ग्रामीण जीवन की विशेषताएं
gramin jivan ki visheshtayen;सभी ग्राम संस्कृतियों मे कुछ न कुछ एकता पाई जाती है। इन्हें ग्राम्य जीवन सार्वभौम लक्षण या तत्व कह सकते है। इसके अलावा कुछ ऐसे तत्व भी हो सकते है जो प्रत्येक देश मे समान नही है, इन्हें हम आकस्मिक, परिस्थितिजन्य, संक्रमणकालीन, परिवर्तनशील या राष्ट्रीय तत्व या लक्षण कह कहते है। इसके अतिरिक्त किसी विशेष संस्कृति मे कोई एक विशेषता, स्थिति या तथ्य सदैव विद्यमान नही रहता। उसमे बराबर परिवर्तन होते रहते है। बाहरी और आंतरिक प्रभाव, उसके स्वरूप और धारणाओं मे निरन्तर हेर-फेर पैदा करते रहते है। भारतीय ग्राम जीवन विशेषताओं का अध्ययन करते समय इन सार्वभौम और विशेष, स्थाई और परिवर्तनशील पहुलुओं को निरन्तर ध्यान मे रखना जरूरी है।
ग्रामीण जीवन की निम्न विशेषताएं है--
1. प्रकृति से निकटता
ग्रामवासी प्रकृति के अधिक निकट होते है क्योंकि ऊषा, संध्या, ऋतु परिवर्तन, पौधे, पक्षी, पशु तथा अन्य प्राकृतिक वस्तुओं और घटनाओं से उनका अधिक संपर्क रहता है और वे उनसे सदा अद्भुत आत्मीयता का अनुभव करते है। प्रकृति के साथ उनकी यह आत्मीयता उनके लोकगीतों, जनश्रुतियों और उनके विश्वासों मे प्रकट होती है।
2. नारी का निम्न स्तर
भारत के गाँवो के उदय के साथ सामान्तवाद का भी विकास हुआ। इस सामन्तशाही व्यवस्था मे अनेक जमींदारों एवं ताल्लुकेदारों के यहाँ बहुपत्नी प्रथा थी। शनैः शनैः ये स्त्रियाँ एक सजावट की वस्तु समझी जाने लगी। घर की आर्थिक व्यवस्था मे उनको कोई उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य नही सौपा जाता था। ऐसी स्थिति मे बड़े घरों मे उनकी कोई आवाज न थी, जिसके कारण उनका स्तर निरन्तर नीचा होता चला गया। किन्तु निम्न आर्थिक स्तर के लोगों मे, जिनमें खेतिहर मजदूर तथा कुछ किसान भी आते है, स्त्रियों का स्थान अपेक्षाकृत ऊंचा रहा, क्योंकि स्त्रियां दैनिक काम-काज मे हाथ बँटाती थीं तथापि उच्च वर्गों के प्रतिष्ठागत प्रभाव के कारण स्त्री के प्रति उनमें भी सम्मान की भावना नही है। इसलिए स्त्री को निम्न स्तर पर समझा जाता है।
3. धर्म का व्यापक प्रभाव
प्राचीन लोगों की तरह आज भी ग्रामवासी अमानवीय अलौकिक और लोकोत्तर शक्तियों में गहरा विश्वास रखते हैं वर्षा, बाढ़, महामारियां पशु एवं पौधों के रोग इत्यादि के कारण उनकी वार्षिक आय अनिश्चित है तथा इस दृष्टि से बे अपने आप को असहाए पाते हैं। जिसके कारण अलौकिक शक्तियों में उनका विश्वास और भी पक्का हो जाता है। अतः इन शक्तियों के भय और उनके प्रति श्रद्धा धीरे-धीरे धर्म में विलीन हो गई और इसलिए ऐसे विश्वासों को भी धार्मिक विश्वास समझा जाने लगा। फलस्वरुप उनके परिवार, उनकी नैतिकता, उनके विचार, खानपान, मनोरंजन, चिकित्सा, आर्थिक क्रियाएं भी उनके धर्म और विश्वास द्वारा निर्धारित होने लगी। अन्य स्थानों की पूर्ति के लिए धार्मिक पुरोहितों वर्ग की उत्पत्ति हुई तथा सामूहिक पूजा स्थान मंदिर मस्जिद इत्यादि का निर्माण हुआ।
4. रीति-रिवाजों का प्रभाव
ग्रामवासियों का जीवन अधिकांश प्रतियोगिता व्यापार या सरकारी कानूनों से निर्धारित नहीं होता बल्कि गांव के रिवाज प्रथा और परंपराओं से चलाती हैं। विभिन्न सेवाओं के लिए किसान या ग्रामवासियों द्वारा दी गई मजदूरी अवधि कुछ जगह उस सेवा के आर्थिक सिद्धांत से निश्चित ना होकर रिती-रिवाज के आधार पर निश्चित की जाती है। बाहरी विचारों और बाहर के संपर्क में आने से रिवाजों की शक्ति, विशेषता आर्थिक क्षेत्र में कमजोर होती जा रही है।
5. आदर्श और परम्पराओं की एकता
ग्रामीण जीवन की आत्मनिर्भरता बाहर के प्रभावों से प्रतिरक्षा ग्रामवासियों के आदर्श और एकता की आधारशिला है। ग्राम जीवन में परिवर्तन धीमी गति से आता है साथ ही गांव में विभिन्न विरोधी विचारधाराओं वाले विरोधी दल उग्रपंथी दल तथा उनके विचार एवं प्रसार के साधन और संस्थाएं भी नहीं होती। इस कारण ग्रामवासियों के आदर्शों और परंपराओं में अधिकतर एकता पाई जाती है।
6. संतोष और भाग्यवादी दृष्टिकोण
धर्म और कर्म के सिद्धांतों में अटूट विश्वास प्राकृतिक आपदाओं के समय आदर्शों तथा पुरुषार्थ द्वारा सीमित अवसर और सुविधाएं और समाज जातिगत श्रेणीबद्ध और अजनतांत्रिक संगठन से पलायन की असमर्थता गरीबी और प्रगतिशील जीवन सभी मिलकर उसे एक संतोषी और भाग्यवादी व्यक्ति बनाने के लिए मजबूर कर देते हैं। वह अनुभव करता है कि उसके प्रयत्न उसे इन कठिनाइयों से मुक्ति नहीं दिला सकते केवल भगवान ही उसे इन बंधनों से छुटकारा दिला सकता है।
7. अगतिशील जीवन
उत्पादन के अपर्याप्त साधन और पर्याप्त अवकाश होने के कारण ग्रामीण जीवन की गति शहरी जीवन से मंद होती है। गांव वालों के सब काम धीरे-धीरे चलते हैं यह मंदता केवल बाहरी दौड़-धूप तक ही सीमित नहीं है। बल्कि उनके विचारों विश्वासों और संस्थाओं में भी दिखाई देती है।
8. जाति के आधार पर सामाजिक स्तर निर्धारण </p><p>भारत के ग्रामों में सामाजिक संगठन का प्रमुख आधार जाति भेद है। जन्म से जाति निर्धारित होती है और इसी से उसका पद, महत्व, कार्य तथा उसका धंधा आदि निर्धारित होते है। ऊंच-नीच के आधार पर संगठित श्रेणीबद्ध सामाजिक व्यवस्था जातीय संगठन की विशेषता है। इस प्रकार के सामाजिक संगठन में गतिशीलता कम होती है। व्यक्ति का पेशा उसके जन्म के साथ ही निर्धारित हो जाता है तथा उसकी बुद्धि चेतन इयत्ता रूप एवं शारीरिक शक्ति उसे बदलने में असमर्थ होते हैं।</p><p><b>9. जातियों मे गुटबंदी</b>&nbsp;</p><p>भारतीय ग्रामीण संगठन की विवेचना में जाति रिश्तेदारी और अंतःक्रिया&nbsp; ग्रामीण संबंधों के महत्व पर बहुत जोर दिया गया है। किंतु जातियों के भीतर के छोटे संयुक्त एवं सुदृढ़ समूहों की प्रयाः उपेक्षा कर दी जाती है। हालांकि यह ही शक्ति, सामंजस्य, भावी निर्णयों मे प्रमुख केन्द्र है तथा ग्राम संगठन के विभक्त और खंडित स्वरूप की ओर संकेत करते हैं। विभिन्न जातियों के गुटों के कार्यों में कुछ अंतर होता है फिर भी सभी गुट अनुष्ठानिक अवसरों जैसे शिशु का जन्म, सगाई विवाह, मुकदमा, जातीय पंचायत के कार्यों चुनाव इत्यादि में एक बड़ी सीमा तक संयुक्त इकाई की तरह काम करते हैं। इसके अतिरिक्त सभी गुटों के एक या अधिक हुक्का पीने वाले समूह है जहां वे अपने फालतू समय में एकत्रित होकर हुक्का पीते समय गपशप करते हैं। यह हुक्का समूह समाज के दैनिक क्रियाकलाप को बहुत अधिक प्रभावित करते हैं।<script async src="//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"> <ins class="adsbygoogle" style="display:block;text-align:center" data-ad-layout="in-article" data-ad-format="fluid" data-ad-client="ca-pub-4853160624542199" data-ad-slot="5627619632"></ins> <script> (adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
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