इस ब्लॉग में अब तक आप हिंदी साहित्य के आदिकाल, मध्यकाल (भक्तिकाल) और उत्तर-मध्यकाल(रीतिकाल) के इतिहास को जान चुके हैं । हिंदी साहित्य का आधुनिक काल अपने पिछले तीनों कालों से सर्वथा भिन्न है । आदिकाल में डिंगल, भक्तिकाल में अवधी और रीतिकाल में ब्रज भाषा का
बोल-बाला रहा, वहीं इस काल में आकर खड़ी बोली का वर्चस्व स्थापित हो गया । अब तक के तीनों कालों में जहां पद्य का ही विकास हुआ था,वहीं इस युग में आकर गद्य और पद्य समान रूप से व्यवहृत होने लगे । प्रतिपाद्य विषय की दृष्टि से भी इस युग में नवीनता का समावेश हुआ । जहां पुराने काल के कवियों का दृष्टिकोण एक सीमित क्षेत्र में बँधा हुआ रहता था, वहाँ आधुनिक युग के कवियों ने समाज के व्यवहारिक जीवन का व्यापक चित्रण करना शुरु किया । इसलिए इस युग की कविता का फलक काफी विस्तृत हो गया । राजनीतिक चेतना,समाज सुधार की
भावना,अध्यात्मवाद का संदेश आदि विविध विषय इस काल की कविता के आधार बनते गए हैं । आधुनिक युग की विस्तृत कविता-धारा की रूप रेखा जानने के लिए उसे प्रमुख प्रवृत्तियों के आधार पर छ: प्रमुख भागों में बाँटा जा सकता है :- यद्यपि आधुनिक काल का आरम्भ सम्वत 1900(सन्1843) से माना जाता है । किंतु आरम्भिक 25 वर्ष की कविता को संक्रांति युग की कविता कहा जा सकता है , क्योंकि इसमें रीतिकालीन श्रृंगारिक तथा भारतेंदु कालीन प्रवृत्तियों का समन्वय-सा दिखाई पड़ता है । आधुनिक काल का काल विभाजन
1. भारतेन्दु युग ( सन् 1868 से 1902) ।
2. द्विवेदी युग (सन् 1903 से 1916) ।
3. छायावादी युग ( सन् 1917 से 1936) ।
4. प्रगतिवादी युग (सन् 1937 से 1943 ) ।
5. प्रयोगवादी और नवकाव्य युग ( 1944 से 1990 )।
6. उत्तर आधुनिक युग ( 1990 से आज तक) ।
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छायावादी काव्य का विश्लेषण करने पर हम उसमें निम्नांकित प्रवृत्तियां पाते हैं :- 1. वैयक्तिकता : छायावादी काव्य में वैयक्तिकता का प्राधान्य है। कविता वैयक्तिक चिंतन और अनुभूति की परिधि में सीमित होने के कारण अंतर्मुखी हो गई, कवि के अहम् भाव में निबद्ध हो गई। कवियों ने काव्य में अपने सुख-दु:ख,उतार-चढ़ाव,आशा-निराशा की अभिव्यक्ति
खुल कर की। उसने समग्र वस्तुजगत को अपनी भावनाओं में रंग कर देखा। जयशंकर प्रसाद का'आंसू' तथा सुमित्रा नंदन पंत के 'उच्छवास' और 'आंसू' व्यक्तिवादी अभिव्यक्ति के सुंदर निदर्शन हैं। इसके व्यक्तिवाद के स्व में सर्व सन्निहित है।डॉ. शिवदान सिंह चौहान इस संबंध में अत्यंत मार्मिक शब्दों में लिखते हैं -''कवि का मैं प्रत्येक प्रबुद्ध भारतवासी का मैं था,इस कारण कवि ने विषयगत दृष्टि से अपनी सूक्ष्मातिसूक्ष्म अनुभूतियों को व्यक्त करने के लिए जो लाक्षणिक भाषा और अप्रस्तुत रचना शैली अपनाई,उसके संकेत और
प्रतीक हर व्यक्ति के लिए सहज प्रेषणीय बन सके।''छायावादी कवियों की भावनाएं यदि उनके विशिष्ट वैयक्तिक दु:खों के रोने-धोने तक ही सीमित रहती,उ छायावाद की प्रवृत्तियां
आदिकाल के प्रमुख कवि और उनकी रचनाएँ
आज हम आदिकालीन कवियों की प्रमुख कृतियों का विवरण प्रस्तुत कर रहें हैं : अब्दुर्रहमान : संदेश रासक नरपति नाल्ह : बीसलदेव रासो (अपभ्रंश हिंदी) चंदबरदायी : पृथ्वीराज रासो (डिंगल-पिंगल हिंदी) दलपति विजय : खुमान रासो (राजस्थानी हिंदी) जगनिक : परमाल रासो शार्गंधर : हम्मीर रासो नल्ह सिंह : विजयपाल रासो जल्ह कवि : बुद्धि रासो माधवदास चारण : राम रासो देल्हण : गद्य सुकुमाल रासो श्रीधर : रणमल छंद , पीरीछत रायसा जिनधर्मसूरि : स्थूलिभद्र रास गुलाब कवि : करहिया कौ रायसो शालिभद्रसूरि : भरतेश्वर बाहुअलिरास जोइन्दु : परमात्म प्रकाश केदार : जयचंद प्रकाश मधुकर कवि : जसमयंक चंद्रिका स्वयंभू : पउम चरिउ योगसार :सानयधम्म दोहा हरप्रसाद शास्त्री : बौद्धगान और दोहा धनपाल : भवियत्त कहा लक्ष्मीधर : प्राकृत पैंगलम अमीर खुसरो : किस्सा चाहा दरवेश, खालिक बारी विद्यापति : कीर्तिलता, कीर्तिपताका, विद्यापति पदावली (मैथिली)
प्रयोगवाद के कवि और उनकी रचनाएं
प्रयोगवाद के कवियों में हम सर्वप्रथम तारसप्तक के कवियों को गिनते हैं और इसके प्रवर्तक कवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय ठहरते हैं। जैसा कि हम पहले कह आए हैं कि तारसप्तक 1943 ई. में प्रकाशित हुआ। इसमें सातकवियों को शामिल किए जाने के कारण इसका नाम तारसप्तक रखा गया। इन कवियों को अज्ञेय ने पथ के राही कहा। ये किसी मंजिल पर पहुंचे हुए नहीं हैं,बल्कि अभी पथ के अन्वेषक हैं। इसी संदर्भ में अज्ञेय ने प्रयोग शब्द का प्रयोग किया, जहां से प्रयोगवाद की उत्पत्ति स्वीकार की जाती है। इसके बाद 1951 ई. में दूसरा,1959 ई में तीसरा और 1979 में चौथा तारसप्तक प्रकाशित हुए। जिनका संपादन स्वयं अज्ञेय ने किया है। आइए,सर्वप्रथम हम इन चारों तारसप्तकों के कवियों के नामों से परिचित हो लें। 1. तारसप्तक के कवि: अज्ञेय,भारतभूषण अग्रवाल,मुक्तिबोध,प्रभाकर माचवे,गिरिजाकुमार माथुर,नेमिचंद्र जैन,रामविलास शर्मा। 2. दूसरे तारसप्तक के कवि: भवानीप्रसाद मिश्र, शंकुत माथुर, नरेश मेहत्ता,रघुवीर सहाय,शमशेर बहादुर सिंह,हरिनारायण व्यास,धर्मवीर भारती। 3. तीसरे तारसप्तक के कवि: प्रयागनारायण त्रिपाठी, कीर्ति चौधरी, मदन व
विषयसूची
आधुनिक युग कब से कब तक चला?
इसे सुनेंरोकें(2) भारतेंदु युग(नवजागरण काल): 1868ईस्वी से 1900 ईस्वी तक। (3) द्विवेदी युग: 1900 ईस्वी से 1922 ईस्वी तक. (5) शुक्लोत्तर युग(छायावादोत्तर युग): 1938 ईस्वी से 1947 तक। (6) स्वातंत्र्योत्तर युग: 1947 ईस्वी से अब तक।
हिंदी में आधुनिक युग का प्रारंभ कब से हुआ किस युग से हुआ?
इसे सुनेंरोकेंहिंदी में आधुनिक युग का प्रारंभ भारतेंदु युग से माना जाता है। भारतेंदु युग को आधुनिक हिंदी साहित्य का प्रारंभिक युग माना जाता है। प्रारंभिक भारतेंदु युग को आधुनिक हिंदी साहित्य का प्रारंभिक युग माना जाता है। यह युग 1868 ईस्वी से 1900 ईस्वी तक का माना जाता है।
आधुनिक काल को कुल कितने भागों में बांटा गया है?
इसे सुनेंरोकेंआधुनिक काल को पांच भागों में बांटा गया है। भारतेन्दु युग। द्विवेदी युग। छायावाद युग।
आधुनिक युग के चरण कौन है?
adhunik yug ke charan kaun hain हिन्दी साहित्य…आधुनिक युग के चरण कौन हैं?
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आधुनिक युग क्या है?
इसे सुनेंरोकेंविक्रमी संवत् 1900 से आज तक रचित समस्त साहित्य राशि को विद्वानों ने ‘आधुनिक काल’ की परिधि में रखा है। जहाँ ‘आधुनिक’ शब्द दो अर्थों-मध्यकाल से भिन्नता और नवीन इहलौकिक दृष्टिकोण की सूचना देता है। आलोच्य काल के प्रवर्तक भारतेंदु हरिश्चंद्र माने जाते हैं।
आधुनिक काल के कवि कौन कौन से हैं?
इसे सुनेंरोकेंइनमें मैथिलीशरण गुप्त, रामचरित उपाध्याय, नाथूराम शर्मा शंकर, ला. भगवान दीन, रामनरेश त्रिपाठी, जयशंकर प्रसाद, गोपाल शरण सिंह, माखन लाल चतुर्वेदी, अनूप शर्मा, रामकुमार वर्मा, श्याम नारायण पांडेय, दिनकर, सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा आदि का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
आधुनिक काल के अन्य नाम क्या है?
इसे सुनेंरोकेंआधुनिक काल का दूसरा नाम भारतेंदु काल है.
हिंदी के जन्मदाता कौन हैं?
इसे सुनेंरोकें“निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल “ का उद्घोष करने वाले भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का आज जन्मदिन है. वे आधुनिक हिन्दी के जन्मदाता थे, उनसे पहले हिन्दी भाषा नहीं बोलियों में बंटी थी.
हिंदी के जन्मदाता कौन थे?
इसे सुनेंरोकेंआधुनिक हिंदी का जनक भारतेन्दु हरिश्चंद्र को कहा जाता है जिन्होंने हिंदी, पंजाबी, बंगाली और मारवाड़ी सहित कई भाषाओं में अपना योगदान दिया है. इसलिए भारतेन्दु हरिश्चंद्र को “आधुनिक हिंदी साहित्य और हिंदी रंगमंच” के पिता के रूप में जाना जाता है.