अपना नाम प्रचारित किये बगैर महादेवी ने जहां अपने प्रारम्भिक काव्य-काल में राष्ट्रीय जागरण की कवितायें लिखीं, वहीं प्रसाद, निराला और पन्त भी पीछे नहीं रहे. यद्यपि इन कवियों का प्रमुख काव्य स्वर राष्ट्रीय चेतना का न होकर काव्य की भाषा एवंम अन्तःकरण के भावों के संस्कार का था, तथापि छायावाद काल में हम हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रवादी गीतों को देखते हैं। हिमाद्रि-तुंग-श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती, स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती - ('प्रसाद'), भारति जय विजय करे (निराला), जय जन भारत जन मन अभिमत (पन्त), मस्तक देकर हम आज खरीदेंगे ज्वाला (महादेवी). कवियों का एक ऐसा स्वतंत्र वर्ग भी था जिसका प्रमुख स्वर राष्ट्रीय जागरण ही रहा. इसके प्रमुख कवि हैं सुभद्राकुमारी चौहान (खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी), माखनलाल चतुर्वेदी (हिमकिरीटिनी, हिमतरंगिणी), रामधारीसिंह 'दिनकर' (रेणुका, १९३५), सियारामशरण गुप्त, बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' इत्यादि.
क्रांतिकारी वीरों जैसे रामप्रसाद बिस्मिल (सरफरोशी की तमान्ना अब हमारे दिल में है) ने भी अमर गीतों की रचना करी है, जिनकी संख्या भले ही इनी-गिनी रही हो, पर उनकी लोकप्रियता इतनी व्यापक रही कि उनके महत्त्व से इनकार नहीं किया जा सकता.
दिनकर की कविता में राष्ट्रीय चेतना दिनकर के काव्य का मूल स्वर दिनकर जी के काव्य में राष्ट्रीय भावना राष्ट्रीय चेतना का कवि दिनकर के काव्य में राष्ट्री
रामधारी सिंह दिनकर की कविता में राष्ट्रीय चेतना
रामधारी सिंह दिनकर की कविता में राष्ट्रीय चेतना दिनकर के काव्य का मूल स्वर दिनकर जी के काव्य में राष्ट्रीय भावना राष्ट्रीय चेतना का कवि दिनकर के काव्य में राष्ट्रीयता dinkar ke kavya me rashtriya chetna - रामधारी सिंह दिनकर जी के काव्य में प्रणय और राष्ट्रीयता की दो समान धाराएँ प्रवाहित हुई हैं ,जो कभी कभी दुविधा को भी जन्म देती है। दिनकर जी ने यह स्वीकार किया है कि राष्ट्रीयता ने उन्हें बाहर से आकर आक्रांत किया है और फिर भी राष्ट्रीयता उनके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बन गयी है। आपने सबसे पहले सामाजिक जीवन की चुनौती को स्वीकार किया है। उनकी कविताओं में खुलकर क्रांति का शंखनाद सामने आया है। हुँकार की प्रमुख कविता दिनकर जी की राष्ट्रीय भावना को विकास समझने के लिए महत्वपूर्ण हैं। दिनकर जी ने वर्तमान के स्वर को सुना और अपना सब कुछ बलिदान करने के लिए तैयार हो गए। पराधीनता की बेबसी का जुआ उतारने के लिए वे निर्भीक होकर शान्ति के मार्ग पर चलने का सन्देश देने लगे -
वर्तमान की जय अभीत हो, खुलकर मन की पीर बजे,
एक राग मेरा भी रण में, बंदी की ज़ंजीर बजे।
नई किरण की सखी, बाँसुरी, के छिद्रों से कूक उठे,
साँस-साँस पर खड्ग-धार पर नाच हृदय की हूक उठे।
कवि को नए युग की आहट सुनाई पड़ती है। उसकी क्रांति की शक्ति पर पूरा विश्वास हो गया है। वह नए युग का स्वागत करते हुए कहता है कि
जय हो', युग के देव पधारो ! विकट, रुद्र, हे अभिमानी !
मुक्त-केशिनी खडी द्वार पर कब से भावों की रानी ।
अमृत-गीत तुम रचो कलानिधि ! बुनो कल्पना की जाली,
तिमिर-ज्योति की समर-भूमि का मैं चारण, मैं वैताली ।
सत्य और अहिंसा का प्रभाव
दिनकर जी की राष्ट्रीयता पर सत्य और अहिंसा के प्रभाव के निम्नलिखित दो स्त्रोत हैं -
- प्रतीक परंपरा का प्रभाव
- गाँधी जी का प्रभाव
दिनकर जी ने एक ओर अहिंसावादी नीति का विरोध किया ,किन्तु दूसरी ओर उसके विरुद्ध शक्ति और क्रांति के महत्व का भी वर्णन किया गया है। परशुराम की प्रतीक्षा में दिनकर जी प्रतिशोध शक्ति और उसकी प्रशंसा करते हैं। वे अहिंसा की नीति का विरोध करते हुए कहते हैं कि
तलवार गला कर जो तकली गढ़ते हैं;
शीतल करते हैं अनल प्रबुद्ध प्रजा का,
शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा का;
सारी वसुन्धरा में गुरु-पद पाने को,
प्यासी धरती के लिए अमृत लाने को
जो सन्त लोग सीधे पाताल चले थे,
(अच्छे हैं अबः; पहले भी बहुत भले थे।)
हम उसी धर्म की लाश यहाँ ढोते हैं,
शोणित से सन्तों का कलंक धोते हैं।
दिनकर जी की राष्ट्रीयता वास्तव में भाववादी राष्ट्रीयता है। उसमें चिंतन की संगीत की अपेक्षा आवेग और आवेश ही प्रधान है। गुलामी के वातावरण में अंग्रेजों के शोषण और अत्याचारों की प्रतिक्रिया का शक्तिशाली रूप दिनकर के काव्य में दिखाई देता है। उसमें उत्साह ,उमंग ,प्रेरणा और आस्था है। दिनकर जी ने हिंसा आदि की प्रशस्ति के साथ - साथ अहिंसा और विश्व प्रेम का भी वर्णन दिया है। उनकी राष्ट्रीयता ,अंतर्राष्ट्रीयता या मानवतावाद में परिणत होने का प्रयास करती है। भीष्म ,युधिष्ठिर ,कर्ण और परशुराम सभी मानवतावादी और आदर्शवादी हैं।
समग्र रूप में यही परिणाम निकाला जा सकता है कि दिनकर जी उस पुनरुत्थानवादी धारा के राष्ट्रीय कवि हैं ,जो भारतेंदु से आरम्भ होकर ,द्विवेदी युग से होती हुई छायावादी काव्य में व्यक्त हुई है। जिस प्रकार प्रसाद जी ने चन्द्रगुप्त मौर्य आदि के माध्यम से प्राचीन पात्रों में कर्म और शक्ति का सौन्दर्य दिखाया है ,उसी प्रकार दिनकर में भीष्म ,परशुराम आदि के माध्यम से कर्म और क्रांति का प्रेरक वर्णन किया है। किन्तु शक्ति और क्रांति का जो वेग खुलकर दिनकर के काव्य में व्यक्त हुआ है ,वह अन्य कवियों में कम ही दिखाई देता है।
परशुराम की प्रतीक्षा में दिनकर जी की राष्ट्रीयता आपद धर्म के रूप में व्यक्त हुई है। इसमें युद्धकाल की राष्ट्रीयता है। शान्ति और निर्माण काल में जिस राष्ट्रीयता की आवश्यकता होती है ,उसमें युद्धकाल में काम नहीं चल सकता है। युद्ध काल में राष्ट्रीयता के अंतर्गत शक्ति और तलवार एवं क्रांति का महत्व सहज ही मान्य हो जाता है।
भारत पर चीन का आक्रमण हुआ। सारे देश में आक्रोश उमड़ पड़ा। लगता था की जैसे पुरानी भावनाएँ फिर से जाग उठी और नए पात्रों के माध्यम से अभिव्यक्ति होने लगी। परशुराम की प्रतीक्षा के परुशुराम भारतीय जनता के सामूहिक आक्रोश और शक्ति के प्रतीक है। सीमा पर चीन से भारत की जो हार हुई है ,उसका उत्तरदायित्व मूल नीतियों पर है। चीन के आक्रमण के समय दिनकर जी के ह्रदय में उग्र राष्ट्रवाद की वेगवती धारा उमड़ पड़ी। उसी का प्रविफलन परशुराम की प्रतीक्षा और उसमें संकलित अन्य कविताएँ हैं। सभी कविताएँ उग्र राष्ट्रवाद का शंखवाद करती है एवं सामूहिक शक्ति से चीनी आक्रमण को विफल करने की प्रेरणा देती है।
कविता में आक्रोश
दिनकर जी का आक्रोश केवल चीन के आसुरी आक्रमण के प्रति ही नहीं है। वे चीन के आक्रमण के लिए भारतीय राजतंत्र और विचार दर्शन को भी उत्तरदाई मानते हैं। हमारे नेताओं की निर्वीर्य शान्ति के कारण ही भारत के शक्ति बल का विकास न हो सका और चीन को आक्रमण करने का दुसाहस हुआ। परशुराम की प्रतीक्षा की पृष्ठभूमि में चीन के आक्रमण की उतनी घटना नहीं है ,जितनी उसके लिए उत्तरदायी परिस्थितियां हैं। इस कविता में गाँधीवाद के नाम पर चलती हुई कृत्रिम आध्यात्मिक और निर्वाध कल्पनाओं का खंडन एवं विरोध किया गया है। भारत की शान्ति और तपस्या नीति की अव्यहारिकता और भ्रांत अध्यात्मिकता पर भी व्यंग किया गया है। साथ ही राजनीतिज्ञों और सत्ताधारियों के भ्रष्ट्रचारों तथा आंतरिक अव्यवस्थाओं की ओर संकेत किया गया है। कहीं कहीं अभिव्यक्ति बड़ी ही उम्र हो गयी है -
घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है,
लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है,
जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है,
समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है।
जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,
या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,
उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है,
यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है।
चीन के आक्रमण की घटना की दिनकर जी की इस आस्था ने दृढ कर दिया है कि लाल लपेट से गाँधी की ,भारत की और भारतीय संस्कृति की रक्षा करने के लिए हमें दृढ़ सैन्य शक्ति का सहारा लेना पड़ेगा। अपने जीवन दर्शन में परमार्थ और मानवतावाद की तरह ही युद्ध को स्थान देना पड़ेगा। भारत सैन्य शक्ति के साधन से ही मानवतावाद के प्रसार में सक्षम हो सकेगा। यह है कि दिनकर जी के काव्य में राष्ट्रीयता का नवीन रूप है।