें रोग-दोष आदि के शारीरिक दुःख से पीड़ित देखा जाता है। जिन्हें शारीरिक दुःख नहीं, वे काम, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष ताप, अनुताप, पश्चात्ताप, तृष्णा अथवा एषणाओं के मानसिक दुःखों से घिरे पाए जाते हैं। ऐसे भी अनेक लोग हो सकते हैं, जिनको शारीरिक, मानसिक अथवा अभावजन्य दुःख न भी हों, तो भी वे अज्ञान के दुःख से पीड़ित पाए जा सकते हैं। यदि एक बार कोई सज्जन अथवा साधु पुरुष इन दुःखों से न भी दुःखी हो तब भी उसके आस-पास रहने वाले दुष्ट लोग अकारण ही उसके लिए अप्रिय परिस्थितियां उत्पन्न कर सकते हैं। कोई दुर्घटना अथवा आधि-व्याधि ही उनके दुःख का कारण बन सकती है। प्रकृति-वाहित न जाने ऐसे कितने दुःख-क्लेश इस संसार में आते रहते हैं जिनसे अमीर, गरीब, साधु और खल सभी एक समान पीड़ित होते हैं। और कोई दुःख न भी हो तो जन्म, जरा और मृत्यु का दुःख ही क्या कम है?<br><br>महात्मा बुद्ध एक राजकुमार थे। उनके जीवन में अभाव का प्रश्न ही नहीं उठता। वे स्वस्थ, सुंदर और सच्चरित्र भी थे, शारीरिक कष्ट का उन्हें कोई अनुभव न होता था। सावधानीपूर्वक उनकी किसी भी इच्छा की पूर्ति की जाती थी। हर प्रकार से हर दशा में उन्हें पूर्ण प्रसन्न एवं संतुष्ट रखने का सफल प्रयत्न किया जाता था। ऐसी स्थिति में मानसिक दुःख का उनके जीवन से कोई संबंध न था। उनकी पत्नी यशोधरा सुंदर, स्वस्थ, पतिव्रता एवं प्रिया थी। उनका पुत्र राहुल मनभावन तथा प्यारा था। तात्पर्य यह है कि राजकुमार सिद्धार्थ को अपनी प्रिय एवं अनुकूल परिस्थितियों में किसी प्रकार का शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक अथवा आकस्मिक कोई दुःख न था। तब भी दुःख की अनुभूति से पीड़ित होकर वे अपनी प्रिय परिस्थितियों को छोड़कर संसार का दुःख दूर करने का उपाय खोजने के लिए साधु हो गए।<br><br>राजकुमार सिद्धार्थ केवल एक बार ही अपनी अनुकूल परिस्थितियों तथा प्रिय वातावरण से निकलकर बाहर फैले हुए संसार में आए और एक रोगी, वृद्ध तथा मुरदे को देखकर अनुभव कर लिया कि यह संसार दुःख-दरदों से भरा हुआ दुःखालय है। उनका यह अनुभव सत्य, यथार्थ एवं वास्तविक था। इसने उन्हें इतना कातर कर दिया कि आखिर वे संसार का दुःख दूर करने का उपाय खोजते-खोजते राजकुमार सिद्धार्थ से वैरागी बुद्ध बन गए।<br><br>वैदिक, औपनिषदिक, दार्शनिक एवं धार्मिक जितना भी आध्यात्मिक और ज्ञान-विज्ञान आदि का जो भी उच्च साहित्य है, वह सब किसी-न-किसी रूप में उन उपायों एवं सिद्धांतों का ही विस्तार है, जिनके द्वारा मनुष्य दुःख से निवृत्त होकर सुख की ओर अग्रसर हो सके। ऋषियों, मुनियों तथा दार्शनिकों से लेकर जो भी तपस्वी, महात्मा एवं मनीषी, चिंतक तथा विद्वान हुए हैं उन्होंने सारा जीवन मनुष्य के दुःख दूर करने और सुख पाने के उपाय खोजने में ही लगा दिया है। इन पावन प्रयत्नों एवं महान जीवनों को देखते हुए यही मानना पड़ता है कि यह संसार वास्तव में दुःखालय ही है और दुःख से बचने का प्रयत्न ही मानव जीवन का उपक्रम है।<br><br>यह भी माना जा सकता है कि संसार में सुख का भी एक अंश है, जिसका प्रमाण लोगों के हंसने-बोलने, गाने-बजाने, खेलने-कूदने तथा आनंद मनाने से मिलता है। लोग हास-विलास तथा भोग-भाग्यपूर्ण जीवन बिताते भी दृष्टिगोचर होते हैं, किंतु यह सारे सुख क्षणभंगुर, अस्थायी, परिवर्तनशील एवं दुःख के परिणाम वाले ही हैं। न तो इनमें स्थायित्व ही है और न वास्तविकता। सुखों का यह सारा आयोजन भी एक तरह से दुःख से बचने का उपक्रम मात्र ही है। संसार में सुखों की अपेक्षा दुःखों का ही बाहुल्य एवं स्थायित्व अधिक है।<br><br>संसार में दुःखों का आधिक्य है और मनुष्य को संसार में रहना ही है, तो क्या दुःखों में उलझ-उलझकर उसे अपना बहुमूल्य जीवन नष्ट कर देना उसका अटल प्रारब्ध है? नहीं, मनुष्य का प्रारब्ध दुःख भोगना नहीं है। उसका लक्ष्य दुःखों पर विजय प्राप्त कर एक स्थायी सुख प्राप्त करना ही है। यही मनुष्य का पुरुषार्थ है और यही उसका श्रेय भी। दुःख से पूर्ण होने के कारण संसार को दुःखालय मानकर कष्ट एवं क्लेशों के बीच तड़प-तड़पकर मर जाना मनुष्य की लज्जास्पद पराजय है। मनुष्यता की शोभा इसी में है कि दुःख से छूटने और सुख प्राप्त करने के लिए अखण्ड पुरुषार्थ किया जाए। मनुष्य को चाहिए कि वह संसार को परीक्षास्थल समझे और इस दुःख सागर को संतरण कर सुख-शांति के सुहावने किनारे पर&nbsp; पहुंचकर अपने को श्रेय का अधिकारी बनाए। जहां रोग है, वहां उपचार भी, जहां उलझनें हैं, वहां उपाय भी है। जहां चाह है, वहां राह भी है, जहां दुःख है, वहां उनसे छूटने का मार्ग भी है। आवश्यकता केवल इतनी है कि मनुष्य के हृदय में सच्ची जिज्ञासा हो। वह अपने उद्देश्य के प्रति निष्ठावान तथा अखण्ड पुरुषार्थ एवं प्रयत्न करने का साहस रखता हो।<br><br>भारतीय मनीषियों ने परोपकारार्थ अपना पूरा जीवन तपकर दुःख निवारण के जो अमोघ उपाय खोज निकाले हैं, वे बड़े ही सरल एवं सुखकर हैं। उनका अवलंबन लेकर न जाने कितने लोग इस दुःख-सागर से तरे हैं और तरते रहे हैं। उनके द्वारा खोजे हुए दुःख निवारण के उपाय सार्वभौम एवं सर्वमान्य हैं। उन आध्यात्मिक उपायों का अवलंबन किए बिना न तो आज तक कोई दुःख से निस्तार पा सका है और न पा सकेगा। इसके विपरीत जो बुद्धिमान उन उपायों को काम में लाता है, वह अवश्य ही दुःखों पर विजय पाकर सुख पाता है।<br><br>अधिकांश चिंतकों का मत है कि मनुष्य की विषय-तृष्णा ही सारे दुःखों का मूल है। यदि मनुष्य तृष्णा की मरु-मरीचिका में फंसने से अपने को बचा सके, तो निश्चय ही दुःखों से उसका निस्तार हो जाए। संसार में जो कुछ देखा उसी को पाने के लिए लालायित हो उठना और पाए हुए से संतुष्ट न होकर अधिकाधिक पाने की इच्छा करना ही तृष्णा है, जो कभी भी पूरी नहीं होती। पाए हुए से संतुष्ट रहकर यदि अधिकाधिक पाने की अनावश्यक पिपासा को छोड़ दिया जाए, तो मनुष्य अवश्य ही अनेक शारीरिक, सामाजिक दुःखों से बच सकता है।<br><br>विषय का अत्यधिक भोग और वस्तुओं में सुख की कल्पना दुःख का एक विशेष हेतु है। यह एक अनुभूत सत्य है कि विषय-भोगों की प्राप्ति अन्य दुःख रूप में सामने आती है। मनुष्य भोगों को कितना ही क्यों न भोगें, तृप्ति नहीं हो सकती। शरीर शिथिल होकर ही नष्ट हो जाता है, किंतु भोगों की वासना ज्यों-की-त्यों बनी रहती है। विषयों का भोग करने में लवलीन मनुष्य समझता तो यह है कि वह विषयों का भोग कर रहा है, किंतु वास्तव में होता इसके विपरीत है। विषय भोगी को स्वयं ही भोग कर नष्ट कर देते हैं। विषय भोग, की अतृप्त तृष्णा के रहते हुए मनुष्य दुःख से मुक्त हो सके, यह संभव नहीं। भोगों को मर्यादा की सीमा तक भागकर जो मनुष्य उनमें लिप्त नहीं होता और उन्हें दुःखदायी विषय मानकर उनसे विरक्त रहता है, उसे सुखी होने से कोई बाधा रोक नहीं सकती।<br><br>संसार की प्रत्येक वस्तु नाशवान है। यहां तक कि शरीर भी। ऐसा जानकर जो बुद्धिमान उनके प्रति आसक्ति नहीं रखता, वह दुःख के विशेष हेतु मोहरूपी कटार से बचा रहता है, अन्यथा इनमें आसक्त व्यक्ति इनके क्षीण, क्षय अथवा नाश, वियोग से क्षण-क्षण पर दुःखी होता रहेगा। यदि ये वस्तुएं उसके देखते-देखते नष्ट न भी हों, तब भी उनके नष्ट हो जाने अथवा बिछुड़ जाने की शंका सताया करती है। संसार की प्रत्येक वस्तु नश्वर एवं क्षयमान है, ऐसी बुद्धि रखकर जो मनीषी उनसे आत्मिक संबंध न रखकर व्यावहारिक संबंध रखता हुआ अनासक्ति का आचरण करता है, संसार की कोई भी हानि उसे दुःखी अथवा विचलित नहीं कर सकती है। दुःख असल में वस्तु के विनाश-वियोग से नहीं होता। दुःख का कारण वास्तव में उसके प्रति मनुष्य का वह मोह होता है, जिसे वह अज्ञानवश वस्तु से स्थापित कर लेता है।<br><br>महात्मा बुद्ध की खोज के अनुसार दुःखों की निवृत्ति ‘निर्वाण’ में है। अपने को राग-द्वेष से मुक्त कर लेना ही निर्वाण है, जिसे थोड़े से प्रयत्न द्वारा मनुष्य जीवनकाल में ही पा सकता है। बुद्ध प्रतिपादित निर्वाण अवस्था को वैराग्य द्वारा शुद्धाचरण करते हुए, इस नाशशील संसार के चिरंतन सत्यों में विश्वास रखने से, मनुष्य विषयों की विभीषिका और तृष्णाओं की मरु-मरीचिका से सुरक्षित रहकर दुःखों से निवृत्त हो सकता है।<br><br>सांख्य दर्शनकार ने आत्मा एवं अनात्मा के बीच अंतर न समझने के अज्ञान को दुःखों का कारण बतलाया है। उनका कहना है कि मनुष्य जब अज्ञानवश अपने को शरीर मान लेता है, तभी वह दुःखों का अनुभव करता है। दुःखों का अनुभव करना शरीर का धर्म है। शीत, घाम, वर्षा, भूख, प्यास, वियोग, विछोह आदि अप्रिय परिस्थितियां शरीर को ही व्यापा करती हैं और वही इनका अनुभव करता है। जब मनुष्य अपनी अनुभूतियों को शरीर तक सीमित कर लेता है अथवा अपने को शरीर मान लेता है, तो स्वाभाविक ही है कि शरीर का कष्ट उसे अपना कष्ट अनुभव हो।<br><br>मनुष्य वास्तव में शरीर नहीं है। वह अनादि, अनंत, चैतन्य एवं आनंदस्वरूप आत्मा है। उसमें अज्ञान अथवा दुष्प्रवृत्तियों का कोई विकार नहीं है। वह निर्विकार, एकरस, चेतन तत्त्व है, जिसको न तो शस्त्र काट सकता है, न पानी गीला कर सकता है, न हवा सुखा सकती है और न अग्नि जला सकती है। वह अपनी ज्योति से स्वयं प्रकाशमान ऐसा शिव एवं शाश्वत दीपक है, जिसको न तो विपरीतताएं प्रभावित कर सकती हैं और न काल बुझा सकता है। आत्मा, शरीर, मन, इंद्रियां तथा बुद्धि से भिन्न अविनाशी तत्त्व है, जो कि सदा-सर्वदा स्वयं संतुष्ट एवं आनंदित रहता है। उसे सुख के लिए न तो किसी वस्तु की अपेक्षा है और न किसी भोग की आवश्यकता। वह स्वयं ही आनंदस्वरूप एवं शाश्वत है। मनुष्य यही अविचल एवं अविनाशी आत्मा है, शरीर नहीं। अब जो व्यक्ति अज्ञानवश अपने को इस परमपद आत्मा से भिन्न होकर शरीर के निम्नपद पर उतार लाए, तो वह उसकी विकृतियों से त्रस्त होगा ही। मनुष्य अपने को अविकल-अविचल आत्मा समझे, अपने सत्य स्वरूप में विश्वास करे और शरीर को नश्वर संसार का एक अंग मानकर उसके विकल्पनाओं से प्रभावित रहकर दर्शन के रूप में देखें, तो निश्चय ही वह दुःख के बंधनों से मुक्त होकर सुख का अधिकारी बन सकता है।<br><br>वेदांत दर्शन के व्याख्याकार जगद्गुरु शंकर ने दुःखों के निवारण का उपाय मोक्ष बतलाया है। मोक्ष की परिभाषा करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया है कि ‘‘इस सत्य ज्ञान की स्थायी अनुभूति ही मोक्षावस्था है कि आत्मा देश-काल से परे, शरीर तथा मन, बुद्धि से विलग स्वभावतः मुक्त, नित्य एवं अविकल्पी है। ऐसी अनुभूति का साक्षात्कार कर लेने पर मनुष्य का शरीर अथवा मन के विकारों से प्रभावित होना समाप्त हो जाता है।’’<br><br>एक अज्ञात समय से निरंतर शरीर एवं संसार के संसर्ग में रहते-रहते मनुष्य अपने सत्य-स्वरूप आत्मा को ही नहीं भूल गया, अपितु जगत के परम कारण परमात्मा को भी भूल गया है। संसर्गजन्य अविद्या के कारण वह परमात्मा के स्थान पर उसकी माया, इस संसार को ही सत्य समझ बैठा है, जहां दुःख के सिवाय उसे कुछ भी हाथ नहीं लगता।<br><br>इस प्रकार यदि मनुष्य अपने सत्यस्वरूप आत्मा में आस्था रखकर संसार में परिव्याप्त कारणभूत परमात्मा को देखे और उसके दिए हुए पदार्थों, विषयों तथा भोगों को मर्यादापूर्वक भोगते हुए भी उससे अप्रभावित रहने के अभ्यास के साथ जीवनयापन करे, तो निश्चय ही उसके सारे बंधन कट जाएं और वह अपने जीवनकाल में ही मुक्ति, मोक्ष एवं निर्वाण की चिदानंद स्थिति को पा सकता है।<br><br>***<br><br> </div> <div class="magzinHead"> <div style="text-align:center"> <a target="_blank" href="http://literature.awgp.org/book/jeevan_kee_sarvopari_aavashyakata_aatmgyaan/v2.1" title="First"> <b>&lt;&lt;</b> <i class="fa fa-fast-backward" aria-hidden="true"></i></a> &nbsp;&nbsp;|&nbsp;&nbsp; <a target="_blank" href="http://literature.awgp.org/book/jeevan_kee_sarvopari_aavashyakata_aatmgyaan/v2.12" title="Previous"> <b> &lt; </b><i class="fa fa-backward" aria-hidden="true"></i></a>&nbsp;&nbsp;| <input id="text_value" value="13" name="text_value" type="text" style="width:40px;text-align:center" onchange="onchangePageNum(this,event)" lang="english"> <label id="text_value_label" for="text_value">&nbsp;</label><script type="text/javascript" language="javascript"> try{ text_value=document.getElementById("text_value"); text_value.addInTabIndex(); } catch(err) { console.log(err); } try { text_value.val("13"); } catch(ex) { } | &amp;nbsp; &lt;a target="_blank" href="http://literature.awgp.org/book/jeevan_kee_sarvopari_aavashyakata_aatmgyaan/v2.14" title="Next"&gt;&lt;b&gt;&amp;gt;&lt;/b&gt;&lt;i class="fa fa-forward" aria-hidden="true"&gt;&lt;/i&gt;&lt;/a&gt; &amp;nbsp;&amp;nbsp;|&amp;nbsp;&amp;nbsp; &lt;a target="_blank" href="http://literature.awgp.org/book/jeevan_kee_sarvopari_aavashyakata_aatmgyaan/v2.30" title="Last"&gt;&lt;b&gt;&amp;gt;&amp;gt;&lt;/b&gt;&lt;i class="fa fa-fast-forward fa-1x" aria-hidden="true"&gt;&lt;/i&gt; &lt;/a&gt; &lt;/div&gt; &lt;script type="text/javascript"&gt; function onchangePageNum(obj,e) { //alert("/book/jeevan_kee_sarvopari_aavashyakata_aatmgyaan/v2."+obj.value); if(isNaN(obj.value)==false) { if(obj.value&gt;0) { //alert("test"); //alert(cLink); location.replace("/book/jeevan_kee_sarvopari_aavashyakata_aatmgyaan/v2."+obj.value); } } else { alert("Please enter a Numaric Value greater then 0"); } } <div style="float:right;margin-top:-25px"> </div> </div> </div> <div class="row"> <div class="col-lg-12 col-md-12 col-sm-12 bottom-pad-small"> <h4 class="title">&nbsp;Versions&nbsp;</h4> <div class="versionTilesDiv"> <ul class="ProductDB NoMargin" style="margin:0px 0px 0px -20px"> <li> <a target="_blank" href="http://literature.awgp.org/book/jeevan_kee_sarvopari_aavashyakata_aatmgyaan/v1.1"> <img src="http://literature.awgp.org/var/node/2309/img223.jpg" style="margin-bottom:10px"> <br>HINDI <div style="clear:both;text-align:center;padding:10px 10px 0 10px;border-top:1px solid #cccccc"> जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता आत्म-ज्ञान <br></div> <span style="text-align:center;font-size:12px;color:#9a9a9a">Scan Book Version<br> </span> </a> </li> <li> <a target="_blank" href="http://literature.awgp.org/book/jeevan_kee_sarvopari_aavashyakata_aatmgyaan/v2.1"> <img src="http://literature.awgp.org/theams/gayatri/img/book.png" style="margin-bottom:10px"> <br> <div style="clear:both;text-align:center;padding:10px 10px 0 10px;border-top:1px solid #cccccc"> जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता आत्मज्ञान<br></div> <span style="text-align:center;font-size:12px;color:#9a9a9a">Text Book Version<br> </span> </a> </li> </ul> </div> </div> </div> <br> <script type="text/javascript"> //show_comment(con); // alert (encode_url); // var page=1; // var sl = new API("comment"); // sl.apiAccess(callAPIdomain+"/api/comments/get?source=comment&url="+encode_url+"&format=json&count=5&page="+page,"commentDiv1"); //alert (callAPIdomain+"/api/comments/get?source=comment&url="+encode_url+"&format=json&count=5"); /*function onclickmoreComments(obj,e) { sl.apiAccess(callAPIdomain+"/api/comments/get?source=comment&url="+encode_url+"&format=json&count=50","commentDiv"); } */ //show_comment("commentdiv",page);

Write Your Comments Here: