हममें से ज्यादातर लोग बचपन में ही महाराणा प्रताप के बारे में, उनकी वीरता और पराक्रम के बारे मे पढ़ चुके होंगे। लेकिन उनकी जिंदगी की पूरी कहानी बहुत कम लोग ही जानते होंगे, तो चलिए हम आपको बताते हैं महाराणा प्रताप की जिंदगी से जुड़ा एक-एक तथ्य और शुरुआत करते हैं उनके बचपन से:
बचपन में कीका के नाम से बुलाए जाने वाले महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 को हुआ था। इनके पिता महाराणा उदय सिंह राजस्थान के मेवाड़ में सिसोदिया राजवंश के महाराज थे, और मेवाड़ के कुंभलगढ़ में ही महाराणा प्रताप का जन्म हुआ था।
उनकी माता का नाम जीवंताबाई था। भले ही महाराणा प्रताप ने राजा रहते हुए कई लड़ाइयाँ लड़ी और अपने पराक्रम से मुगलों को नाकों चने चबवाया। लेकिन मेवाड़ की गद्दी पर उनके काबिज होने में भी एक बड़ा रोड़ा था। और वो रोड़ा कोई और नही बल्कि महाराणा प्रताप की सौतेली माँ धीर बाई थीं।
दरअसल इनके पिता महाराणा उदय सिंह की कुल 15 से 18 रानियाँ थीं और उन सबका मिलाकर कुल 24 बच्चे थे। उन रानियों में से धीरबाई महाराणा उदय की चहेती रानी थी। और धीरबाई अपने बेटे जगमल सिंह को महाराणा उदय का उत्तराधिकारी बनाना चाहती थीं।
चूंकि महाराणा उदय सिंह की पहली पत्नी जीवंताबाई के पुत्र महाराणा प्रताप थे। इसलिए उस समय के नियम के अनुसार से अंततः 3 मार्च 1572 को गोलकुंडा में महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक हो गया।
कहा जाता है कि महाराणा प्रताप ने कुल 11 शादियां की थी, जिनसे महाराणा प्रताप के 17 बेटे और 5 बेटियाँ पैदा हुई थी। महाराणा प्रताप के बारे में एक चीज जो काफी अचम्भित करने वाली है- उनके भाले, तलवार और कवच का वजन।
कहा जाता है कि महाराणा प्रताप का भाला 81 किलो वजन का था और उनके छाती का कवच 72 किलो का था। उनके भाला, कवच, ढाल और साथ में दो तलवारों का वजन मिलाकर 208 किलो था।
ये वो दौर था जब मुगल शासक अकबर पूरे भारत पर कब्जा करने में लगा हुआ था। वो दिल्ली की गद्दी पर तो काबिज़ था ही, लेकिन इसको गुजरात भी जीतना था। और गुजरात तक पहुँचने के लिए उसे बीच में पड़ने वाले मेवाड़ (राजस्थान का कुछ भाग) को अपने कब्जे में लेना था। अभी मेवाड़ की गद्दी पर महाराणा प्रताप को बैठे हुए ज्यादा साल नही हुए थे कि अकबर के दूत आना शुरू हो गए। उन दूतों ने हर बार महाराणा को अकबर के अधीन होकर अपना राज्य चलाने की बात कही। लेकिन हर बार महाराणा प्रताप के अंदर का राजपूताना खून दौड़ने लगता और महाराणा उन्हें बुरी तरह न कह देते।
एक के बाद एक करके 6 शांतिदूत आए और चले गए। लेकिन महाराणा प्रताप झुकने के लिए तैयार नही हुए। उनको पता था कि अकबर उनके मुकाबले काफी ज्यादा शक्तिशाली है फिर भी उन्होंने हमेशा यही कहा कि राजपूत अपना सिर कटा सकता है लेकिन झुका नही सकता।
अब युद्ध की बारी थी। एक ऐसा जिसके बारे में आज भी सुनकर ही लोगों की रूह कांप जाती है। भारत के इतिहास सबसे खतरनाक युद्धों में से एक, हल्दीघाटी का युद्ध। इसकी शुरुआत हुई 18 जून 1576 से यानी, महाराणा प्रताप के राज्याभिषेक के सिर्फ 4 साल बाद।
राजस्थान में गोगुंडा के नजदीक दो पहाड़ियों के बीच हल्दीघाटी नाम के जगह पर लड़े गए इस युद्ध में एक तरफ से थे चितौड़ के महाराणा प्रताप तो दूसरी तरफ से अम्बर के राजा मान सिंह प्रथम था, जो कि मुगलों की तरफ से लड़ रहा था। इस युद्ध में महाराणा प्रताप के पास सिर्फ 20000 सैनिक थे जबकि मुगलों के पास 85000 सैनिक। इसके बावजूद महाराणा प्रताप ने हार नहीं मानी और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते रहे।
3 घंटे तक भीषण संघर्ष के बाद महाराणा प्रताप बुरी तरह घायल हो चुके थे। मुगल सेना उनपर टूटने ही वाली थी कि उनके एक सिपाही ने महाराणा प्रताप को बचा लिया, जिसका नाम था झाला राणा। दरासल वो भी राणा प्रताप के साथ ही युद्ध मे शामिल था और वह भी बडा ही वीर योद्धा था। दिखने में भी थोडा वह राणा प्रताप के जैसा ही लगता था।
झाला ने हल्दीघाटी में देखा की राजपूत सेना मुगल फोजों से कमजोर पड रही है और मुगल सेनिक राणा प्रताप पर आक्रमण करने के लिये आतुर है। झाला ने तुरंत निर्णय लिया कि महाराणा को अपनी जान बचाने के लिये किसी सुरक्षित स्थान पर जाना ही होगा। झाला ने तुरंत शाही निशान आदि लेने के लिये महाराणा से अनुमति मांगी और उनसे अर्ज किया की वे अपनी जान बचायें।
महाराणा प्रताप की तरह ही उनका घोड़ा चेतक भी काफी बहादुर था। बताया जाता है जब युद्ध के दौरान मुगल सेना उनके पीछे पड़ी थी तो चेतक ने महाराणा प्रताप को अपनी पीठ पर बैठाकर कई फीट लंबे नाले को पार किया था। प्रताप चेतक पर सवार होकर पहाड़ियों के बीच कहीं दूर निकल गये और मुगल सेना झाला को राणा प्रताप समझ कर उस पर टूट पडी। इस तरह से महाराणा की जान तो जाते-जाते बच गई थी, लेकिन उनकी आधी सेना उस युद्ध में मारी गई।
इस प्रकार मुगलों का कब्जा समतली और उपजाऊ भागों में तो हो गया लेकिन जंगली और पहाड़ी इलाकों में अभी भी महाराणा प्रताप का कब्जा था। लेकिन वो किसी काम का नही था। कहते हैं कि जब महाराणा युद्ध छोड़कर भागे थे तो कई सालों तक उनको जंगल में रहना पड़ा था।
उनके पास खाने के लिए कुछ नही था तो वो घांस की रोटियां खाया करते थे। वो हर विषम परिस्थितियों को झेलते हुए अपनी सेना तैयार करते रहे।
फिर 1579 का वो दौर आया जब मुगलों ने चित्तौड़ पर ध्यान देना बंद कर दिया। क्योंकि उन दिनों बिहार और बंगाल में मुगलों के खिलाफ जंग छिड़ी हुई थी। और मिर्ज़ा हाकिम, उनदिनों पंजाब पर हमला किये हुए था।
इनसब के बीच महाराणा प्रताप को अपनी गतिविधियां तेज करने का मौका मिल गया। 1585 में अकबर लाहौर की तरफ बढ़ गया क्योंकि उसे अपने उत्तर-पश्चिम वाले क्षेत्र पर भी नजर रखना था। अगले 12 सालों तक वो वहीं रहा।
इसका फायदा उठाते हुए महाराणा प्रताप ने पश्चिमी मेवाड़ पर अपना कब्जा कर लिया जिसमें कुंभलगढ़, उदयपुर और गोकुण्डा आदि शामिल थे और उन्होंने चवण को अपनी नई राजधानी बनाई।
महाराणा प्रताप की मौत का कोई पुख्ता सुबूत तो नही मिल पाया था लेकिन कहा गया है कि चवण में 56 की उम्र में शिकार करते समय एक दुर्घटना होने से उनकी मौत हो गयी