Padmakar Ka Wastwik Naam
GkExams on 12-05-2019
कवि पद्माकर का वास्तविक नामप्यारे लाल था.
रीति काल के ब्रजभाषा कवियों में पद्माकर (1753-1833) का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वे हिंदी साहित्य के रीतिकालीन कवियों में अंतिम चरण के सुप्रसिद्ध और विशेष सम्मानित कवि थे। मूलतः हिन्दीभाषी न होते हुए भी पद्माकर जैसे आन्ध्र के अनगिनत तैलंग-ब्राह्मणों ने हिन्दी और संस्कृत साहित्य की श्रीवृद्धि में जितना योगदान दिया है वैसा अकादमिक उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है।
सम्बन्धित प्रश्न
Comments Shubham on 27-10-2021
padmakar ka pura naam kya tha?
sakshi Sakshi ray on 26-04-2020
Padmakar kon tha
Padmakar on 27-03-2020
Padmakar ji ka pura name kya hai
Rash vad on 17-03-2020
Rash vad
Rajesh jaiswal on 06-08-2019
पद्माकर का पूरा नाम
Raju on 22-02-2019
कहा हो
रीति काल के ब्रजभाषा कवियों में पद्माकर (1753-1833) का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वे हिंदी साहित्य के रीतिकालीन कवियों में अंतिम चरण के सुप्रसिद्ध और विशेष सम्मानित कवि थे। मूलतः हिन्दीभाषी न होते हुए भी पद्माकर जैसे आन्ध्र के अनगिनत तैलंग-ब्राह्मणों ने हिन्दी और संस्कृत साहित्य की श्रीवृद्धि में जितना योगदान दिया है वैसा उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है।
जन्म और कुल-परिचय[संपादित करें]
मूलतः तेलगु भाषी इनके पूर्वज दक्षिण के आत्रेय, आर्चनानस, शबास्य-त्रिप्रवरान्वित, कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तरीय शाखा के यशस्वी तैलंग ब्राह्मण थे। पद्माकर के पिता मोहनलाल भट्ट सागर में बस गए थे। यहीं पद्माकर जी का जन्म सन् 1753 में हुआ। परन्तु 'हिंदी साहित्य का इतिहास' में आचार्य रामचंद्र शुक्ल [1] और 'बाँदा डिस्ट्रिक्ट गजेटियर' के अलावा कुछ विद्वान मध्यप्रदेश के सागर की बजाय उत्तर प्रदेश के नगर बांदा को पद्माकर की जन्मभूमि कहते हैं, जो सही नहीं है !- शायद यह भूल इसलिए भी चलती आयी है क्योंकि बहुत से वर्ष उन्होंने बांदा में रहते ही बिताए।
पद्माकर कवीश्वर एक प्रतिभासम्पन्न जन्मजात कवि थे। इन्हें आशु-कवित्त-शक्ति अपने पहले के कवियों और संस्कृत-विद्वानों की सुदीर्घ वंश-परम्परा से ही प्राप्त थी। उनके पूरे कुटुम्ब का वातावरण ही कवितामय था। उनके पिता के साथ-साथ उनके कुल के अन्य लोग भी बहुत समादृत कवि थे, अतः उनके कुल / वंश का नाम ही ‘कवीश्वर’ पड़ गया था। मात्र 9 वर्ष की उम्र में ही पद्माकर उत्कृष्ट कविता लिखने लगे थे। जयपुर नरेश महाराज जगत सिंह को पद्माकर ने अपना परिचय कुछ इस तरह दिया था-
भट्ट तिलंगाने को, बुंदेलखंड-वासी कवि, सुजस-प्रकासी 'पद्माकर' सुनामा होंजोरत कबित्त छंद-छप्पय अनेक भांति, संस्कृत-प्राकृत पढ़ी जु गुनग्रामा हों हय रथ पालकी गेंद गृह ग्राम चारू आखर लगाय लेत लाखन की सामां हों मेरे जान मेरे तुम कान्ह हो जगतसिंह तेरे जान तेरो वह विप्र मैं सुदामा हों।कवि का ठाठबाट, राजसम्मान और दानशीलता[संपादित करें]
पद्माकर राजदरबारी कवि के रूप में कई नरेशों से सम्मानित किये गए थे अतः वे अनेक राजदरबारों में सम्मानपूर्वक रहे। सुधाकर पांडेय ने[1] लिखा है- "...पद्माकर ऐसे सरस्वतीपुत्र थे, जिन पर लक्ष्मी की कृपा सदा से रही। अतुल सम्पत्ति उन्होंने अर्जित की और संग-साथ सदा ऐसे लोगों का, जो दरबारी-संस्कृति में डूबे हुए लोग थे। ...कहा जाता है जब वह चलते थे तो राजाओं की तरह (उनका) जुलूस चलता था और उसमें गणिकाएं तक रहतीं थीं।.." 'हिम्मत बहादुर विरुदावली' की भूमिका में दीन जी ने लिखा है -" ...पद्माकर ने अपनी काव्य-शक्ति के प्रताप से (एक अवसर पर तो) 56 लाख रुपये नकद, 56 गाँव और 56 हाथी इनाम में पाए थे।..रघुनाथ राव के पन्ना और जयपुर के रनिवासों में पद्माकर का पर्दा न था। उत्सवों और त्योहारों के अवसर पर राजसी शृंगार किये असूर्यपश्या कई कमनीय-कान्ताओं को उन्होंने नज़दीक से देखा था।.."[2]
समय-समय पर नागपुर, दतिया,सतारा, सागर,जैतपुर, उदयपुर , ग्वालियर, अजयगढ़ और बूँदी दरबार की ओर से उन्हें बहुत सम्मान और धन आदि मिला। पन्ना महाराज हिन्दुपति ने उन्हें पांच गाँव जागीर में दिए। जयपुर नरेश सवाई प्रताप सिंह ने एक हाथी, स्वर्ण-पदक, जागीर तथा 'कवि-शिरोमणि' की उपाधि दी और बाद में जयपुर राजा जगत सिंह ने उन्हें दरबार में धन-संपदा और आदर दिया और साथ में कुछ गांवों की जागीर भी। "कहते हैं कि पद्माकर अपनी उत्तरावस्था में तो आश्चर्यजनक रूप से इतने धनाढ्य व्यक्ति हो गए थे कि ज़रुरत पड़ने पर कई राजाओं / राजघरानों तक की 'आर्थिक-सहायता' स्वयं दरबारी कहे जाने वाले इस महाकवि ने की।" उनके वंशज गुरु कमलाकर 'कमल'[2] और भालचंद्र राव इस कोण से पद्माकर को मुग़ल-युग के भामा शाह जैसा मानते हैं जिन्होंने महाराणा प्रताप को मेवाड़ की सैन्यशक्ति पुनर्गठित करने के लिए अपनी संपत्ति दान कर दी थी।[3]
ग्रन्थ-रचना[संपादित करें]
पद्माकर रचित ग्रंथों में सबसे जाने माने संग्रहों में - हिम्मतबहादुर विरुदावली, पद्माभरण, जगद्विनोद, रामरसायन (अनुवाद), गंगालहरी, आलीजाप्रकाश, प्रतापसिंह विरूदावली, प्रबोध पचासा, ईश्वर-पचीसी, यमुनालहरी, प्रतापसिंह-सफरनामा, भग्वत्पंचाशिका, राजनीति, कलि-पचीसी, रायसा, हितोपदेश भाषा (अनुवाद), अश्वमेध आदि प्रमुख हैं।[4] अजयगढ़ के गुसाईं अनूप गिरी (हिम्मत बहादुर) की काव्यात्मक-प्रशंसा में उन्होंने 'हिम्मत-बहादुर-विरूदावली', जयपुर नरेश प्रतापसिंह के सम्मान में 'प्रतापसिंह-विरूदाली' और सवाई जगत सिंह के लिए 'जगत-विनोद', ग्वालियर के शासक दौलतराव सिंधिया के सम्मान में आलीजाप्रकाश, जयपुर नरेश ईश्वरी सिंह की प्रशस्ति में 'ईश्वर-पचीसी' जैसे सुप्रसिद्ध कविता-ग्रंथों की रचना की।
काव्य-सौन्दर्य[संपादित करें]
पद्माकर ने सजीव मूर्त विधान करने वाली कल्पना के माध्यम से शौर्य, शृंगार, प्रेम, भक्ति, राजदरबार की सम्पन्न गतिविधियों, मेलो-उत्सवों, युद्धों और प्रकृति-सौन्दर्य का मार्मिक चित्रण किया है। जगह-जगह लाक्षणिक शब्दों के प्रयोग द्वारा वे सूक्ष्म-से-सूक्ष्म भावानुभूतियों को सहज ही मूर्तिमान कर देते हैं। उनके ऋतु-वर्णन में भी इसी जीवन्तता और चित्रात्मकता के दर्शन होते हैं। उनके आलंकारिक वर्णन का प्रभाव परवर्ती कवियों पर भी सघन रूप से पड़ा। पद्माकर की भाषा सरस, काव्यमय, सुव्यवस्थित और प्रवाहपूर्ण है। अनुप्रास द्वारा ध्वनिचित्र खड़ा करने में वे सिद्धहस्त हैं। काव्य-गुणों का पूरा निर्वाह उनके छंदों में हुआ है। छंदानुशासन और काव्य-प्रवाह की दृष्टि से दोहा, सवैया और कवित्त पर जैसा असाधारण अधिकार पद्माकर का था, वैसा अन्य किसी मध्यकालीन कवि की रचनाओं में दिखलाई नहीं पड़ता।
व्रजभाषा के अलावा संस्कृत और प्राकृत पर भी पद्माकर का अद्भुत अधिकार था- उनके अप्रकाशित संस्कृत-लेखन पर गहन शोध-कार्य अपेक्षित है। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर मराठवाडा विश्वविद्यालय, औरंगाबाद के हिन्दी / संस्कृत विभाग ने कभी इसी दिशा में कुछ शोध-परियोजनाएं बनाई थीं।
निधन[संपादित करें]
कहा जाता है- जीवन के अंतिम समय में उन्हें कुष्ठरोग हो गया था, जिस से वह गंगाजल के ओषधिमूलक प्रयोग के बाद अंततः स्वस्थ भी हो गए। जगन्नाथ पंडितराज की तरह गंगा की स्तुति में अपने जीवन-काल की अंतिम काव्य-रचना “गंगा-लहरी” लिख कर कानपुर में गंगा-किनारे उनका 80 वर्ष की आयु में सन् 1833 में निधन हुआ। सागर में तालाब घाट पर पद्माकर की मूर्ति स्थापित है।
आधार-सामग्री[संपादित करें]
- नकछेदी तिवारी : देवनागर, वत्सर-1, अंक-1, 'पद्माकर कवि' पृष्ठ 17
- भालचंद्र कवीश्वर तैलंग,'माधुरी' अंक फरवरी 1934, पृष्ठ 34
- पंडित विश्वनाथ प्रसाद मिश्र : 'पद्माकर ग्रंथावली'
- शिव सिंह 'सरोज' : 'हिन्दी सहित्य का प्रथम' इतिहास: कवि संख्या 446 पृष्ठ 245
- सुधाकर पांडेय : 'हिन्दी-साहित्य-चिंतन' 'कला-मंदिर', दिल्ली पृष्ठ 349-354
- डॉ॰ भालचंद्र राव, प्रोफ़ेसर एवं विभागाध्यक्ष, हिन्दी विभाग, मराठवाडा विश्वविद्यालय द्वारा राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर में दिया व्याख्यान
- स्व. पंडित रत्नगर्भ तैलंग महापुरा और स्व. कमलाकर 'कमल' जयपुर के स्रोतों से प्राप्त जानकारी तथा 'उत्तर भारतीय आन्ध्र-तैलंग-भट्ट-वंशवृक्ष' (भाग-2) संपादक स्व. पोतकूर्ची कंठमणि शास्त्री और करंजी गोकुलानंद तैलंग द्वारा 'शुद्धाद्वैत वैष्णव वेल्लनाटीय युवक-मंडल', नाथद्वारा से वि. सं. 2007 में प्रकाशित पद्माकर कवीश्वर की ग्रन्थ-सूची
सन्दर्भ[संपादित करें]
- ↑ 'कला-मंदिर' दिल्ली : संचयन 'हिन्दी-साहित्य-चिंतन' : लेख ' कविवर पद्माकर: जीवन और साहित्य'
- ↑ नकछेदी तिवारी : देवनागर, वत्सर-1, अंक-1, 'पद्माकर कवि' पृष्ठ 17
- ↑ वार्ता और व्याख्यान
- ↑ स्व. पंडित रत्नगर्भ तैलंग महापुरा, स्व. पोत्कूर्ची कंठमणि शास्त्री नाथद्वारा और स्व. कमलाकर 'कमल' जयपुर के स्रोतों से प्राप्त जानकारी
बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]
- पद्माकरकृत ‘जगद्विनोद’ में अभिव्यक्त सामाजिक जीवन-मूल्य (दीपा)
साँचा:हिन्दी साहित्य