बिहार की लोक कला क्या है - bihaar kee lok kala kya hai

लोक कला एवं संस्कृति निष्पादन केंद्र की स्थापना बिहार की लोक संस्कृति एवं कलाओं को संरक्षित रखने एवं उसे अकादमिक अध्ययन का विषय बनाने की दृष्टि से की गई है। इसके अंतर्गत मैथिली, बज्जिका, भोजपुरी, मगही और अंगिका लोक साहित्य, लोक कला एवं लोक संस्कृति के विविध आयामों, विविध रूपों एवं पांडुलिपियों को डिजिटल फॉर्म में संरक्षित कर इन संस्कृतियों को वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाने का प्रयास किया जा रहा है। लोक कलाकारों एवं साहित्यकारों को भी विश्वविद्यालय इस केंद्र के माध्यम से मंच उपलब्ध करवाकर इन संस्कृतियों के संवर्द्धन का प्रयास कर रहा है। यह केंद्र अकादमिक अध्येयताओं और बिहार की जीवंत लोक संस्कृति के बीच सेतु का कार्य कर रहा है ।

लोक कला एवं संस्कृति निष्पादन केंद्र द्वारा आयोजित कार्यक्रम निम्न प्रकार हैं -

1. लोक संस्कृति पर्व – 3 अक्टूबर 2020 विश्वविद्यालय के चतुर्थ स्थापना दिवस समारोह के अवसर पर शनिवार को 2:00 से 4:00 बजे माननीय कुलपति प्रो. संजीव कुमार शर्मा की अध्यक्षता में ‘लोक संस्कृति पर्व’ का आयोजन किया गया इस कार्यक्रम में बिहार के लोक जीवन, लोक गायन, लोक नृत्य, लोक संभाषण के माध्यम से बिहार की सांस्कृतिक विरासत का प्रदर्शन किया गया । डॉ. अंजनी कुमार श्रीवास्तव ने इस आयोजन का संयोजन किया ।

2. एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी - 13 दिसंबर 2020 को ‘लोक परंपरा एवं आधुनिकता’ विषय पर एक दिवसीय राष्ट्रीय आनलाईन संगोष्ठी का आयोजन किया गया । इस संगोष्ठी की अध्यक्षता माननीय कुलपति प्रो. संजीव कुमार शर्मा ने की । इस संगोष्ठी में श्री प्रफुल्ल केतकर, श्री हितेश शंकर और डॉ बालमुकुंद पांडे को मुख्य वक्ताओं के रूप में आमंत्रित किया गया । डॉ स्वाति, डॉ कुंदन किशोर रजक, डॉक्टर बबीता मिश्रा, डॉ बिमलेश कुमार सिंह, प्रो. प्रसून दत्त सिंह, डॉ. अंजनी कुमार झा ने इस कार्यक्रम में महती भूमिका निभाई ।

3. लोक परंपरा एवं आधुनिकता विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी - 14 जनवरी 2021 माननीय कुलपति महोदय डॉ. संजीव कुमार शर्मा की अध्यक्षता में मकर सक्रांति के अवसर पर ‘लोक परंपरा एवं आधुनिकता’ विषय पर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की गई जिसमें मुख्य अतिथि प्रो. जयकांत सिंह (एल.एस. कॉलेज मुजफ्फरपुर) तथा विशिष्ट अतिथि डॉ. गोरख प्रसाद मस्ताना उपस्थित रहे । केंद्र के निदेशक प्रो. राजेंद्र सिंह द्वारा संपादित पुस्तक ‘लोक परंपरा और आधुनिकता’ का लोकार्पण भी किया गया । अनेक विद्यार्थियों ने लोक भाषाओं में गीत प्रस्तुत किए ।

4. विशिष्ट व्याख्यान का आयोजन - 17 फरवरी 2021 ‘लोक कला एवं संस्कृति निष्पादन केंद्र’ एवं ‘वाणिज्य विभाग’ के संयुक्त तत्वावधान में ‘लोक परंपरा और भारतीय समाज’ विषय पर एक विशिष्ट व्याख्यान का आयोजन किया गया जिसकी अध्यक्षता माननीय कुलपति प्रो. संजीव कुमार शर्मा ने की और जिस के मुख्य अतिथि एवं मुख्य वक्ता श्री अशोक बेरी जी रहे । प्रति कुलपति प्रोफेसर जी गोपाल रेड्डी के सान्निध्य में डॉ विश्वेश, प्रो. त्रिलोचन शर्मा, डॉ. सुब्रत राय, शिवेंद्र सिंह, डॉ. अंजनी कुमार झा और डॉ. बिमलेश कुमार सिंह ने विभिन्न भूमिकाओं में कार्य किया ।

5. अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस का आयोजन - 21 फरवरी 2021 को ‘लोक कला एवं संस्कृति निष्पादन केंद्र’, ‘भारत विद्या केंद्र’ तथा ‘मानविकी एवं भाषा संकाय’ के संयुक्त तत्वावधान में माननीय कुलपति प्रो. संजीव कुमार शर्मा की अध्यक्षता और प्रति कुलपति प्रो. जी. गोपाल रेड्डी के सानिध्य में अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस का आयोजन किया गया । इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल (महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा) तथा मुख्य वक्ता के रूप में प्रो. नीरजा ए. गुप्ता (निदेशक, प्रवासी अध्ययन केंद्र, गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदाबाद) ने शिरकत की । इस कार्यक्रम में देश के विभिन्न राज्यों से आए विश्वविद्यालय के शिक्षकों ने अपने-अपने राज्य की भाषा का प्रतिनिधित्व करते हुए अपनी-अपनी प्रस्तुतियां दीं ।

6. चित्रकला कार्यशाला 22 फरवरी 2021 माननीय कुलपति महोदय संजीव कुमार शर्मा जी की उपस्थिति एवं गोपाल रेड्डी के सानिध्य में चित्रकला कार्यशाला का आयोजन किया गया । इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रुप में विश्व के तेज चित्रकार श्री परमवीर शाह आए । उन्होंने चित्र बनाने के कुछ सूत्र बताए । इस कार्यक्रम का संयोजन डॉ. अंजनी कुमार झा ने किया ।

7. पी एच.डी. में नामांकन - ‘लोक कला एवं संस्कृति निष्पादन केंद्र’ लोक भाषा और संस्कृति से सम्बद्ध शोध में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है । इस वर्ष दो छात्रों का केंद्र के सहयोग से पी एच. डी. हिंदी में नामांकन हुआ है, जो लोक से सम्बद्ध विषयों पर शोध करेंगे ।

दरभंगा। बिहार की लोक कला गौरवशाली है। इस बात को लेकर सेमिनार आयोजित होना अच्छी बात है। सभी को इसमें सक्रियता पूर्वक भाग लेना चाहिए। लनामिविवि के पीजी संगीत एवं नाट्य विभाग में रविवार को भारत लोक रंग महोत्सव के मौके पर आयोजित सेमिनार के उदघाटन संबोधन में वीसी प्रो. एस कुशवाहा ने उक्त बातें कहीं। उन्होंने आयोजन की सराहना करते हुए कहा कि आगे से इस तरह के छात्रों को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से छात्रवृत्ति व गोल्ड मेडल देने की व्यवस्था होगी। पूर्वी क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र के ई. राजर्षी चंद्रा ने कहा कि भारत लोक रंग महोत्सव के माध्यम से क्षेत्रीय विधाओं का प्रचार प्रसार होता है। भारत सरकार से मान्यता प्राप्त उनकी संस्था का मुख्य कार्यक्रम पटना में हो रहा है। वहीं मधेपुरा बेगूसराय के बाद आज दरभंगा में शुरू हुआ है। यह तीन दिनों तक चलेगा। विभागाध्यक्ष डॉ. पुष्पम नारायण ने स्वागत संबोधन किया। उन्होंने बताया कि बिहार की लोककला व चुनौतियां पर आयोजित सेमिनार में आज डॉ. अशोक कुमार मेहता बिहार लोक कला में खिस्सा पिहानी, डॉ. लावण्य कीर्ति ¨सह काव्या बिहार की संस्कृति में लोक संगीत, डॉ. कृष्ण कुमार कश्यप मिथिला चित्रकला एक सशक्त कला एवं चुनौतियां तथा पीजी ¨हदी के विभागाध्यक्ष डॉ. रामचंद्र ठाकुर ने बिहार की लोक कलाएं एवं चुनौतियां पर शोध पत्र प्रस्तुत किये। सोमवार को डॉ. धर्मेंद्र कुमर, डॉ. उमेश उत्पल व डॉ. वेद प्रकाश तथा मंगलवार को प्रो. प्रफुल्ल कुमार ¨सह मौन, डॉ. महेंद्र नारायण राम व अनिल पतंग शोध प्रपत्र प्रस्तुत करेंगे। उदघाटन सत्र में डॉ. प्रभाकर पाठक व डॉ. श्याम चंद्र गुप्ता ने भी विचार रखे। धन्यवाद ज्ञापन डॉ. लावण्य कीर्ति ¨सह काव्या ने किया।

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बिहार की प्रमुख लोक कला कौन सी है?

मधुबनी लोक कला बिहार के मधुबनी स्थान से संबन्धित है। मधुबन का अर्थ है 'शहद का वन' और यह स्थान राधा कृष्ण की मधुर लीलाओं के लिये प्रसिद्ध है। मधुबनी की लोक कला में भी कृष्ण की लीलाओं को चित्रित किया गया है।

लोक कला का क्या नाम है?

कलमकारी, कांगड़ा, गोंड, चित्तर, तंजावुर, थंगक, पातचित्र, पिछवई, पिथोरा चित्रकला, फड़, बाटिक, मधुबनी, यमुनाघाट तथा वरली आदि भारत की प्रमुख लोक कलाएँ हैं।

लोक कला कितने प्रकार के होते हैं?

भारत की लोक चित्रकला.
मधुबनी चित्रकला.
पट्टचित्र कला.
पिथोरा चित्रकला.
कलमकारी चित्रकला.
कालीघाट चित्रकला.
फर्श चित्रकला (पट चित्रकला).
वर्ली चित्रकला.
थांका चित्रकला.

लोक कला का क्या मतलब है?

लोक कला – स्थानीय समुदाय की समग्र कलात्मक गतिविधि, आमतौर पर ग्रामीण। रचनात्मकता के अलावा, जिसे लोक कला के लिए कला कहा जाता है, इसमें संगीत, नृत्य, किंवदंतियां, परियों की कहानियां, लोक कविता और लोक रीति-रिवाजों के पूरे कलात्मक पक्ष भी शामिल हैं।

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