घनानंद की प्रमुख रचनाएँ तथा घनानंद का भाव पक्ष कला पक्ष के बारे में जान पाएंगे, तो आइए दोस्तों करते हैं आज का यह लेख शुरू घनानंद का साहित्यिक जीवन परिचय:-
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घनानंद का जीवन परिचय Ghananand ka Jivan Parichay
घनानंद हिंदी साहित्य के रीतिकाल के प्रमुख कवि हैं जिन्हें रीतिमुक्त काव्य धारा के कवि के रूप में जाना जाता है। घनानंद का जन्म 1658 ईस्वी में हुआ था जबकि उनकी मृत्यु 1739 ईस्वी में हुई।
घनानंद और आनंदघन नाम के दो रचनाकार थे, जिनको पहले इतिहासकार एक ही मानते थे लेकिन आचार विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने यह सिद्ध कर दिया कि दोनों कवि अलग अलग हैं।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने घनानंद को रीतिकाल के मुक्तकाव्य धारा का श्रेष्ठ कवि माना है। घनानंद को साहित्य और संगीत दोनों में महारथ हांसिल थी।
बताया जाता है कि मोहम्मद शाह रंगीला के यहां घनानंद मीर मुंशी के पद पर थे, जहाँ उन्हें एक नर्तकी सुजान से प्रेम हो गया था। घनानंद की मृत्यु 1739 में नादिरशाह के द्वारा किए गए कत्लेआम से हुई थी।
घनानंद की साहित्य सेवा Ghananand ki Sahitya Seva
घनानंद ने हिंदी साहित्य को प्रेम की वेदना से युक्त विभिन्न रचनाएँ प्रदान की है। क्योंकि वह अपनी प्रेयसी सुजान के कारण वेदना से भरे हुए थे। इस कारण घनानंद विरह जन्य प्रेम के पीर
तथा अमर गायक माने जाते हैं। जबकि भक्ति परख रचनाओं में उन्होंने सुजान श्रीकृष्ण के लिए संबोधन किया है। उनकी रचनाओं में उनके हृदयस्पर्शी वेदना का चित्र साक्षात् दिखाई देता है।
घनानंद की रचनाएँ Ghananand ki rachnaen
घनानंद की बहुत सी रचनाएँ मुक्तक रूप में प्राप्त होती हैं. कुछ घटनाओं को भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने सुंदरी तिलक पत्रिका में भी छापा है। 1870 में उन्होंने सुजान सतक नाम के 119 कवित्त प्रकाशित किए हैं।
इसके साथ ही जगन्नाथदास रत्नाकर ने सन 1897 में इनकी वियोग बेली और विरह लीला नागरी प्रचारिणी में प्रकाशित की है। घनानंद की प्रमुख रचनाओं में कवित्त संग्रह, सुजान विनोद, सुजान हित, वियोग बेली, आनंदघन जू इश्क लता, जमुना जल और वृंदावन सत आदि हैं।
घनानंद का भाव पक्ष Ghananand ka bhav Paksh
घनानंद रीतिकाल के कवि हैं, उनकी रचनाओं में मुख्य रूप से श्रृंगार रस का प्रयोग हुआ है। उन्होंने श्रृंगार रस के दोनों संयोग श्रृंगार और वियोग श्रृंगार का प्रयोग अपनी रचनाओं में किया है।
घनानंद अपनी प्रेयसी सुजान के व्यवहार से प्रेम की विरह वेदना से व्यथित थे। उन्होंने अपने हृदयस्पर्शी वेदना को अपने काव्य में स्थान दिया है। किंतु सबसे अधिक उन्होंने अपने काव्य में वियोग को ही महत्वपूर्ण स्थान दिया है।
घनानंद का कला पक्ष Ghananand ka Kala Paksh
मुगल दरबार से अपमानित और विरह वेदना को अपने हृदय में समाहित करके घनानंद वृंदावन पहुंचे तथा विभिन्न साधु-संतों और गुरुओं की संगति के कारण ज्ञान अर्जित किया।
और हिंदी साहित्य को श्रेष्ठ रचनाएँ प्रदान की जो अधिकतर ब्रज भाषा में ही लिखित है। उनकी रचनाओं में लाक्षणिक व्यंजना और प्रचुर व्याकरण सम्मत भाषा नजर आती है।
उन्होंने अपनी रचनाओं में अनुप्रास और रूपक अलंकार का बहुत ही सुंदर तरीके से प्रयोग किया है। इनकी भाषा में छंद शैली अलंकार तथा श्रृंगार रस का प्रयोग नकी रचनाओं को श्रेष्ठ बनाता हैं।
घनानंद का साहित्य में स्थान Ghananand ka Sahitya Mein sthan
धनानंद को रीतिकाल के रीतिमुक्त काव्यधारा का श्रेष्ठ कवि माना जाता है। घनानंद जी ने अपने पदों तथा रचनाओं में सुजान का इस प्रकार से उल्लेख किया है, कि उसका अध्यात्मीकरण हो गया हो।
सुजान का उनका प्रेयसी होना बहुत अधिक उपयुक्त लगता है। सुजान को श्रृंगार पक्ष में नायिका और भक्ति पक्ष में कृष्ण मान लेना उचित होगा।
दोस्तों इस लेख में आपने घनानंद का साहित्यिक परिचय (Ghananad ka sahityik jivan parichay) पड़ा आशा करता हूँ, आपको यह लेख अच्छा लगा होगा
रीतिकाल की तीन प्रमुख काव्यधाराओं-रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीतिमुक्त में घनानन्द अंतिम काव्यधारा के अग्रणी कवि हैं। रीतिबद्ध कवियों के लिए आवश्यक शर्त यह थी कि उन्हें ग्रंथ-रचना के नियमों से बँधा और जकड़ा रहना पड़ता था। अपने मनोभावों को वे लक्षण के अनुसार अभिव्यक्त करते थे। दूसरी कोटि के कवि अर्थात् रीतिसिद्ध कवियों के लिए इस प्रकार की कोई आवश्यक शर्त न थी कि उन्हें रीतिग्रंथ ही लिखना है-परंतु वे कवि भी स्वतंत्र भावाभिव्यक्ति के लिए उन्मुक्त न थे। ये कवि लक्षणबद्ध ग्रंथ की रचना नहीं करते थे, परंतु इनकी काव्य-रचना में रीति का पूरा-पूरा प्रभाव था, जैसे बिहारी, रसनिधि इत्यादि । ये कवि रीतिबद्ध काव्य-रचना के मार्ग पर नहीं चलते थे - पर उसी मार्ग के साथ-साथ ही इनको बचना पड़ता था। फलतः इनकी काव्य-रचना में वे नियम कुछ शिथिल थे, जिन्हें रीतिबद्ध कवियों ने प्राणप्रण से अपना रखा था। तीसरे प्रकार के कवि वे थे, जो न तो रीतिबद्ध थे, न रीतिबद्ध –अर्थात वे रीतिमुक्त कवि थे - जिन्हें ‘रीति’ के नाम से ही घृणा थी - वे रीति का छायामात्र से भी दूर भागते थे। अपने हृदय की उमंगपूर्ण, स्वानुभूत भावनाओं को इन कवियों ने उसी रूप में अभिव्यक्त किया, जैसी उनकी अनुभूति थी । फलतः अपनी स्वच्छंद वृत्ति के कारण ये कवि रीतिमुक्त कवि कहलाए। घनानन्द, बोधा ठाकुर आदि कवि इसी धारा के सितारे हैं।