HomeMPS Solved Assignmentआत्मनिर्णय की अवधारणा और उसके अनुप्रयोग में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका का मूल्यांकन कीजिए।
आत्मनिर्णय की अवधारणा और उसके अनुप्रयोग में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका का मूल्यांकन कीजिए।
समाज विज्ञान विश्व कोश (Encyclopedia of Social Sciences) ने आत्म-निर्णय की व्याख्या इस प्रकार की है, “एक राष्ट्रीयता के सभी लोगों को अपने स्वयं के राज्य में अपना शासन स्वयं करने के लिए एक साथ रहने का अधिकार है। इसलिए यह स्पष्ट है कि यह अवधारणा राष्ट्रवाद की अवधारणा पर स्थित है। राष्ट्रवाद में समुदाय की ओर से अपनी अलग पहचान के लिए स्वानुभूतिमूलक भावना और स्व-शासन या स्वतंत्र होने की प्रेरणा या आकांक्षा अन्तर्निहित है।
भाषा, धर्म, वंश या सांझे ऐतिहासिक अनुभव के आधार पर पहचान हो सकती है और ये विशेषताएँ लोगों में उभय भावनात्मक बंधनों को सुदृढ़ बनाने में सहायक होते हैं। यह आधार काल्पनिक हो सकता है परन्तु बंधन वास्तविक होते हैं। प्रथम विश्व युद्ध के बाद, राष्ट्रपति, विल्सन के चौदह सूत्रों में समाविष्ट वचन के बावजूद एशिया और अफ्रीका – ब्रिटिश, फ्रेंच, डच और पुर्तगाली के उपनिवेशी साम्राज्यों में लोगों पर आत्मनिर्णय के सिद्धान्त लागू नहीं किए गए।
लींग ऑफ नेशन्स के प्रतिज्ञापन में केवल कहा गया, सदस्य “अपने नियंत्रण के अधीन देशीय निवासियों की न्यायसंगत व्यवहार की सुरक्षा का प्रबंध शुरु करने के लिए सहमत हुए।” वास्तव में, उनके अधिकांश नेताओं ने इसे उनके प्रति विश्वासघात समझा जब उन्होंने युद्ध के दौरान इस आधार पर अपने उपनिवेशी स्वामियों को भरपूर सहयोग दिया था कि युद्ध सफलता के साथ समाप्त होने पर उन्हें पर्याप्त पुरस्कृत किया जाएगा, यदि पूर्ण स्वराज्य नहीं दिया गया तो स्वशासन दिया जाएगा। इसलिए, विशेषकर भारत में, जन आन्दोलन और शासकों से असहयोग आरंभ हुआ। यह द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भी जारी रहा।
संयुक्त राष्ट्र चार्टर का प्रारूप तैयार करते समय, इसके संस्थापकों की चिन्ता स्पष्टतः आत्म-निर्णय के प्रश्न की अपेक्षा शान्ति और सुरक्षा, राष्ट्रों की क्षेत्रीय अखंडता की पवित्रता से अधिक थी। इन चिंताआ का उल्लेख चार्टर में पहले किया गया है और आत्म-निर्णय का उसके बाद। बाद में आत्मनिर्णय का उल्लेख चार्टर में केवल दो स्थानों पर हुआ है। संयुक्त राष्ट्र के प्रयोजनों में से एक उल्लेख इस प्रकार है “लोगों के समान अधिकारों और आत्म-निर्णय के सिद्धान्त के लिए सम्मान के आधार पर राष्ट्रों के बीच मित्रतापूर्ण संबंध विकसित करना” (अनुच्छेद 1.2)।
इसका उल्लेख सिद्धान्त के रूप में भी मिलता है जो लोगों को सामाजिक और आर्थिक दशाओं तथा अधिकारों के विकास का आधार होना चाहिए। (अनुच्छेद 55) अब इस बात पर सहमति हुई है कि यहाँ शब्द “लोग” का संबंध उन लोगों से हैं जो अभिशप्त उपनिवेशी शासन के अधीन थे। व्यापक संदर्भ में चार्टर अध्याय XII, XIII और XI में न्यासी परिषद (ट्रस्टीशिप कॉउन्सिल) और अस्वशासी राज्य क्षेत्रों (नॉन सेल्फ गवर्निंग टैरिटैरीज) के लिए प्रावधान करता है।
शत्रु राष्ट्रों के राज्य क्षेत्रों उपनिवेशों के साथ राष्ट्र संघ (लीग ऑफ नेशन्स) के अधीन अधिदेशों को न्यास के रूप में शामिल किया गया और इसे प्रशासन का प्रभार दिया गया और इस का पर्यवेक्षण न्यासी परिषद को सौंपा गया। इसका उद्देश्य निवासियों की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक प्रगति तथा स्वशासन और स्वतंत्रता के लिए प्रगामी विकास को बढ़ावा देना था। न्यासी परिषद को निवासियों से याचिकाएँ प्राप्त करने, प्रशासन प्राधिकारियों से रिपोर्ट लेने, जाँच करने और महासभा (जनरल असेम्बली) को रिपोर्ट करने की शक्तियाँ दी गई।
1950 में दय न्यास राज्य क्षेत्रों में से दो को छोड़कर 1970 तक सभी स्वतंत्र हो गए थे। चार्टर का अध्याय XI उपनिवेशों पर घोषणा थी। इन उपनिवेशों को अस्वशासी राज्यक्षेत्र कहा गया। इसके अधीन सदस्य देश जो इन उपनिवेशों के प्रति उत्तरदायी थे, (पुर्तगाल को छोड़कर) “निवासियों के कल्याण के भरसक प्रयास की बाध्यता को पवित्र विश्वास के रूप में स्वीकृत करने और स्वशासन तथा स्वतंत्र राजनीतिक संस्थाओं का विकास करने” तथा यू. एन .को आर्थिक, सामाजिक तथा शैक्षिक दशाओं के बारे में सूचना देने के लिए वचनबद्ध थे। संयुक्त राष्ट्र ने 1946 में ऐसे राज्य क्षेत्रों की संख्या 74 बताई गई थी।
स्वशासन की दिशा में प्रगति मॉनीटर करने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने स्वशासी राज्य क्षेत्रों पर समिति के रूप में शासन प्रणाली तैयार की। यूरोप में साम्राज्यिक शक्ति, विशेषकर फ्रांस और पुर्तगाल ने अपने बाहरी उपनिवेशों (जैसे अल्जीरिया और गोवा) को अपने राष्ट्रों के अभिन्न अंग मानने की रणनीति का अनुसरण किया। उन्होंने अपने राष्ट्रिकों को उन राज्य क्षेत्रों में बसाया जो वहाँ के मूल निवासियों के साथ अपने विधानमंडलों में प्रतिनिधि थे। इस प्रकार तकनीकी दृष्टि से मूल निवासी ‘प्रजा’ नहीं थी बल्कि उन मेट्रोपोलिटन राज्यों के “स्वतंत्र” राष्ट्रिक थे। इन राज्य क्षेत्रों के प्रश्न पर संयुक्त राष्ट्र द्वारा विचार करने के किसी भी प्रयास का इस आधार पर विरोध किया जाता था कि यह चार्टर के अनुच्छेद 2(7) का उल्लंघन करता है।