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राणा जी अब न रहूंगी तोर हठ की लिरिक्स Rana Ji Ab Na Rahungi Tor Hath Ki Lyrics Meera Bhajan
मीरा बाई भजन संग्रह
राणा जी अब न रहूंगी तोर हठ की
राणा जी...हे राणा जी
राणा जी अब न रहूंगी तोर हठ की
साधु संग मोहे प्यारा लागे
लाज गई घूंघट की
हार सिंगार सभी ल्यो अपना
चूड़ी कर की पटकी
महल किला राणा मोहे न भाए
सारी रेसम पट की
राणा जी... हे राणा जी
जब न रहूंगी तोर हठ की
भई दीवानी मीरा डोले
केस लटा सब छिटकी
राणा जी... हे
राणा जी!
अब न रहूंगी तोर हठ की।
(हटकी=रोकी हुई, साध=साधु, सुरत-निरत=स्मरण
और नृत्य,सन्त-मत की प्रमुख साधना के दो अंग,
मुकुर=शीशा, घट=हृदय, पट=कपड़ा)
राणा जी अब न रहूंगी तेरी हटकी (मीरा जी)
मीरा बाई के काव्य में विरोध के स्वर : भक्ति कालीन काव्य में मीरा बाई का स्थान कवित्री के रूप में सर्वोच्च रहा है। जहाँ एक और श्री कृष्ण के प्रति उनका प्रेम अथाह और पूर्ण समर्पण को दर्शाता है वहीँ दूसरी और नारी की वेदना भी परिलक्षित होती है। मीरा बाई के व्यक्तित्व को जब हम जानने का प्रयत्न करते हैं तो पाते हैं की मीरा बाई कृष्ण भक्त ही नहीं उनका दृष्टिकोण पूर्णतया मानवतावाद पर भी आधारित है। मीरा श्री कृष्ण के की भक्ति में इतना डूब गयीं की उन्हें इस संसार से भी कोई विशेष लगाव नहीं रहा। वे मंदिर में बैठ कर पांवों में घुंघरू बाँध कर नाचने लग जाती। तात्कालिक समाज में नारी को विशेष अधिकार प्राप्त नहीं थे विशेषकर भक्ति में। एक नारी होकर भजन गाना, नाचना ये उच्च कुल की स्त्रियों के लिए तो मानों पूर्णतया वर्जित था। यही नहीं मीरा बाई ने सभी बंधनों को तोड़ते हुए साधुओं की संगत में रहना भी शुरू कर दिया था। उस समय की सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था इसके पक्ष में नहीं थी।
- सामन्तवात व्यवस्था के प्रति मीरा का विरोध : जब उन्होंने सामाजिक और धार्मिक मान्यताओं के विपरीत जाकर,
या कहें की उन्हें तोड़ते हुए जिस प्रकार से भक्ति की, उससे स्वाभाविक रूप से मीरा को संघर्ष भी करना पड़ा जो उनके साहित्य में भी दर्शित होता है। उन्होंने जो भी महसूस किया और अनुभव किया उसका स्वाभाविक रूप से परिचय हमें उनके पदों से प्राप्त होता है। मीरा बाई का यह अदम्य साहस श्री कृष्ण जी के आशीर्वाद के फलस्वरूप ही था की तमाम यातनाओं और पीड़ा को सहन करने के बावजूद भी उन्होंने हार नहीं मानी। धार्मिक, साहित्यिक या फिर नारी के प्रति जो भी रूढ़ियाँ थीं उनका मीरा बाई ने चित्रण किया। इस व्यवस्था के प्रति
विद्रोह और विरोध का भाव तो दिखाई देता है लेकिन विशेष बात है की उनकी रचनाओं में कहीं भी हिंशा या प्रतिकार का भाव दिखाई नहीं देता है। ये कल्पना से भी परे की बात है की आज से ५०० वर्ष पहले के मध्ययुगीन समाज में स्त्रियों की क्या हालत रही होगी। उस समय एक और तो सामंतवाद का बोलबाला था वहीं दूसरी और धर्म भी रूढ़ियों, कर्मकांड और ऊंचनीच से भरा पड़ा था।
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यूं तो कृष्ण भगवान की कई गोपियां हुआ करती थीं, लेकिन कृष्ण के प्रति मीरा के प्रेम के कुछ अलग ही मायने थे. मीराबाई भक्ति और प्रेम की एक ऐसी मिसाल मानी जाती हैं, जिन्होंने अपना पूरा जीवन कृष्ण दर्शन के लिए समर्पित कर दिया. आइए जानते हैं कैसी थी मीरा और कृष्ण की ये अनोखी प्रेम कथा.
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मीराबाई का जन्म सन् 1498 में राजस्थान के एक राजपूत घराने में हुआ था. उनके पिता का नाम रतन सिंह और माता का नाम वीर कुमारी था. मीरा कृष्ण की बहुत बड़ी भक्त थीं. जब वह 4 वर्ष की थी तब उन्होंने अपने घर के पास हो रहे एक विवाह को देखकर बेहद मासूमियत के साथ अपनी मां से पूछा था कि प्यारी मां, मेरा दूल्हा कौन होगा? मीरा के इस सवाल पर उनकी मां ने मुस्कुराते हुए
श्री कृष्ण की मूर्ति की तरफ इशारा करते हुए कहा था कि मेरी प्यारी मीरा श्री कृष्ण तुम्हारे वर होंगे. जिसके बाद से ही मीरा श्री कृष्ण को अपना स्वामी मानकर उनके प्रेम में विलीन हो गईं. कुछ समय बाद ही मीरा की मां का निधन हो गया था.
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जब मीरा बड़ी हुईं तो उनके मन में ये विश्वास था कि श्री कृष्ण उनसे शादी करने जरूर आएंगे. मीरा बेहद खूबसूरत और स्वभाव की कोमल थीं. वे बहुत सुरीली आवाज में गाना गाती थीं. लेकिन मीरा की शादी मेवार के महाराणा सांगा के पुत्र राणा सांगा से हुई. मीरा ये शादी नहीं करना चाहती थीं, लेकिन परिवार के जोर देने पर उन्हें ये शादी करनी पड़ी.
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माना जाता है कि शादी के बाद भी मीरा का प्रेम कृष्ण के लिए कम नहीं हुआ. विदाई के समय कृष्ण की वही मूर्ति अपने साथ लेकर गईं, जिसे उनकी मां ने उनका दूल्हा बताया था. शादी के बाद मीरा ससुराल के कामकाज पूरे करने बाद रोजाना कृष्ण के मंदिर जाया करती थीं. वहां जाकर वह श्री कृष्ण की मूर्ति की पूजा करती, उनके लिए मधुर आवाज में भजन गाती और नृत्य भी करती थीं.
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मीरा का कृष्ण के लिए प्रेम उनकी ससुराल वालों को बिल्कुल पसंद नहीं था. उनकी सास ने उन्हें दुर्गा मां की आराधना करने पर जोर दिया क्योंकि उनके ससुराल वाले दुर्गा देवी में बेहद विश्वास रखते थे. लेकिन ससुराल वालों के श्री कृष्ण की आराधना से रोकने पर मीरा ने साफ कह दिया कि, 'मैं पहले ही अपना जीवन कृष्ण के नाम कर चुकी हूं.'
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इसके बाद मीरा की ननद उदाबाई ने उन्हें बदनाम करने भी कोशिश की. उदाबाई ने अपने भाई राणा से कहा कि मीरा का किसी के साथ प्रेम संबंध है और उसने मीरा को उस व्यक्ति के साथ देखा है. ये सुनकर राणा बेहद क्रोधित हुए और आधी रात बहन उदाबाई के साथ मंदिर जा पहुंचे. मंदिर पहुंच कर उन्होंने मीरा को कृष्ण की मूर्ति के साथ अकेले ही बाते करते हुए देखा.
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ये देखने के बाद वह गुस्से से चिल्लाए कि मीरा अपने जिस प्रेमी से तुम बातें कर रही हो उसे मेरे सामने लेकर आओ. इसके जवाब में मीरा कृष्ण की मूर्ति की ओर इशारा कर कहती हैं कि ये मेरे स्वामी हैं, इनसे मेरा विवाह हो गया है. ये सुनने के बाद राणा का दिल टूट जाता है. लेकिन फिर भी वह पूरी श्रद्धा से अपना पति धर्म निभाते हैं और आखिरी सांस तक मीरा का साथ देते हैं.
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मीरा का देवर विक्रमादित्य चितौड़गढ़ के नए राजा के रूप में चुना गया था. उनको कृष्ण के प्रति मीरा की भक्ति और लोगों के साथ मीरा का मेल जोल पसंद नहीं था. उन्होंने मीरा को मारने के लिए फूलों के हार की एक टोकरी भेजी, जिसके अंदर जहरीला सांप था. मीरा ने जैसे ही टोकरी खोल कर देखा तो उसमें कृष्ण की एक खूबसूरत मूर्ति फूलों के हार के साथ पाई.
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इसके अलावा विक्रमादित्य ने मीरा को मारने के लिए प्रसाद में भी जहर मिलाकर भेजा. मीरा जानती थीं कि उस प्रसाद में जहर है फिर भी मीरा ने वो जहरीला प्रसाद ग्रहण कर लिया क्योंकि उन्हें विश्वास था कि कृष्ण जी उनको जहर से बचा लेंगे.
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जब मीरा को मारने की कोशिशें हद से ज्यादा बढ़ गईं तो मीरा ने तुलसीदास को एक खत लिखकर उनसे उनकी राय मांगी. तुलसीदास ने जवाब में लिखा कि ' उन्हें त्याग दो, जो तुम्हें नहीं समझ सकते हैं. भगवान के लिए प्रेम ही सच्चा प्रेम होता है दूसरे रिश्ते झूठे और वक्ती होते हैं.'
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मीरा का जीवन उस समय पूरी तरह बदल गया जब अकबर और तानसेन वेश बदलकर मीरा के गाने सुनने चित्तौड़गढ़ के मंदिर आ पहुंचे. उन्होंने मीरा के पवित्र चरण छूकर कीमती जवाहरात की माला कृष्ण की मूर्ति के आगे रख दी. जैसे ही राणा को ये सूचना मिली वह बेहद क्रोधित हो गए, जिसके बाद उन्होंने गुस्से से मीरा को कहा कि जाकर डूब मरो और जीवन में कभी भी अपना चेहरा मत दिखाना. तुम्हारी वजह से मेरी और मेरे परिवार की बहुत बदनामी हो चुकी है. तुमने हमें लांछित किया है.
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मीरा ने राणा की कही बातों का पालन किया और वह गोविंदा, गिरधारी, गोपाल जपत-जपते कृष्ण के ख्यालों में नाचते गाते नदी की ओर बढ़ने लगीं. जैसे ही मीरा ने नदी में कूदने की कोशिश की पीछे से किसी ने उनके हाथ को थाम लिया और वह गिरने से बच गईं. मीरा ने मुड़कर देखा तो अपने प्रेमी कृष्ण को पाया. कृष्ण को अपने पास देखकर मीरा को विश्वास नहीं हुआ और वह कृष्ण की गोद में बेहोश
होकर गिर पड़ीं.
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ये देखकर कृष्ण मुस्कुराए और मीरा के कान में बोले, ' मेरी प्यारी मीरा, तुम्हारा जीवन नश्वर रिश्तेदारों के साथ समाप्त हो चुका है. अब तुम आजाद हो. खुश रहो. तुम मेरी हो और हमेशा मेरी ही रहोगी.' इसके बाद मीरा वृंदावन चली गईं.
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मीरा के वृंदावन चले जाने पर राणा वृंदावन आकर मीरा से माफी मांगते हैं और अपने साथ चलने को कहते हैं. लेकिन मीरा साथ चलने से इंकार कर कहती है कि मेरा जीवन कृष्ण से जुड़ा है. ये सुनने के बाद पहली बार राणा कृष्ण के प्रति मीरा के प्रेम की भावना को समझते हैं और वृंदावन से लौट जाते हैं. लेकिन कुछ समय बाद मीरा भी मेवाड़ लौट जाती है और अपने पति राणा से विनती करती हैं
कि वह उन्हें कृष्ण के मंदिर में रहने की अनुमति दें.
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माना जाता है कि जन्माष्टमी के पर्व पर द्वारका में कृष्ण के मंदिर में मीरा कृष्ण से कहती हैं कि 'ओ गिरधारी क्या आप मुझे बुला रहे हैं, मैं आ रही हूं. ' मीरा को ये कहते सुन राणा और वहां मौजूद सभी लोग हैरान रह जाते हैं.
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माना जाता है कि कृष्ण को पुकारते ही मीरा में एक तरह का प्रकाश उत्पन्न हुआ और मंदिर के कपाट खुद से बंद हो गए. जब कपाट खुलते हैं तो मीरा की साड़ी कृष्ण भगवान की मूर्ति पर लिपटी हुई होती है. लेकिन मंदिर में मीरा नहीं होती सिर्फ मीरा और उनकी बांसुरी की आवाज सुनाई देती है. माना जाता है कि मीरा कृष्ण की मूर्ति में ही समा गईं थी.