शुक्ला जी के अनुसार हिंदी के प्रथम महा कवि कौन है - shukla jee ke anusaar hindee ke pratham maha kavi kaun hai

रामचंद्र शुक्ल के अनुसार चंदबरदाई हैं -

(A) केवल कवित्त के रचयिता

(B) हिंदी के प्रथम महाकवि

(C) केवल दूहा और तोमर के रचयिता

(D) व्याकरण में पारंगत

नीचे दिए गए विकल्पों में से सही उत्तर चुनिए -

  1. (A) और (B)
  2. (B) और (C)
  3. (C) और (D)
  4. (B) और (D)

Answer (Detailed Solution Below)

Option 4 : (B) और (D)

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Teaching Aptitude Mock Test

10 Questions 20 Marks 12 Mins

  • रामचंद्र शुक्ल के अनुसार चंदबरदाई हैं:-
  1. हिंदी के प्रथम महाकवि 
  2. व्याकरण में पारंगत 
  • चंदबरदाई पृथ्वीराजरासो(12 वीं शती ) के रचयिता हैं।

Key Points

  •  पृथ्वीराज रासो पिंगल शैली में लिखा रासो काव्य है। 
  • चंदबरदाई ने पृथ्वीराज चौहान के शौर्य और वीरता के अलावा, संयोगिता के साथ उनकी प्रेम-कहानी का भी सुन्दर वर्णन किया है।

Important Points

  •  आचार्य शुक्ल - "चंदबरदाई हिंदी के प्रथम महाकवि माने जाते हैं और इनका 'पृथ्वीराजरासो' हिंदी का प्रथम महाकाव्य है।
  • इसमें 69 समय(सर्ग) और 68 प्रकार के छंदों का प्रयोग हुआ है।

Additional Information

  •  अन्य आलोचकों का कथन :-
  1. "हिंदी का वास्तविक प्रथम महाकवि चंदबरदाई को ही कहा जा सकता है" - मिश्रबंधु।
  2. "यह एक राजनीतिक महाकाव्य है" - बच्चन सिंह।

Last updated on Nov 25, 2022

University Grants Commission (Minimum Standards and Procedures for Award of Ph.D. Degree) Regulations, 2022 notified. As, per the new regulations, candidates with a 4 years Undergraduate degree with a minimum CGPA of 7.5 can enroll for PhD admissions. The UGC NET Final Result for merged cycles of December 2021 and June 2022 was released on 5th November 2022.Along with the results UGC has also released the UGC NET Cut-Off.  With tis, the exam for the merged cycles of Dec 2021 and June 2022 have conclude. The notification for December 2022 is expected to be out soon. The UGC NET CBT exam consists of two papers - Paper I and Paper II. Paper I consists of 50 questions and Paper II consists of 100 questions. By qualifying this exam, candidates will be deemed eligible for JRF and Assistant Professor posts in Universities and Institutes across the country.

रामचन्द्र शुक्ल के महत्वपूर्ण कथन

इस पोस्ट में आप आचार्य रामचन्द्र शुक्ल (हिंदी साहित्य का इतिहास) के महत्वपूर्ण कथन दिए गए हैं। शुक्ल जी (ramchndr shukl) के ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ (hindi sahity ka etihas) से अक्स्सर सीधे प्रश्न पूंछ लिए जाते हैं, इसलिए इस ग्रंथ को ध्यान से पढ़ना जरुरी है। यहाँ पर उनके इतिहास से इतर कथन नहीं दिए गएं हैं, उसके लिए एक अलग पोस्ट जल्द ही आपके सामने होगी जिसमे शुक्ल जी के आलोचना और निबंधो की महत्वपूर्ण कथनों के बारे में बात होगी।

काल विभाग-

जबकि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही ‘साहित्य का इतिहास’ कहलाता है।

आदिकाल-

प्राकृत की अंतिम अपभ्रंश अवस्था से ही हिन्दी साहित्य का आविर्भाव माना जा सकता है। उस समय जैसे ‘गाथा’ कहने से प्राकृत का बोध होता था वैसे ही ‘दोहा’ या ‘दूहा’ कहने से अपभ्रंश या प्रचलित काव्यभाषा का पद्य समझा जाता था।

अपभ्रंश काव्य-

जब से प्राकृत बोलचाल की भाषा न रह गई तभी से अपभ्रंश साहित्य का आविर्भाव समझना चाहिए।
पहले जैसे ‘गाथा’ या ‘गाहा’ कहने से प्राकृत का बोध होता था वैसे ही पीछे ‘दोहा’ या ‘दूहा’ कहने से अपभ्रंश या लोकप्रचलित काव्यभाषा का बोध होने लगा।
जिस प्रकार सिध्दों की संख्या चौरासी प्रसिद्ध है, उसी प्रकार नाथों की संख्या नौ। अब भी लोग ‘नवनाथ’ और ‘चौरासी सिद्ध ‘ कहते सुने जाते हैं।
कबीर आदि संतों को नाथपंथियों से जिस प्रकार ‘साखी’ और ‘बानी’ शब्द मिले, उसी प्रकार ‘साखी’ और ‘बानी’ के लिए बहुत कुछ सामग्री और ‘सधुक्कड़ी’ भाषा भी।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के हिंदी साहित्य का इतिहास को Downlod करें

पृथ्वीराज रासो-

इतिहासविरुद्ध कल्पित घटनाएँ जो भरी पड़ी हैं उनके लिए क्या कहा जा सकता है? माना कि रासो इतिहास नहीं है, काव्यग्रंथ है। पर काव्यग्रंथों में सत्य घटनाओं में बिना किसी प्रयोजन के कोई उलट-फेर नहीं किया जाता।
इस संबंध में इसके अतिरिक्त और कुछ कहने की जगह नहीं कि यह पूरा ग्रंथ वास्तव में जाली है।
भाषा की कसौटी पर यदि ग्रंथ को कसते हैं तो और भी निराश होना पड़ता है क्योंकि वह बिल्कुल बेठिकाने है उसमें व्याकरण आदि की कोई व्यवस्था नहीं है।

विद्यापति-

आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने ‘गीतगोविंद’ के पदों को आध्यात्मिक संकेत बताया है, वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी। सूर आदि कृष्णभक्तों के श्रृंगारी पदों की भी ऐसे लोग आध्यात्मिक व्याख्या चाहते हैं।

पूर्व मध्य काल : भक्ति काल-

भक्ति का जो सोता दक्षिण की ओर से धीरे-धीरे उत्तर भारत की ओर पहले से ही आ रहा था उसे राजनीतिक परिवर्तन के कारण शून्य पड़ते हुए जनता के हृदय क्षेत्र में फैलने के लिए पूरा स्थान मिला।
भक्ति के आंदोलन की जो लहर दक्षिण से आई उसी ने उत्तर भारत की परिस्थिति के अनुरूप हिंदू मुसलमान दोनों के लिए एक सामान्य भक्तिमार्ग की भी भावना कुछ लोगों में जगाई।

कबीर-

कबीर ने जिस प्रकार एक निराकार ईश्वर के लिए भारतीय वेदांत का पल्ला पकड़ा उसी प्रकार उस निराकार ईश्वर की भक्ति के लिए सूफियों का प्रेमतत्व लिया और अपना ‘निर्गुणपंथ’ धूमधाम से निकाला।
इसमें कोई संदेह नहीं कि कबीर ने ठीक मौके पर जनता के उस बड़े भाग को सँभाला जो नाथपंथियों के प्रभाव से प्रेमभाव और भक्तिरस से शून्य और शुष्क पड़ता जा रहा था। उनके द्वारा यह बहुत ही आवश्यक कार्य हुआ।
कबीर ने अपनी झाड़-फटकार के द्वारा हिंदुओं और मुसलमानों की कट्टरता को दूर करने का जो प्रयास किया। वह अधिकतर चिढ़ाने वाला सिद्ध हुआ, हृदय को स्पर्श करने वाला नहीं।

जायसी-

मनुष्य मनुष्य के बीच जो रागात्मक संबंध है वह उसके द्वारा व्यक्त न हुआ। अपने नित्य के जीवन में जिस हृदयसाम्य का अनुभव मनुष्य कभी कभी किया करता है, उसकी अभिव्यंजना उससे न हुई। कुतबन, जायसी आदि इन प्रेम कहानी के कवियों ने प्रेम का शुद्ध मार्ग दिखाते हुए उन सामान्य जीवन दशाओं को सामने रखा जिनका मनुष्यमात्र के हृदय पर एक सा प्रभाव दिखाई पड़ता है। हिंदू हृदय और मुसलमान हृदय आमने सामने करके अजनबीपन मिटानेवालों में इन्हीं का नाम लेना पड़ेगा। इन्होंने मुसलमान होकर हिंदुओं की कहानियाँ हिंदुओं की ही बोली में पूरी सहृदयता से कहकर उनके जीवन की मर्मस्पर्शी अवस्थाओं के साथ अपने उदार हृदय का पूर्ण सामंजस्य दिखा दिया। कबीर ने केवल भिन्न प्रतीत होती हुई परोक्ष सत्ता की एकता का आभास दिया था। प्रत्यक्ष जीवन की एकता का दृश्य सामने रखने की आवश्यकता बनी थी। यह जायसी द्वारा पूरी हुई।

पद्मावत-

प्रेमगाथा की परम्परा में पद्मावत सबसे प्रौढ़ और सरस है।
इसमें इतिहास और कल्पना का योग है।
इस कहानी का पूर्वार्ध्द तो बिल्कुल कल्पित है और उत्तरार्ध्द ऐतिहासिक आधार पर है।
यद्यपि पद्मावत की रचना संस्कृत प्रबंधकाव्यों की सर्गबद्ध पद्धति पर नहीं है, फारसी की मसनवी शैली पर है, पर श्रृंगार, वीर आदि के वर्णन चली आती हुई भारतीय काव्यपरंपरा के अनुसार ही हैं। इसका पूर्वार्ध्द तो एकांत प्रेममार्ग का ही आभास देता है, पर उत्तरार्ध्द में लोकपक्ष का भी विधान है।

तुलसीदास-

जिन्हें भाषा की परख है उन्हें यह देखते देर न लगेगी कि तुलसीदास जी की भाषा में ऐसे शब्द, जो स्थान विशेष के बाहर नहीं बोले जाते हैं, केवल दो स्थानों के हैं चित्रकूट के आसपास के और अयोध्या के आसपास के। किसी कवि की रचना में यदि किसी स्थान विशेष के भीतर ही बोले जाने वाले अनेक शब्द मिलें तो उस स्थान विशेष से कवि का निवास संबंध मानना चाहिए।
गोस्वामी जी के प्रादुर्भाव को हिन्दी काव्य क्षेत्र में एक चमत्कार समझना चाहिए। हिन्दी काव्य की शक्ति का पूर्ण प्रसार इनकी रचनाओं में ही पहले पहल दिखाई पड़ा।
‘गीतावली’ की रचना गोस्वामी जी ने सूरदास जी के अनुकरण पर की है। बाललीला के कई एक पद ज्यों के त्यों सूरसागर में भी मिलते हैं, केवल ‘राम’ ‘श्याम’ का अंतर है।
जायसी में केवल ठेठ अवधी का माधुर्य है, पर गोस्वामी जी की रचना में संस्कृत की कोमल पदावली का भी बहुत ही मनोहर मिश्रण है।
भारतीय जनता का प्रतिनिधि कवि यदि किसी को कह सकते हैं तो इन्हीं महानुभाव को।सगुण धारा की भारतीय पद्धति के भक्तों में कबीर, दादू आदि के लोकधर्म विरोधी स्वरूप को यदि किसी ने पहचाना तो गोस्वामी जी ने।
गोस्वामी जी की भक्तिपद्धति की सबसे बड़ी विशेषता है उसकी सर्वांगपूर्णता। जीवन के किसी पक्ष को सर्वथा छोड़कर वह नहीं चलती है। सब पक्षों के साथ उसका सामंजस्य है। न उनका कर्म या धर्म से विरोध है, न ज्ञान से। धर्म तो उसका नित्यलक्षण है।
‘मानस’ के बालकांड में संत समाज का जो लंबा रूपक है वह इस बात को स्पष्ट रूप में सामने लाता है। भक्ति की चरम सीमा पर पहुँचकर भी लोकपक्ष उन्होंने नहीं छोड़ा। लोकसंग्रह का भाव उनकी भक्ति का एक अंग था। कृष्णोपासक भक्तों में इस अंग की कमी थी।

रामचरित मानस-

1. कथाकाव्य के सब अवयवों का उचित समीकरण।
2. कथा के मार्मिक स्थलों की पहचान।
3. प्रसंगानुकूल भाषा।
4. श्रृंगार की शिष्ट मर्यादा के भीतर बहुत ही व्यंजक वर्णन।
‘रामचरितमानस’ के भीतर कहीं कहीं घटनाओं के थोड़े ही हेर फेर तथा स्वकल्पित संवादों के समावेशों के अतिरिक्त अपनी ओर से छोटी मोटी घटनाओं या प्रसंगों की नई कल्पना तुलसीदास जी ने नहीं की है।
‘रामचरितमानस’ में तुलसी केवल कवि रूप में ही नहीं, उपदेशक के रूप में भी सामने आते हैं। उपदेश उन्होंने किसी न किसी पात्र के मुख से कराए हैं।

सूरदास-

‘सूरसागर’ में जगह जगह दृष्टिकूट वाले पद मिलते हैं। यह भी विद्यापति का अनुकरण है।
जिस प्रकार रामचरित का गान करने वाले कवियों में गोस्वामी तुलसीदास जी का स्थान सर्वश्रेष्ठ है उसी प्रकार कृष्णचरित गानेवाले भक्त कवियों में महात्मा सूरदास जी का। वास्तव में ये हिन्दी काव्य गगन के सूर्य और चंद्र हैं।
श्रृंगार और वात्सल्य के क्षेत्र में जहाँ तक इनकी दृष्टि पहुँची वहाँ तक और कोई किसी कवि की नहीं। इन दोनों क्षेत्रों में तो इस महाकवि ने मानो औरों के लिए कुछ छोड़ा ही नहीं।
वात्सल्य के समान ही श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का इतना प्रचुर विस्तार और किसी कवि में नहीं।सूर की बड़ी भारी विशेषता है नवीन प्रसंगों की उद्भावना। प्रसंगोद्भावना करने वाली ऐसी प्रतिभा हम तुलसी में नहीं पाते।
सूरसागर का सबसे मर्मस्पर्शी और वाग्वैदग्धपूर्ण अंश ‘भ्रमरगीत’ है जिसमें गोपियों की वचनवक्रता अत्यंत मनोहारिणी है। ऐसा सुंदर उपालंभ काव्य और कहीं नहीं मिलता।
वात्सल्य के क्षेत्र में जितना अधिक उद्घाटन सूर ने अपनी बन्द आँखों से किया, इतना किसी और कवि ने नहीं। इन क्षेत्रों का तो वे कोना-कोनाझाँक आए।

केशवदास-

संबंधनिर्वाह की क्षमता केशव में न थी।
दृश्यों की स्थानगत विशेषता (Local Colour) केशव की रचनाओं में ढूँढ़ना तो व्यर्थ ही है।
प्रबंधकाव्य रचना के योग्य न तो केशव में अनुभूति ही थी, न शक्ति।
केशव की दृष्टि जीवन के गंभीर और मार्मिक पक्ष पर न थी।
रामचंद्रिका में केशव को सबसे अधिक सफलता हुई है संवादों में।

रहीम-

उनमें भारतीय प्रेमजीवन की सच्ची झलक है।
भाषा पर तुलसी का सा ही अधिकार हम रहीम का भी पाते हैं।

बिहारीलाल-

श्रृंगाररस के ग्रंथों में जितनी ख्याति और जितना मान ‘बिहारी सतसई’ का हुआ उतना और किसी का नहीं। इसका एक एक दोहा हिन्दी साहित्य में एक एक रत्न माना जाता है।
किसी कवि का यश उसकी रचनाओं के परिमाण के हिसाब से नहीं होता, गुण के हिसाब से होता है।
यदि प्रबंधकाव्य एक विस्तृत वनस्थली है तो मुक्तक एक चुना हुआ गुलदस्ता है।
बिहारी की भाषा चलती होने पर भी साहित्यिक है।
‘भूषण’ और ‘देव’ ने शब्दों का बहुत अंग भंग किया है और कहीं कहीं गढ़ंत शब्दों का व्यवहार किया है। बिहारी की भाषा इस दोष से भी बहुत कुछ मुक्त है।

आलम-

ये प्रेमोन्मत्त कवि थे और अपनी तरंग के अनुसार रचना करते थे।
श्रृंगार रस की ऐसी उन्मादमयी उक्तियाँ इनकी रचना में मिलती हैं कि पढ़ने और सुननेवाले लीन हो जाते हैं।
प्रेम की तन्मयता की दृष्टि से आलम की गणना ‘रसखान’ और ‘घनानंद’ की कोटि में ही होनी चाहिए।
‘प्रेम की पीर’ या ‘इश्क का दर्द’ इनके एकएक वाक्य में भरा पाया जाता है।

घनआनंद-

ये साक्षात् रस मूर्ति और ब्रजभाषा काव्य के प्रधान स्तंभों में हैं।
ये वियोग श्रृंगार के प्रधान मुक्तक कवि हैं। ‘प्रेम की पीर’ ही को लेकर इनकी वाणी का प्रादुर्भाव हुआ। प्रेममार्ग का ऐसा प्रवीण और धीर पथिक तथा जबाँदानी का ऐसा दावा रखने वाला ब्रजभाषा का दूसरा कवि नहीं हुआ।
भाषा पर जैसा अचूक अधिकार इनका था वैसा और किसी कवि का नहीं।
घनानंद जी उन विरले कवियों में हैं जो भाषा की व्यंजकता बढ़ाते हैं।
अपनी भावनाओं के अनूठे रूपरंग की व्यंजना के लिए भाषा का ऐसा बेधाड़क प्रयोग करनेवाला हिन्दी के पुराने कवियों में दूसरा नहीं हुआ। भाषा के लक्षक और व्यंजक बल की सीमा कहाँ तक है, इसकी पूरी परख इन्हीं को थी।
लक्षणा का विस्तृत मैदान खुला रहने पर भी हिन्दी कवियों ने उसके भीतर बहुत ही कम पैर बढ़ाया। एक घनानंद ही ऐसे कवि हुए हैं जिन्होंने इस क्षेत्र में अच्छी दौड़ लगाई।

खड़ी बोली का गद्य-

देश के भिन्न भिन्न भागों में मुसलमानों के फैलने तथा दिल्ली की दरबारी शिष्टता के प्रचार के साथ ही दिल्ली की खड़ी बोली शिष्ट समुदाय के परस्पर व्यवहार की भाषा हो चली थी।
किसी भाषा का साहित्य में व्यवहार न होना इस बात का प्रमाण नहीं है कि उस भाषा का अस्तित्व ही नहीं था।अकबर और जहाँगीर के समय में ही खड़ी बोली भिन्न भिन्न प्रदेशों में शिष्ट समाज के व्यवहार की भाषा हो चली थी। यह भाषा उर्दू नहीं कही जा सकती; यह हिन्दी खड़ी बोली है।
विक्रम संवत् 1798 में रामप्रसाद ‘निरंजनी’ ने ‘भाषायोगवासिष्ठ’ नाम का ग्रंथ साफ सुथरी खड़ी बोली में लिखा।’भाषायोगवासिष्ठ’ को परिमार्जित गद्य की प्रथम पुस्तक और राम प्रसाद निरंजनी को प्रथम प्रौढ़ गद्यलेखक मान सकते हैं।
1860 में फोर्ट विलियम कॉलेज (कलकत्ता) के हिन्दी उर्दू अध्यापक जान गिलक्राइस्ट ने देशी भाषा की गद्य पुस्तकें तैयार कराने की व्यवस्था की तब उन्होंने उर्दू और हिन्दी दोनों के लिए अलग अलग प्रबंध किया।
खड़ी बोली गद्य को एक साथ आगे बढ़ानेवाले चार महानुभाव हुए हैं , मुंशी सदासुख लाल, सैयद इंशाअल्ला खाँ, लल्लूलाल और सदल मिश्र।

मुंशी सदासुखलाल ‘नियाज’-

उन्होंने अपने हिन्दी गद्य में कथावाचकों, पंडितों और साधु संतों के बीच दूर दूर तक प्रचलित खड़ी बोली का रूप रखा, जिसमें संस्कृत शब्दों का पुट भी बराबर रहता था। इसी संस्कृतमिश्रित हिन्दी को उर्दूवाले ‘भाषा’ कहते थे।

इंशाअल्ला खाँ–

इंशा का उद्देश्य ठेठ हिन्दी लिखने का था जिसमें हिन्दी को छोड़कर और किसी बोली का पुट न रहे।इंशा ने अपनी भाषा को तीन प्रकार के शब्दों से मुक्त रखने की प्रतिज्ञा की है, बाहर की बोली अरबी, फारसी, तुरकी। गँवारी = ब्रजभाषा, अवधी आदि। भाखापन = संस्कृत के शब्दों का मेल।
आरंभकाल के चारों लेखकों में इंशा की भाषा सबसे चटकीली, मटकीली, मुहावरेदार और चलती है।

लल्लूलालजी-

इंशा के समान इन्होंने केवल ठेठ हिन्दी लिखने का संकल्प तो नहीं किया था पर विदेशी शब्दों के न आने देने की प्रतिज्ञा अवश्य लक्षित होती है।
यद्यपि मुंशी सदासुखलाल ने भी अरबीफारसी के शब्दों का प्रयोग न कर संस्कृतमिश्रित साधु भाषा लिखने का प्रयत्न किया है पर लल्लूलाल की भाषा से उसमें बहुत कुछ भेद दिखाई पड़ता है।
मुंशीजी की भाषा साफसुथरी खड़ी बोली है पर लल्लूलाल की भाषा कृष्णोपासक व्यासों की-सी ब्रजरंजित खड़ी बोली है।
अकबर के समय में गंग कवि ने जैसी खड़ी बोली लिखी थी वैसी ही खड़ी बोली लल्लूलाल ने भी लिखी। दोनों की भाषाओं में अंतर इतना ही है कि गंग ने इधर उधर फारसी अरबी के प्रचलित शब्द भी रखे हैं पर लल्लूलालजी ने ऐसे शब्द बचाए हैं।
सारांश यह कि लल्लूलालजी का ‘काव्याभास’ गद्यभक्तों की कथावार्ता के काम का ही अधिकतर है, न नित्य व्यवहार के अनुकूल है, न संबद्ध विचारधारा के योग्य।
लल्लूलाल ने उर्दू, खड़ी बोली हिन्दी और ब्रजभाषा तीनों में गद्य की पुस्तकें लिखीं। ये संस्कृत नहीं जानते थे।

सदल मिश्र-

लल्लूलाल के समान इनकी भाषा में न तो ब्रजभाषा के रूपों की वैसी भरमार है और न परंपरागत काव्य भाषा की पदावली का स्थान स्थान पर समावेश। इन्होंने व्यवहारोपयोगी भाषा लिखने का प्रयत्न किया है और जहाँ तक हो सकता है खड़ी बोली का ही व्यवहार किया है। पर इनकी भाषा भी साफ सुथरी नहीं। ब्रजभाषा के भी कुछ रूप हैं और पूरबी बोली के शब्द तो स्थान स्थान पर मिलते हैं।
गद्य की एक साथ परंपरा चलाने वाले उपर्युक्त चार लेखकों में से आधुनिक हिन्दी का पूरा पूरा आभास मुंशी सदासुखलाल और सदल मिश्र की भाषा में ही मिलता है। व्यवहारोपयोगी इन्हीं की भाषा ठहरती है। इन दो में मुंशी सदासुख की साधु भाषा अधिक महत्व की है। मुंशी सदासुख ने लेखनी भी चारों में पहले उठाई अत: गद्य का प्रवर्तन करनेवालों में उनका विशेष स्थान समझना चाहिए।

गद्य साहित्य का आविर्भाव-

‘मानवधर्मसार’ की भाषा राजा शिवप्रसाद की स्वीकृत भाषा नहीं है। प्रारंभकाल से ही वे ऐसी चलती ठेठ हिन्दी के पक्षपाती थे जिसमें सर्वसाधारण के बीच प्रचलित अरबीफारसी शब्दों का भी स्वच्छंद प्रयोग हो। यद्यपि अपने ‘गुटका’ में जो साहित्य की पाठयपुस्तक थी उन्होंने थोड़ी संस्कृत मिली ठेठ और सरल भाषा का ही आदर्श बनाए रखा, पर संवत् 1917 के पीछे उनका झुकाव उर्दू की ओर होने लगा जो बराबर बना क्या रहा, कुछ न कुछ बढ़ता ही गया।
किसी देश के साहित्य का संबंध उस देश की संस्कृति परंपरा से होता है। अत: साहित्य की भाषा उस संस्कृति का त्याग करके नहीं चल सकती। भाषा में जो रोचकता या शब्दों में जो सौंदर्य का भाव रहता है वह देश की प्रकृति के अनुसार होता है।
जिस प्रकार इधर संयुक्त प्रांत में राजा शिवप्रसाद शिक्षाविभाग में रहकर हिन्दी की किसी न किसी रूप में रक्षा कर रहे थे उसी प्रकार पंजाब में बाबू नवीनचंद्र राय महाशय कर रहे थे।
राजा शिवप्रसाद ‘आमफहम’ और ‘खासपसंद’ भाषा का उपदेश ही देते रहे, उधर हिन्दी अपना रूप आप स्थिर कर चली।

आधुनिक गद्य साहित्य परंपरा का प्रवर्तन प्रथम उत्थान-

आधुनिक काल में गद्य का आविर्भाव सबसे प्रधान घटना है।
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने वर्तमान हिन्दी गद्य के प्रवर्तक माने गए। मुंशी सदासुख की भाषा साधु होते हुए भी पंडिताऊपन लिए थी, लल्लूलाल में ब्रजभाषापन और सदल मिश्र में पूरबीपन था। राजा शिवप्रसाद का उर्दूपन शब्दों तक ही परिमित न था वाक्यविन्यास तक में घुसा था, राजा लक्ष्मणसिंह की भाषा विशुद्ध  और मधुर तो अवश्य थी, पर आगरे की बोलचाल का पुट उसमें कम न था। भाषा का निखरा हुआ सामान्य रूप भारतेंदु की कला के साथ ही प्रकट हुआ।
पं. प्रतापनारायण मिश्र की प्रकृति विनोदशील थी अत: उनकी भाषा बहुत स्वच्छंद गति से बोलचाल की चपलता और भावभंगिमा लिए चलती है। हास्य विनोद की उमंग में वह कभी कभी मर्यादा का अतिक्रमण करती, पूरबी कहावतों और मुहावरों की बौछार भी छोड़ती चलती है।
पं. बालकृष्ण भट्ट की भाषा अधिकतर वैसी ही होती थी जैसी खरी खरी सुनाने में काम में लाई जाती है।
हरिश्चंद्र तथा उनके समसामयिक लेखकों में जो एक सामान्य गुण लक्षित होता है वह है सजीवता या जिंदादिली। सब में हास्य या विनोद की मात्रा थोड़ी या बहुत पाई जाती है।
विलक्षण बात यह है कि आधुनिक गद्य साहित्य की परंपरा का प्रवर्तन नाटकों से हुआ।
खेद के साथ कहना पड़ता है कि भारतेंदु के समय में धूम से चली हुई नाटकों की वह परंपरा आगे चलकर बहुत शिथिल पड़ गई।
पं. शीतलाप्रसाद त्रिपाठीकृत ‘जानकीमंगल नाटक’ का जो धूमधाम से अभिनय हुआ था उसमें भारतेंदु जी ने पार्ट लिया था।
प्रतापनारायण मिश्र का अपने पिता से अभिनय के लिए मूँछ मुड़ाने की आज्ञा माँगना प्रसिद्ध ही है।
अंग्रेजी ढंग का मौलिक उपन्यास पहले पहल हिन्दी में लाला श्रीनिवासदास का ‘परीक्षागुरु’ ही निकला था।
‘ब्राह्मण’ संपादक पं. प्रतापनारायण मिश्र को ग्राहकों से चंदा माँगते माँगते थककर कभी कभी पत्र में इस प्रकार याचना करनी पड़ती थी- ‘आठ मास बीते, जजमान! अब तौ करौ दच्छिना दान’

भारतेंदु-

नाटक के संदर्भ में- प्राचीन और नवीन का ही सुंदर सामंजस्य भारतेंदु की कला का विशेष माधुर्य है।
अपने समय के सब लेखकों में भारतेंदु की भाषा साफ सुथरी और व्यवस्थित होती थी।

प्रतापनारायण मिश्र और बालकृष्ण भट्ट-

पं. प्रतापनारायण मिश्र और बालकृष्ण भट्ट ने हिन्दी गद्य साहित्य में वही काम किया है जो अंग्रेजी गद्य साहित्य में एडीसन और स्टील ने किया था।

उपाधयाय पं. बदरीनारायण चौधारी-

उपाधयाय पं. बदरीनारायण चौधारी (प्रेमघन) की शैली सबसे विलक्षण थी। ये गद्य रचना को एक कला के रूप में ग्रहण करने वाले, कलम की कारीगरी समझने वाले, लेखक थे और कभी कभी ऐसे पेचीले मजमून बाँधाते थे कि पाठक एक एक, डेढ़ डेढ़ कॉलम के लंबे वाक्य में उलझा रह जाता था। अनुप्रास और अनूठे पदविन्यास की ओर भी उनका ध्यान रहता था। किसी बात को साधारण ढंग से कहे जाने को ही वे लिखना नहीं कहते थे।
समालोचना का सूत्रपात हिन्दी में एक प्रकार से भट्टजी और चौधारी साहब ने ही किया। समालोच्य पुस्तक के विषयों का अच्छी तरह विवेचन करके उसके गुण दोष के विस्तृत निरूपण की चाल उन्होंने चलाई।

सामान्य परिचय-

हमारा हिन्दी साहित्य पं.महावीरप्रसाद द्विवेदी का सदा ऋणी रहेगा। व्याकरण की शुद्धता और भाषा की सफाई के प्रवर्तक द्विवेदीजी ही थे। ‘सरस्वती’ के संपादक के रूप में उन्होंने आई हुई पुस्तकों के भीतर व्याकरण और भाषा की अशुद्धियाँ दिखाकर लेखकों को बहुत कुछ सावधान कर दिया।

मौलिक उपन्यास-

हिन्दी साहित्य के इतिहास में बाबू देवकीनंदन का स्मरण इस बात के लिए सदा बना रहेगा कि जितने पाठक उन्होंने उत्पन्न किए उतने और किसी ग्रंथकार ने नहीं। चंद्रकांता पढ़ने के लिए न जाने कितने उर्दूजीवी लोगों ने हिन्दी सीखी। चंद्रकांता पढ़ चुकने पर वे ‘चंद्रकांता’ की किस्म की कोई किताब ढूँढ़ने में परेशान रहते थे। शुरू शुरू में चंद्रकांता और ‘चंद्रकांता संतति’ पढ़कर न जाने कितने नवयुवक हिन्दी के लेखक हो गए।

पं. किशोरी लाल गोस्वामी-

साहित्य की दृष्टि से उन्हें हिन्दी का पहला उपन्यासकार कहना चाहिए।

छोटी कहानियाँ-

यदि मार्मिकता की दृष्टि से भावप्रधान कहानियों को चुनें तो तीन मिलती हैं, ‘इंदुमती’, ‘ग्यारह वर्ष का समय’ और ‘दुलाईवाली’। यदि ‘इंदुमती’ किसी बँग्ला कहानी की छाया नहीं है तो हिन्दी की यही पहली मौलिक कहानी ठहरती है। इसके उपरांत ‘ग्यारह वर्ष का समय’ फिर ‘दुलाईवाली’ का नंबर आता है।

निबंध-

यदि गद्य कवियों या लेखकों की कसौटी है तो निबंध गद्य की कसौटी है। भाषा की पूर्ण शक्ति का विकास निबंधों में ही सबसे अधिक संभव होता है।
पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी के अधिकतर लेख ‘बातों के संग्रह’ के रूप में ही हैं। भाषा के नूतन शक्ति चमत्कार के साथ नए नए विचारों की उद्भावना वाले निबंध बहुत ही कम मिलते हैं।
द्विवेदीजी के लेखों को पढ़ने से ऐसा जान पड़ता है कि लेखक बहुत मोटी अक्ल के पाठकों के लिए लिख रहा है। एक एक सीधी बात कुछ हेरफेर, कहीं-कहीं केवल शब्दों के ही, साथ पाँच छह तरह के पाँच छह वाक्यों में कही हुई मिलती है।

समालोचना-

हिन्दी साहित्य में समालोचना पहले पहल केवल गुण दोष दर्शन के रूप में प्रकट हुई। लेखों के रूप में इसका सूत्रपात बाबू हरिश्चंद्र के समय में ही हुआ। लेख के रूप में पुस्तकों की विस्तृत समालोचना उपाधयाय पं. बद्रीनारायण चौधरी ने अपनी ‘आनंदकादंबिनी’ में शुरू की।
किसी ग्रंथकार के गुण अथवा दोष ही दिखलाने के लिए कोई पुस्तक भारतेंदु के समय में न निकली थी। इस प्रकार की पहली पुस्तक पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी  ‘हिन्दी कालिदास की आलोचना’ थी जो इस द्वितीय उत्थान के आरंभ में ही निकली।

गद्य साहित्य की वर्तमान गति : तृतीय उत्थान-

यह ठीक है कि विज्ञान की साधना द्वारा संसार के वर्तमान युग का बहुत सा रूप योरप का खड़ा किया हुआ है। पर इसका क्या यह मतलब है कि युग का सारा रूपविधान योरप ही करे और हम आराम से जीवन के सब क्षेत्रों में उसी के दिए हुए रूप को लेकर रूपवान बनते चलें? क्या अपने स्वतंत्र स्वरूपविकास की हमारी शक्ति सब दिन के लिए मारी गई?
आजकल भाषा की भी बुरी दशा है। बहुत से लोग शुद्ध भाषा लिखने का अभ्यास होने के पहले ही बड़े बड़े पोथे लिखने लगते हैं जिनमें व्याकरण की भद्दी भूलें तो रहती ही हैं, कहीं कहीं वाक्यविन्यास तक ठीक नहीं रहता। यह बात और किसी भाषा के साहित्य में शायद ही देखने को मिले। व्याकरण की भूलों तक ही बात नहीं है। अपनी भाषा की प्रकृति की पहचान न रहने के कारण कुछ लोग उसका स्वरूप भी बिगाड़ चले हैं। वे अंग्रेजी के शब्द, वाक्य और मुहावरे तक ज्यों के त्यों उठाकर रख देते हैं, यह नहीं देखने जाते कि हिन्दी हुई या और कुछ।

उपन्यास/ कहानी-

अंग्रेजी ढंग का मौलिक उपन्यास पहले-पहले हिन्दी  में लाला श्रीनिवास दास का परीक्षा गुरु निकला था।
साहित्य को राजनीति के ऊपर रहना चाहिए; सदा उसके इशारों पर ही न नाचना चाहिए।

आलोचना-

यदि हम काव्य को ही लें तो इस ‘अभिव्यंजनावाद’ को ‘वाग्वैचित्रयवाद’ ही कह सकते हैं और इसे अपने यहाँ के पुराने ‘वक्रोक्तिवाद’ का विलायती उत्थान मान सकते हैं।

कविता (भरतेंदुयुग)-

भारतेंदु हरिश्चंद्र ने जिस प्रकार गद्य की भाषा का स्वरूप स्थिर करके गद्य साहित्य को देशकाल के अनुसार नए नए विषयों की ओर लगाया, उसी प्रकार कविता की धारा को भी नए नए क्षेत्रों की ओर मोड़ा। इस नए रंग में सबसे ऊँचा स्वर देशभक्ति की वाणी का था। उसी से लगे हुए विषय लोकहित, समाजसुधार, मातृभाषा का उध्दार आदि थे। हास्य और विनोद के नए विषय भी इस काल में कविता को प्राप्त हुए।
भारतेंदुजी ने हिन्दी काव्य को केवल नए नए विषयों की ओर ही उन्मुख किया, उसके भीतर किसी नवीन विधान या प्रणाली का सूत्रपात नहीं किया।
गद्य को जिस परिमाण में भारतेंदु ने नए नए विषयों और मार्गाें की ओर लगाया उस परिमाण में पद्य को नहीं।भारतेंदु के सहयोगी लेखक यद्यपि देशकाल के अनुकूल नए नए विषयों की ओर प्रवृत्त हुए, पर भाषा उन्होंने परंपरा से चली आती हुई ब्रजभाषा ही रखी और छंद भी वे ही लिए जो ब्रजभाषा में प्रचलित थे।

मैथिलीशरण गुप्त-

गुप्त जी वास्तव में सामंजस्यवादी कवि है;प्रतिक्रिया का प्रदर्शन करने वाले अथवा मद में झूमाने वाले कवि नहीं हैं। सब प्रकार की उच्चता से प्रभावित होने वाला हृदय उन्हें प्राप्त है। प्राचीन के प्रति पूज्य भाव और नवीन के प्रति उत्साह दोनों इनमें है।” 

छायावाद-

छायावाद शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिए। एक तो रहस्यवाद के अर्थ में, जहाँ उसका सम्बन्ध काव्य वस्तु से होता है अर्थात जहाँ कवि उस अनन्त और अज्ञात प्रियतम को आलम्बन बनाकर अत्यन्त चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है। छायावाद शब्द का दूसरा प्रयोग काव्य-शैली या पद्धति विशेष की व्यापक अर्थ में हैं।
‘छायावाद’ नाम चल पड़ने का परिणाम यह हुआ कि बहुत से कवि रहस्यात्मकता, अभिव्यंजना के लाक्षणिक वैचित्रय, वस्तुविन्यास की विशृंखलता, चित्रमयी भाषा और मधुमयी कल्पना को ही साधय मानकर चले।
पन्त, प्रसाद, निराला इत्यादि और सब कवि प्रतीक-पद्धति या चित्रभाषा शैली की दृष्टि से ही छायावादी कहलाए।छायावाद का चलन द्विवेदी काल की रूखी इतिवृत्तात्मकता की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था।
छायावाद का केवल पहला अर्थात मूल अर्थ लिखकर तो हिन्दी काव्य-क्षेत्र में चलने वाली सुश्री महादेवी वर्मा ही हैं।
छायावाद का सामान्यतः अर्थ हुआ प्रस्तुत के स्थान पर उसकी व्यंजना करने वाली छाया के रूप में अप्रस्तुत का कथन।
छायावाद की प्रवृत्ति अधिकतर प्रेमगीतात्मक है।

जयशंकर प्रसाद-

इनकी रहस्यवादी रचनाओं को देख चाहेतो यह कहें कि इनकी मधुवर्षा के मानस प्रचार के लिए रहस्यवाद का परदा मिल गया अथवा यों कहें कि इनकी सारी प्रणयानूभूति ससीम पर से कूदकर असीम पर जा रही।

महादेवी वर्मा-

इस वेदना को लेकर उन्होंने ह्रदय की ऐसी अनुभूतियाँ सामने रखीं, जो लोकोत्तर हैं। कहाँ तक वे वास्तविक अनुभूतियाँ हैं और कहाँ तक अनुभूतियों की रमणीय कल्पना, यह नहीं कहा जा सकता।

शुक्ल के अनुसार हिंदी के प्रथम कवि कौन है?

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार हिंदी के प्रथम कवि कौन हैं? अमीर खुसरो, मीरां, तुलसी, सूर आदि कई कवि हैं जिन्होंने आधुनिक हिंदी से पहले लिखा और हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। लेकिन सिद्ध सरहपा को अधिकतर साहित्यकारों ने हिंदी का पहला कवि माना जाता है।

शुक्ला जी के अनुसार हिंदी के प्रथम महाकाव्य कौन हैं?

हिंदी का प्रथम महाकाव्य — पृथ्वीराज रासो (चंदबरदाई)

हिंदी के पहले कवि कौन है?

हिन्दी के प्रथम कवि सरहपा हैं। अत: सही उत्तर विकल्प 3 सरहपा है। हिन्दी के प्रथम कवि--- सरहपा। राहुल सांकृत्यायन ने हिंदी का प्रथम कवि जैन साहित्य के रचयिता सरहपा को माना है जिनका जन्मकाल 8वीं शदी माना जाता है ।

हिंदी के महान कवि कौन है?

हिंदी साहित्य के आधुनिक युग के कुछ प्रमुख कवि हैं—जयशंकर प्रसाद, सुमित्रा नंदन पंत, महादेवी वर्मा, सूर्य कांत त्रिपाठी निराला, सुभद्रा कुमारी चौहान, माखन लाल चतुर्वेदी, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध, मैथिली शरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, गजानन माधव मुक्तिबोध, सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय, धर्मवीर भारती, सुदामा ...

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