वर्तमान समय में बढ़ते प्रदूषण और पर्यावरण का ह्रास विकास का पर्याय बन गया है। वैसे शहर जो 10 वर्ष पूर्व साफ और स्वच्छ हुआ करते थे, आज विकास के कारण प्रदूषित हो गए हैं। छोटे शहर तो दूर गाँव की छोटी-छोटी नदियाँ भी प्रदूषित हो चुकी है। बढ़ती जनसंख्या के कारण विकास की इस प्रक्रिया को रोक नहीं सकते, लेकिन ऐसे विकास से उत्पन्न समस्याएँ अंततः विकास का अंत करती नजर आती है। संपोषणीय विकास इन्हीं समस्याओं से निजात पाने के लिए विकास की संकल्पना है।
संपोषणीय विकास की संकल्पना का विकास :
औद्योगिक क्रांति के पश्चात् जहाँ अमीरी-गरीबी के बीच असमानता बढ़ी वहीं पर्यावरण निम्नीकरण से प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हुई। इन समस्याओं के कारण पर्यावरणविदों और अर्थशास्त्रियों के समक्ष चुनौती उत्पन्न किया। 'सियरा क्लब' और 'क्लब ऑफ़ रोम' ने विकास की नई अवधारणा विकसित की, जिसने लोगों का ध्यान आकृष्ट किया। मिडोस की अध्यक्षता में जे फॉस्टेक की सहायता से 'लिमिट्स टू ग्रोथ' नामक पुस्तक प्रकाशित हुई, जिसमें यह स्पष्ट करने का प्रयास किया गया कि संसाधनों के दोहन और पर्यावरण निम्नीकरण से विकास की प्रक्रिया रुक जाएगी। वहीं 'सियरा क्लब' ने विकास का अंधा-विरोध करने के बजाए अंधे विकास का विरोध करने पर जोर दिया।
विकास के मुद्दों पर विश्व समुदाय की बढ़ती चिंता को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने 'विश्व पर्यावरण और विकास आयोग (WECD)' की स्थापना की। पहली बार वर्ष 1972 में स्टॉकहोम में सम्मलेन किया गया जिसमें अर्थशास्त्रियों और पर्यावरणविदों ने भाग लेकर 'इको-इको डेवलपमेंट', 'ऑल राउंड डेवलपमेंट', 'ऑप्टिमम डेवलपमेंट' और 'इंटीग्रेटेड डेवलपमेंट' पर सहमति प्रदान की।
वर्ष 1960 में दसमन ने टिकाऊ विकास की त्रिभुजाकार मॉडल प्रस्तुत किया जिसमें मौलिक आवश्यकताएं, पारिस्थितिकी क्षमता और आत्मनिर्भरता से सम्बंधित विकास की घटकों को समबाहु त्रिभुज के समान संतुलन बनाए रखने की प्राथमिकता दिए जाने पर बल दिया।
वर्ष 1986 में संयुक्त राष्ट्र संघ की बर्टलैंड कमीशन के द्वारा संपोषणीय विकास की संकल्पना 'आवर कॉमन फ्यूचर' नामक रिपोर्ट में स्पष्ट किया गया। जिसमें भावी पीढ़ियों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए वर्तमान में विकास करने पर जोर दिया गया।
वर्ष 1992 में ब्राज़ील के रियो दी जेनेरिओ में जलवायु परिवर्तन और जैवविविधता से सम्बंधित मुद्दों पर चर्चा की गई और विश्व के सभी देशों को संपोषणीय विकास की संकल्पना पर आधारित विकास योजनाओं को लागू करने का दिशा-निर्देश दिया गया।
भारत में संपोषणीय विकास की अवधारणा इसके पूर्व में ही (चौथी पंचवर्षीय योजना) विकसित हो चुकी थी। पर्वतीय विकास कार्यक्रम एवं सूखा नियत्रण कार्यक्रम इसका प्रत्यक्ष उदहारण है।
संपोषणीय विकास की संकल्पना पर आधारित उपागम :
- संरक्षी उपागम - संसाधन का संरक्षण एवं प्रबंधन जैसे - मानव संसाधन , जल संसाधन आदि।
- क्षेत्रीय उपागम - क्षेत्र विशेष की समस्याओं का समाधान।
- आदिवासी उपागम - ग्रामीण एवं शहरी क्षेत का संपोषणीय विकास।
- विश्वव्यापी उपागम - ग्लोबल वार्मिंग से सम्बंधित समस्याओं का समाधान।
संपोषणीय विकास की संकल्पना पर आधारित विधियाँ :
- प्रथम चरण - प्रदेश का सीमांकन।
- द्वितीय चरण - आंकड़ों का संग्रहण।
- तृतीय चरण - आंकड़ों का विश्लेषण।
- चतुर्थ चरण - संसाधनों का अनुकूलतम उपयोग पर आधारित नीतियों का निर्धारण।
- पाँचवा चरण - क्रियान्वयन तथा आवश्यकता-नुसार संसोधन।
इस तरह हम पाते हैं कि अंधा विकास अल्पकालिक विकास है। अतः संपोषणीय विकास की संकल्पना वर्तामान समय की मांग है, ताकि विकास निरंतर होता रहे। इसके लिए संयुक्त राष्ट्र सहित विश्व के सभी देशों को मिलकर जागरूकता लानी होगी तभी आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय समस्याओं को दूर किया जा सकेगा।