दूसरे सवैये में श्रीकृष्ण के कुछ बड़े बाल-रूप का वर्णन किया गया है। श्रीकृष्ण अन्य बालकों के साथ धूल में खेलते हैं। उनके सिर पर चोटी शोभायमान हो रही है। उन्होंने पीला कच्छा और दुपट्टा धारण कर रखा है। वे कुछ-न-कुछ खाते हुए आँगन में इधर-उधर घूम रहे हैं। बालक श्रीकृष्ण की माधुरी छवि इतनी सुन्दर है। कि उन पर करोड़ों कामदेवों एवं चन्द्र-कलाओं को न्यौछावर किया जा सकता है। इस प्रकार इसमें कवि ने श्रीकृष्ण के बाल-रूप का मोहक और आकर्षक चित्रण किया है। अन्य सवैयों में भी रसखान ने श्रीकृष्ण के बाल-रूप का मनोहारी निरूपण किया है। Show प्रश्न 2. अगर मनुष्य, पशु एवं पक्षी योनि में जन्म नहीं होवे, तो पेड़-पौधों, पाषाण, नदी-सरोवरं आदि के रूप में हो। इस प्रकार हर हालत में हमारा मातृभूमि से सम्बन्ध बना रहे और इससे हम कभी अलग नही होवें। कहा भी गया है कि ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’, अर्थात् जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से अधिक श्रेष्ठ एवं प्रिय होती है। प्रत्येक व्यक्ति मातृभूमि के मान-सम्मान एवं समृद्धि की कामना करता है तथा उसके कल्याण की कामना करता है। हम भी इसी तरह की कामना करते हैं। प्रश्न 3.
व्याख्यात्मक प्रश्न – 1. आजु गई हुती ………… पुचकारत छौनहि। RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 4 अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नRBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 4 वस्तुनिष्ठ प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 4 अतिलघूत्तरात्मक प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 4 लघूत्तरात्मक प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. RBSE Class 11 Hindi प्रज्ञा प्रवाह पद्य Chapter 4 निबन्धात्मक प्रश्न प्रश्न 1.
प्रश्न 2.
रचनाकार को परिचय सम्बन्धी प्रश्न – प्रश्न 1. रसखाने की साहित्यिक व्यक्तित्व अनुपम माना जाता है। इनकी प्रमुख चार कृतियों का उल्लेख मिलता है – ‘अष्टयाम’, ‘दानलीला’, ‘प्रेमवाटिका’ और ‘सुजान रसखान’। ‘प्रेम वाटिका’ छोटी-सी रचना है, इसके केवल बावन दोहे और सोरठे हैं। ‘सुजान रसखान’ में एक सौ उनतीस छन्द हैं, जिनमें कवित्तों की संख्या अधिक है। इन दोनों कृतियों का वर्ण्य-विषय प्रेम तथा प्रेमपूरित भक्ति है। रसखान के सवैये ‘रस की खान’ कहलाते हैं। इन्होंने ब्रजभाषा का प्रयोग कुशलता से किया है। रसखान कवि-परिचय- हिन्दी साहित्य के कृष्ण-भक्त मुसलमान कवियों में रसखान की गणनी सर्वप्रथम की जाती है। ये जाति के पठान थे और शाही खानदान से इनका सम्बन्ध था। इनका मूल नाम सैयद इब्राहीम था। ये कृष्ण-भक्ति में इतने निमग्न हो गये कि ब्रजभूमि में जाकर रहने लगे और गोस्वामी विट्ठलनाथ से बल्लभ सम्प्रदाय में दीक्षा लेकर कृष्ण की लीला-भूमि में विचरण करते रहे। इनका उल्लेख ‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता में हुआ है। इन्होंने नि:स्वार्थ एवं एकांगी प्रेम को ही प्रेम का आदर्श माना है। इनकी दो कृतियाँ उपलब्ध हैं ‘सुजान रसखान’ तथा ‘प्रेम वाटिका’। इन्होंने गीतिकाव्य न लिखकर कवित्त और सवैये लिखे हैं। पाठ-परिचय- पाठ में रसखान के सात सवैये संकलित हैं। प्रस्तुत सवैयों में इनका अपने आराध्य कृष्ण के प्रति प्रेम की निश्छलता, भावुकता, एकनिष्ठा, आडम्बरहीनता एवं आत्मीयता की भावधारा प्रवाहित हुई है। इन्होंने श्रीकृष्ण के बाल-रूप का मनोहारी वर्णन किया है तथा ब्रजभूमि के प्रति अपना अतिशय प्रेम दिखाया है। अपने आराध्य की प्रेमाभक्ति करने में ही रसखान ने मनुष्य जीवन की सार्थकता बतलायी है। इनके सवैयों में प्रेम-रस का प्रवाह वास्तव में रस की खान है, जो विशुद्ध ब्रजभाषा की मधुरता से ओतप्रोत है। सप्रसंग व्याख्याएँ। सवैया (1) कठिन शब्दार्थ-सेस = शेषनाग। महेस = शिव। गनेस = गणेश। दिनेस = सूर्य। सुरेसहु = इन्द्र भी। जाहि = जिसे। अनादि = जिसका आरम्भ नहीं। अनन्त = जिसका अन्त नहीं। प्रसंग-प्रस्तुत अवतरण कवि रसखान द्वारा रचित सवैयों से लिया गया है। कवि ने श्रीकृष्ण के बारे में बतलाया है कि वे भगवान् हैं। सभी देवता उनका गुणगान करते हैं। वे उनकी महिमा का पार नहीं प्राप्त कर पाते। वे भगवान् नर-लीला कर रहे हैं। व्याख्या-कवि रसखान कहते हैं कि शेषनाग, गणेशजी, शिवजी, सूर्य और इन्द्र जिनका निरन्तर गुणगान किया करते हैं। वेद उन्हें आदिरहित, अंतरहित, अखण्ड, अछेद्य ऑर अभेद्य बताते हैं। नारद, शुकदेव और व्यासजी जिनकी महिमा को जानने का प्रयास करके थक गये हैं, किन्तु उनकी महिमा का अन्त या रहस्य नहीं प्राप्त कर सके हैं। ऐसे भगवान् कृष्ण को अहीरों की लड़कियाँ (गोपियाँ) थोड़ी-सी। छाछ का लोभ देकर अपने इशारों पर नचाया करती हैं। बाल-रूप में श्रीकृष्ण उनके कहने पर नृत्य करने लगते हैं। विशेष- (2) कठिन शब्दार्थ-गई हुति = गयी थी। हौं = मैं। रई = डूबी हुई, पगी हुई, अनुरक्त। भौनहिं = भवन को। वाको = उसका। अँजन = काजल। डिठौनहिं = काजल। का टीका। निहारत = देखती। बारत = न्यौछावर होती। पुचकारत = प्यार करती। छौनहिं = बालक को, पुत्र को।। प्रसंग-प्रस्तुत अवतरण रसखान द्वारा रचित सवैयों से उद्धृत है। कोई गोपी नन्द के भवन गई। उसने देखा कि यशोदा बालक कृष्ण को तेल लगा रही है, काजल लगा रही है, उसे आभूषण पहनाकर प्यार कर रही है। इसी सम्बन्ध में यह वर्णन है। व्याख्या-गोपी कहती है कि आज अनुरागवश मैं सुबह ही नंदबाबा के भवन पर गई थी। मैंने देखा कि यशोदा अपने बालक के तेल लगा-लगाकरे, अंजन से भौंहें सँवार रही थी और बुरी नजर से बचाने के लिए काजल का टीका लगा रही। थी। उसने बालक को हेमपुष्पों का हार पहनाया और उसे प्यार भरी दृष्टि से देखा। वह उस पर न्योछावर हुई जा रही थी। उसे पुचकार रही थी। उसका बालक लाख, करोड़ वर्ष तक जिये। धन्य है यशोदा, जिसे ऐसा सुख मिला, उसके इस सुख का वर्णन नहीं किया जा सकता, अर्थात् वह सुख अवर्णनीय हैं। विशेष- (3) कठिन शब्दार्थ-धूरि भरे = धूल से सने हुए। सोभित = शोभा पाते हैं। पैंजनी = पायल। कछोटी = लंगोटी, कच्छा जैसा वस्त्र। बिलोकत = देखना। वारत = न्यौछावर करना। कलानिधि = चन्द्रमा। कोटी = करोड़ों। काग = कौआ।। प्रसंग-प्रस्तुत अवतरण भक्तकवि रसखान द्वारा रचित सवैयों से उद्धत है। इसमें श्रीकृष्ण के बाल-रूप का मनोरम वर्णन करके कवि ने उनके हाथ से माखन-रोटी ले जाने वाले कौए को भाग्यशाली बताया है। व्याख्या-कवि रसखाने वर्णन करते हुए कहते हैं कि बालक कृष्ण धूल से सने हुए अतीव शोभायमान हो रहे हैं, उनके सिर पर आकर्षक ढंग से बाँधी गई चोटी भी उसी प्रकार अतीव सुन्दर लग रही है। बालक कृष्ण ने पीला कच्छा धारण कर रखा है। वे खेलते हुए तथा कुछ-न-कुछ खाते हुए आँगन में इधर-उधर घूम रहे हैं, इस प्रक्रिया में उनके पैरों के मुँघरू या पायल अपने आप बजने से उनकी मधुर ध्वनि सुनाई दे रही है। कवि रसखान कहते हैं कि बालक कृष्ण की उस तरह की अमित मधुर छवि को देखकर करोड़ों कामदेवों की कलाएँ तथा चन्द्रमा की करोड़ों कलाएँ उनके सौन्दर्य पर न्यौछावर हो सकती हैं। जो कोई भी उनकी इस बाल-छवि को देखता है, वह स्वयं को अतीव भाग्यशाली मानता है। कोई गोपी कहती है कि हे सखि, वह कौआ अतीव भाग्यशाली रही, जो बालक कृष्ण के हाथ से माखन-रोटी छीन कर ले गया। अर्थात् श्रीकृष्ण के शरीर-स्पर्श से जो अपरिमित आनन्द-लाभ होता है, उसे प्राप्त कर वह कौआ हमारी अपेक्षा अधिक भाग्यशाली रहा। विशेष- (4) कठिन शब्दार्थ-मानुष = मनुष्य। हौं = मैं। ग्वारन = ग्वालों के बीच। धेनु = गाय। मॅझारन = मध्य में। पाहन = पत्थर। गिरि = पर्वत। कर = हाथ। पुरन्दर = इन्द्र। खग = पक्षी। कालिन्दी-कूल = यमुना तट। कदम्ब = एक प्रसिद्ध वृक्ष। प्रसंग-प्रस्तुत अवतरण रसखान द्वारा रचित सवैयों से उद्धृत है। यह कवि रसखान की कृष्ण-भक्ति से सम्बन्धित है। इसमें कवि किसी भी रूप में कृष्ण की क्रीड़ा-भूमि ब्रज में ही रहने की इच्छा व्यक्त कर रहा है। व्याख्या-कवि रसखान कहते हैं कि यदि मैं अगले ज़न्म में मनुष्य बनू, मनुष्य योनि प्राप्त करूं तो मैं चाहता हूँ कि मुझे ब्रज के गोकुल गाँव के ग्वालों के बीच रहने का सौभाग्य प्राप्त हो। अगले जन्म पर मेरा कोई वश तो है नहीं। यदि मुझे पशु बनना पड़े तो मैं चाहता हूँ कि मुझे नन्द बाबा की गायों के बीच में चरने का अवसर मिले। यदि मैं पत्थर बनाया जाऊँ तो चाहता हूँ कि मैं उस गोवर्धन पर्वत का एक पत्थर बनूं जिसे कृष्ण ने इन्द्र के प्रकोप से ब्रजवासियों की रक्षा करने के लिए अपने हाथ से छत्र की तरह उठा लिया था। यदि मैं पक्षी बनें तो मुझे यमुना के किनारे कदम्ब वृक्षों की डालों पर बसेरा करने वाले पक्षी के रूप में रहने का सुअवसर मिले। विशेष- (5) या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहुँ पुर को तजि डारौं। कठिन शब्दार्थ-लकुटी = लाठी, छड़ी। अरु = और। कामरिया = कम्बले। तिहुँ पुर = तीनों लोक। तजि = त्यागना। बिसारौं = भुला दें, छोड़ दें। तड़ाग = तालाब। निहारौं = देख लें। कोटिक = करोड़ों। कलधौत = स्वर्ण के धाम = घर, भवन। वारौं = न्यौछावर कर दें। प्रसंग-प्रस्तुत पद्यावतरण रसखान द्वारा रचित सवैयों से उद्धृत है। रसखान कृष्ण के भक्त हैं। वे कहते हैं कि मुझे कृष्ण की क्रीड़ास्थली के कुंजों में विचरण करने, नन्द की गायें चराने का सुख मिले तो मैं उस पर तीनों लोकों का सुख, सिद्धियों और निधियों का सुख भी न्यौछावर कर दें। व्याख्या-रसखान कहते हैं कि मैं कृष्ण की छड़ी या लाठी और कम्बल के लिए तीनों लोकों का सुख त्याग सकता हूँ। नन्द बाबा की गायें चराने को मिलें तो उस सुख पर मैं आठों सिद्धियों और नौ निधियों का सुख भी त्याग दें। अर्थात् गायें चराने का सुख मिलने पर आठों सिद्धियों और नौ निधियों के सुख को भी भुला दूंगा। जब मेरे नेत्रों को ब्रज के बाग, तालाब देखने को मिल जाएँ और करील के कुंजों में विचरण करने का अवसर, सौभाग्य मिल जाए तो मैं उस सुख पर सोने के करोड़ों भवनों को भी न्यौछावर कर सकता हूँ। रसखान यह कहना चाहते हैं। कि मुझे कृष्ण से सम्बन्धित ब्रज की वस्तुओं से जो सुख प्राप्त हो सकता है, वह और किसी भी तरह नहीं मिल सकता। विशेष- (6) कठिन शब्दार्थ-बैन = वाणी। सानी = सराबोर, भरे हुए। गात = शरीर। अनुजानी = अनुगमन करना। जान = जीवनी शक्ति। मनमानी = मन के वश में होकर काम करना। रसखानि = रस की . खान।। प्रसंग-यह अवतरण रसखान द्वारा रचित सवैयों से लिया गया है। इसमें कवि ने यह प्रतिपादित किया है कि उसी व्यक्ति का जीवन धन्य है, जो श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहता है। व्याख्या-भक्तकवि रसखान कहते हैं कि वाणी वही धन्य है जो श्रीकृष्ण का गुणगान करती है, अर्थात् श्रीकृष्ण का गुणगान करना ही वाणी की सत्यता का प्रमाण है। कान वही उपयोगी और श्रेष्ठ हैं जो श्रीकृष्ण की मधुर वाणी के रस से भरे रहते हैं। शरीर के साथ वे ही हाथ सार्थक हैं जो श्रीकृष्ण के शरीर का स्पर्श करते हैं और उन्हें ही सब कुछ मानते रहते हैं। पैर भी तभी सार्थक हैं जो कि गतिशील होकर श्रीकृष्ण के द्वारा बताये हुए मार्ग का अनुगमन करते रहते हैं। जीवनी शक्ति और जीवन दोनों ही उस व्यक्ति के धन्य हैं, जो उन श्रीकृष्ण की मर्यादा से जुड़े हुए हैं। मान-सम्मान वही सच्चा एवं सार्थक है, जो श्रीकृष्ण की भावना के अनुकूल अर्थात् उनके मनोनुकूल कार्य करता रहता है। रसखान कहते हैं। कि सच्चे रसखान तो वे ही हैं, जो रसिक एवं आनन्द-रस की खान या भण्डार हैं, अर्थात् उन्हें ही सही अर्थ में रसखान कहा जा सकता है। आशय यह है कि आनन्द के भण्डार श्रीकृष्ण से अनुरागानुगा भक्ति रखने वाला ही वास्तविक आनन्द का अनुभव कर सकता है और वही व्यक्ति अपना जीवन आनन्दमय बना सकता। विशेष- (7) कठिन शब्दार्थ-सुरेस = देवराज इन्द्र। दिनेस = सूर्य। प्रजेस = ब्रह्मा। धनेस = कुबेर। भवानी = पार्वती। रमा = लक्ष्मी। भजि = भजन करके। पुरावौ = पूरी करो। साधन = सहारा। नसावौ = नष्ट होवे। प्रसंग-यह अवतरण कवि रसखान द्वारा रचित सवैयों से उद्धृत है। इसमें कवि ने श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति-भाव व्यक्त किया हैं तथा उन्हीं को अपने लिए सब कुछ माना है। व्याख्या-रसखान कहते हैं कि कोई व्यक्ति भले ही शेषनाग, देवराज इन्द्र, सूर्य, गणेश, ब्रह्मा, कुबेर एवं शिवजी आदि का भजन कर उन्हें मनाते रहें, किन्तु श्रीकृष्ण की भक्ति और भजन के समान इनमें से किसी की भी भक्ति को उतना महत्त्व नहीं है। इसी प्रकार चाहे कोई पार्वती की, भक्ति सच्चे मन से कर ले और अपनी सभी प्रकार की आशाओं या मनोरथों को सब तरह पूरा करा दे अर्थात् मनचाहा समस्त कार्य करा देवे, इसी प्रकार कोई व्यक्ति लक्ष्मी की भक्ति करके उनसे अपनी भक्ति-भाक्ना के फलस्वरूप मनवांछित अपरिमित धन भी प्राप्त कर ले, परन्तु जो फल कृष्ण-भक्ति से मिलता है वह और की भक्ति से सम्भव नहीं है। कवि रसखान कहते हैं कि मैं तो केवल श्रीकृष्ण की ही भक्ति करता हूँ, मुझे तो उन्हीं का सहारा है और वे ही मेरे समस्त साधन हैं। भले ही मेरे लिए तीनों लोक रहें या तीनों लोकों का सुख मिले या न मिले, किन्तु मैं अपने जीवन की सार्थकता श्रीकृष्ण की भक्ति से ही मानता हूँ।। करील के कुंजों के ऊपर कवि क्या न्योछावर करना चाहता है?उत्तर : रसखान करील के कुंजों पर सोने के महलों को भी न्योछावर करने को तैयार हैं क्योंकि सुनहरे महलों में श्रीकृष्ण ने लीलाएँ नहीं कीं जबकि इन करील के कुंजों में उन्होंने लीलाएँ की हैं। यहाँ कवि को राधा और श्याम दोनों की पद-रज का स्पर्श मिलेगा, उनका अनुग्रह प्राप्त होगा ।
कवि रसखान करील की झाड़ियों के ऊपर क्या न्योछावर कर देना चाहते हैं * 1 Point?कोटिक ए कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर वारौं। उत्तर: कृष्ण के प्रेम के लिए वे किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। यहाँ तक कि ब्रज की कांटेदार झाड़ियों के लिए भी वे सौ महलों को भी निछावर कर देंगे।
|