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Last updated on Sep 22, 2022
The Uttar Pradesh Subordinate Services Selection Commission, on 7th September 2022 had released the final answer key of the UP Lekhpal mains exam for advt no 01/2022. The UP Lekhpal Exam was conducted on 31st July 2022. The candidates can calculate their scores using the final answer key and the marking scheme of the exam. It is expected that the board will soon release the merit list. This cycle is ongoing for 8085 vacancies where candidates between the age of 21 to 40 years were eligible to apply. Know the UP Lekhpal Answer key details here.
मुगल वंश का संस्थापक कौन था?
- बाबर
- हुमांयू
- इब्राहिम लोधी
- अकबर
Answer (Detailed Solution Below)
Option 1 : बाबर
मुगल साम्राज्य की स्थापना बाबर ने 1526 ई. में की थी।
- उसने 1526 ई. से 1530 ई. तक भारत पर शासन किया।
- एक मध्य एशियाई शासक था जो तुर्क-मंगोल मूल का था।
- वह अपने पिता के पक्ष में तैमूर के वंशज थे, और अपनी माँ की तरफ चंगेज खान।
- मुगल, तुर्क-मंगोल मूल के राजवंश ने 16वीं सदी के मध्य से 18वीं शताब्दी के उत्तर भारत के अधिकांश हिस्सों पर शासन किया।
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मुगल राज्य–वंश का परिचय: मध्य एशिया में दो महान जातियों का उत्कर्ष हुआ जिनका विश्व के इतिहास पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा। इनमें से एक का नाम तुर्क और दूसरी का मंगोल था। तुर्कों का मूल स्थान तुर्किस्तान और मुगलों या मंगोलों का मंगोलिया था। यह दोनों ही जातियाँ प्रारम्भ में खानाबदोश थीं और अपनी जीविका की खोज में इधर–उधर घूमा करती थीं। यह बड़ी ही वीर, साहसी तथा लड़ाकू जातियाँ थीं और युद्ध तथा लूट–मार करना इनका मुख्य पेशा था। यह दोनों ही जातियाँ कबीले बनाकर रहती थीं और प्रत्येक कबीले का एक सरदार होता था जिनके प्रति कबीले के लोगों की अपार भक्ति होती थी। प्रायः यह कबीले आपस में लड़ा करते थे परन्तु कभी–कभी वह वीर तथा साहसी सरदारों के नेतृत्व में संगठित भी हो जाया करते थे। धीरे–धीरे इन खानाबदोश जातियों ने अपने बाहु–बल से अपनी राजनीतिक संस्था स्थापित कर ली और कालान्तर में इन्होंने न केवल एशिया के बहुत बड़े भाग पर वरन दक्षिण यूरोप में भी अपनी राज–सत्ता स्थापित कर ली। धीरे–धीरे इन दोनों जातियों में वैमनस्य तथा शत्रुता बढ़ने लगी और दोनों एक–दूसरे की प्रतिद्वन्दी बन गयीं। तुर्क लोग मुगलों को घोर घृणा की दृष्टि से देखते थे। इसका कारण यह था कि वे उन्हें असभ्य, क्रूर तथा मानवता का शत्रु मानते थे। तुर्कों में अमीर तैमूर तथा मुगलों में चंगेज़ खां के नाम अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। यह दोनों ही बड़े वीर, विजेता तथा साम्राज्य–संस्थापक थे। इन दोनों ही ने भारत पर आक्रमण किया था और उसके इतिहास को प्रभावित किया था। चंगेज़ खाँ ने दास–वंश के शासक इल्तुतमिश के शासन काल में और तैमूर ने तुगलक–वंश के शासक महमूद के शासन–काल में भारत में प्रवेश किया था। यद्यपि चंगेज़ खाँ पंजाब से वापस लौट गया था परन्तु तैमूर ने पंजाब में अपनी राज–संस्था स्थापित कर ली थी और वहाँ पर अपना गवर्नर छोड़ गया था। मोदी–वंश के पतन के उपरान्त दिल्ली में एक नये राज–वंश की स्थापना हुई जो मुगल राज–वंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस राज–वंश का संस्थापक बाबर था जो अपने पिता की ओर से तैमूर का और अपनी माता की ओर से चंगेज़ खाँ का वंशज था। इस प्रकार बाबर की धमनियों में तुर्क तथा मंगोल दोनों ही रक्त प्रवाहित हो रहे थे। परन्तु एक तुर्क का पुत्र होने के कारण उसे तुर्क ही मानना चाहिये न कि मंगोल। अतएव दिल्ली में जिस राज–वंश की उसने स्थापना की उसे तुर्क–वंश कहना चाहिये न कि मुगल–वंश। परन्तु इतिहासकारों ने इसे मुगल राज–वंश के नाम से पुकारा है और इसे इतिहास की एक जटिल पहेली बना दिया है। अब इस राज–वंश के महत्त्व पर एक विहंगम दॄष्टि डाल देना आवश्यक है।
मुगल राजवंश का महत्त्व: मुगल राज–वंश का भारतीय इतिहास में बहुत बड़ा महत्त्व है। इस राज–वंश ने लगभग २०० वर्षों तक भारत में शासन किया। बाबर ने १५२६ ई० में दिल्ली में मुगल–साम्राज्य की स्थापना की थी और इस वंश का अन्तिम शासक बहादुर शाह १८५८ ई० में दिल्ली के सिंहासन से हटाया गया था। इस प्रकार भारतवर्ष में किसी अन्य मुस्लिम राज–वंश ने इतने अधिक दिनों तक स्वतन्त्रतापूर्वक शासन नहीं किया जितने दिनों तक मुगल राज–वंश ने किया।
न केवल काल की दृष्टि से मुगल राज–वंश का भारतीय इतिहास में महत्त्व है वरन विस्तार की दृष्टि से भी बहुत बड़ा महत्त्व है। मुगल सम्राटों ने न केवल सम्पूर्ण उत्तरी–भारत पर अपना एकछत्र साम्राज्य स्थापित किया वरन दक्षिण भारत के भी एक बहुत बड़े भाग पर उन्होंने अपनी प्रभुत्व–शक्ति स्थापित की। मुगल सम्राटों ने जितने विशाल साम्राज्य पर सफ़लतापूर्वक शासन किया उतने विशाल साम्राज्य पर अन्य किसी मुस्लिम राज–वंश ने शासन नहीं किया।
शांति तथा सुव्यवस्था के दृष्टिकोण से भी मुगल राज–वंश का भारतीय इतिहास में बहुत बड़ा महत्त्व है। मुस्लमानों में उत्तराधिकार का कोई निश्चित नियम न होने के कारण सल्तनत काल से राज–वंशों का बड़ी तेज़ी से परिवर्तन होता रहा। इसका परिणाम ये होता था कि राज्य में अशान्ति तथा कुव्यवस्था फैल जाती थी और अमीरों तथा सरदारों के षड्यन्त्र निरन्तर चलते रहते थे। मुगल राज्य–काल में एक ही राज–वंश का निरंतर शासन चलता रहा। इससे राज्य को स्थायित्व प्राप्त हो गया। इसमें सन्देह नहीं कि मुगल–सम्राटों ने साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण किया और विजय यात्राएँ की परन्तु वे अपने राज्य में आन्तरिक शान्ति तथा सुव्यवस्था बनाये रखने में पूर्ण रूप से सफल सिद्ध रहे।
इस आन्तरिक शान्ति तथा सुव्यवस्था के परिणाम बड़े महत्त्वपूर्ण हुए। मुगल सम्राटों ने अपने सम्पूर्ण राज्य में एक प्रकार की शासन–व्यवस्था स्थापित की, एक प्रकार के नियम लागू किये और एक प्रकार के कर्मचारियों की नियुक्ति की। इससे एकता की भावना के जागृत करने में बड़ा योग मिला। शान्ति तथा सुव्यवस्था के स्थापित हो जाने से देश की आर्थिक उन्नति बड़ी तेज़ी से होने लगी। इससे राज्य के वैभव तथा गौरव में बड़ी वृद्धि हो गई। मुगल सम्राटों का दरबार अपने वैभव तथा अपने गौरव के लिये दूर–दूर तक विख्यात था। वे न केवल स्वयं वरन उनकी प्रजा भी सुखी तथा सम्पन्न थी।
देश की सम्पन्नता का परिणाम हमें उस काल की कला की उन्नति पर स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। दिल्ली, आगरा तथा फ़तेहपुर सीकरी में जिन भव्य भवनों, मस्जिदों, मकबरों तथा राज–प्रसादों का निर्माण किया गया है वे उस काल की स्मृति के द्योतक हैं। ताजमहल, तख्तेताऊस, कोहेनूर आदि इस काल की सम्पन्नता के ज्वलंत प्रमाण हैं। सभी ललित कलाओं की इस काल में उन्नति हुई जिनका विकास केवल शान्तिमय वातावरण में ही हो सकता है। साहित्य की चरमोन्नत्ति भी इस काल की सम्पन्नता तथा शान्तिमय वातावरण की द्योतक है। वास्तव में मुगल काल का गौरव अद्वितीय तथा अनुपम है।
मुगल सम्राटों ने भारतीय इतिहास में एक नई नीति का सूत्रपात किया। वह नीति थी सहयोग तथा सहिष्णुता की। इस काल में सल्तनत–काल की भाँति धार्मिक अत्याचार नहीं किये गये। यद्यपि बाबर ने भारत में हिन्दुओं के साथ जो युद्ध किये थे उन्हें उसने ’जेहाद’ का रूप दिया था परन्तु इसकी यह भावना केवल युद्ध के समय तथा रण–क्षेत्र में रहती थी, शान्ति काल में नहीं। हुमायूँ ने जीवन–पर्यन्त अफ़गानों के साथ युद्ध किया और अपनी हिन्दु प्रजा के साथ उसने किसी प्रकार का अत्याचार नहीं किया। उसके पुत्र अकबर ने तो पूर्ण रूप से धार्मिक सहिष्णुता तथा सुलह की नीति का अनुसरण किया। उसने हिन्दुओं का आदर तथा विश्वास किया और उन्हें राज्य में ऊँचे–ऊँचे पद पर नियुक्त किया। इससे मुगल राज्य को सुदृढ़्ता प्राप्त हो गई। जब तक अकबर की उस उदार नीति का अनुसरण किया गया तब तक मुगल साम्राज्य सुदृढ़ तथा सुसंगठित बना रहा परन्तु जब औरंगज़ेब के शासन काल में इस नीति को त्याग दिया गया तब मुगल–साम्राज्य पतनोन्मुख हो गया।
मुगल राज–वंश का एक और दृष्टिकोण से बहुत बड़ा महत्त्व है। इस काल में भारतवासी फिर विदेशों के घनिष्ठ सम्पर्क में आ गये। पूर्व तथा पश्चिम के देशों के साथ भारत का व्यापारिक तथा सांस्कृतिक सम्बन्ध फिर स्थापित हो गया। पाश्चात्य देशों से यात्री लोग भारत में आने लगे जिससे भारतीयों के साथ उनका व्यापारिक सम्बन्ध बढ़ने लगा और विचारों का आदान–प्रदान भी होने लगा। इसका अन्तिम परिणाम ये हुआ कि भारत में यूरोपवासियों की राज्य–संस्थाएँ स्थापित हुईं और भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति पर पाश्चात्य देशों की सभ्यता तथा संस्कृति का बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा।
अकबर का शासन–प्रबन्ध: अकबर न केवल एक महान विजेता तथा साम्राज्य–संस्थापक था वरन वह एक कुशल शासक भी था। उसने अपनी शासन–व्यवस्था को बड़े ही ऊँचे आदर्शों तथा सिद्धान्तों पर आधारित किया था। वह पहला मुसलमान शासक था, जिसने वास्तव में लौकिक शासन की स्थापना की। उसने राजनीति को धर्म से बिल्कुल अलग कर दिया और राज्य में मुल्ला मौलवियों तथा उलेमा लोगों का कोई प्रभाव न रहा। स्मिथ महोदय ने उसकी प्रशासकीय प्रतिभा तथा उसके शासन सम्बन्धी सिद्धान्त की प्रशंसा करते हुए लिखा है, “अकबर में संगठन की आलौकिक प्रतिभा थी। प्रशासकीय क्षेत्र में उसकी मौलिकता इस बात में पाई जाती है कि उसने इस सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया कि हिन्दुओं तथा मुसलमानों के साथ समान व्यवहार होना चाहिये।
अकबर ने अपने शासन को धार्मिक सहिष्णुता तथा धार्मिक स्वतन्त्रता के सिद्धान्त पर आधारित किया था। वह ऐसे देश का सम्राट था, जिसमें विभिन्न जातियों तथा धर्मों के लोग निवास करते थे, अकबर ने अपनी प्रजा को धार्मिक स्वतन्त्रता दे रखी थी। जो हिन्दु उसके दरबार में रहते थे, उन्हें भी अपने धार्मिक आचारों तथा अनुष्ठानों के करने की पूरी स्वतन्त्रता थी। इतना ही नहीं, अपने हरम की हिन्दु स्त्रियों को भी उसने पूरी स्वतंत्रता दे रखी थी।
अकबर ने पूर्ण रूप से धार्मिक सहिष्णुता की नीति का अनुसरण किया। अकबर अपनी सभी प्रजा को चाहे वह जिस जाति व धर्म को मानने वाली हो समान दृष्टि से देखता था और अपनी जाति अथवा धर्म के कारण किसी को किसी भी प्रकार की असुविधा का सामना नहीं करना पड़ता था। कानून की दृष्टि में सभी समान समझे जाते थे और सभी को समान रूप से न्याय–प्राप्त था।
अकबर के शासन का तीसरा सिद्धान्त यह था कि उसने सरकारी नौकरियों का द्वार बिना जाति अथवा धर्म के भेद–भाव के सभी लोगों के लिये खोल दिया था। वह नियुक्तियाँ प्रतिभा तथा योग्यता के आधार पर किया करता था। इससे योग्यतम व्यक्तियों की सेवाएँ राज्य को प्राप्त होने लगीं और उसकी नींव सुदृढ़ हो गई।
अकबर के शासन की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वह सैन्य बल पर आधारित न था वरन उसका मूलाधार प्रजा का कल्याण था। अकबर का शासन बड़ा ही उदार तथा लोक मंगलकारी था। वह जानता था कि जब उसकी प्रजा सुखी तथा सम्पन्न रहेगी तब उसके राज्य में शान्ति रहेगी तथा उसका राज–कोष धन से परिपूर्ण रहेगा जिसके फलस्वरूप मुगल साम्राज्य की नींव सुदृढ़ हो जाएगी। अतएव उसने अपनी प्रजा के भौतिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक विकास का यथासम्भव प्रयत्न किया।
अकबर के शासन की यह भी विशेषता थी कि उसने सैनिक तथा प्रशासकीय विभाग के अफ़सरों को अलग नहीं किया था वरन प्रशासकीय विभाग के बड़े–बड़े पदाधिकारियों को सेनापति बना कर रण–क्षेत्रों में भेजा करता था। राजा टोडरमल, राजा भगवानदास, मानसिंह आदि प्रशासकीय विभाग के बड़े–बड़े पदाधिकारी प्राय: सैन्य–संचालन के लिये युद्धों में भेजे जाते थे। अकबर प्राय: दो सेनापतियों को एक साथ भेजा करता था जिससे विश्वासघात की बहुत कम सम्भावना रह जाय।
अकबर के शासन–सम्बन्धी आदर्शों तथा सिद्धान्तों का परिचय प्राप्त कर लेने के उपरान्त उसके केन्द्रीय, प्रान्तीय तथा स्थानीय शासन का संक्षिप्त परिचय दे देना आवश्यक था।
अकबर के धार्मिक विचार तथा उसकी धार्मिक नीति–———अकबर बड़े ही उदार तथा व्यापक दृष्टिकोण का व्यक्ति था। विचार–संकीर्णता उसमें बिल्कुल न थी। बाल्य–काल से ही अकबर ऐसे वातावरण तथा ऐसे व्यक्तियों के सम्पर्क में था कि उसका उदार तथा सहिष्णु हो जाना स्वाभाविक था।
अकबर पर सर्व–प्रथम प्रभाव अपने वंश का पड़ा। अकबर के पूर्वज बड़े ही उच्चादर्शों तथा उदार विचारों से प्रेरित थे। अकबर का पूर्वज चंगेज़ खाँन इस भावना से प्रेरित था कि वह विश्व में शान्ति तथा न्याय का साम्राज्य स्थापित करने तथा सांस्कृतिक एकता के स्म्पन्न करने के लिये उत्पन्न हुआ है। अकबर का पितामह बाबर बड़ा ही उच्च–कोटि का विद्वान तथा बड़े ही व्यापक दृष्टिकोण का व्यक्ति था। अकबर का पिता हुमायूँ बड़ा ही उदार, दयालु, सहिष्णु, सुसंस्कृत तथा रहस्यवादी विचार का था। अकबर की माता भी बड़ी धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी जिसका एक सूफ़ी मत के मानने वाले शिया परिवार में जन्म हुआ था। इस प्रकार बड़े ही उदार तथा व्यापक दॄष्टिकोणों के व्यक्तियों का रक्त अकबर की धमनियों में प्रवाहित हो रहा था और उसका उदार तथा सहिष्णु हो जाना स्वाभाविक ही था।
संगीत का भी अकबर पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा। बचपन से ही वह मुगल, तुर्की, अफ़गान तथा ईरानी अमीरों के साथ रहा था। अतएव उसमें साम्प्रदायिकता अथवा वर्गीयता की भावना का विकास न हो सका और उसमें विचार संकीर्णता न आ सकी। फलत: वह अपने विचारों में बड़ा उदार हो गया और दूसरों के विचारों तथा दृष्टिकोणों के समझने की उसमें अद्भुत क्षमता उत्पन्न हो गई।
अकबर पर उसके शिक्षकों का भी बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा था। उसके शिक्षकों में शिया तथा सुन्नी दोनों ही थे, जो बड़े ही उदार विचार के थे। बयाजद तथा मुनीम खाँ उसके सुन्नी शिक्षक थे और बैरम खाँ तथा अब्दुल लतीफ़ उसके शिया शिक्षक थे। अब्दुल लतीफ़ तो ऐसे उदार विचार का व्यक्ति था कि फ़ारस में वह सुन्नी और भारत में शिया समझा जाता था। उसने अकबर के मस्तिष्क को उदार सूफ़ी विचारों से प्रभावित किया।
अकबर पर सन्तों तथा साधुओं का भी बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा था। जब वह बैरम खाँ के संरक्षण में था तभी से वह साधुओं के सम्पर्क में आने लगा था और उन्हें आदर–सम्मान की दृष्टि से देखने लगा था। जब बैरम खाँ का संरक्षण समाप्त हो गया तब शेखों , सन्तों, फ़कीरों, साधुओं तथा योगियों के साथ सम्राट का सम्पर्क पहले से भी बढ़ गया और धीरे–धीरे सम्राट में चिन्तनशीलता आने लगी। साधु–महात्माओं में उसका विश्वास इतना अधिक बढ़ गया था कि किसी भी महत्त्वपूर्ण कार्य करने के पूर्व वह जीवित तथा पंचत्व को प्राप्त साधु–सन्तों के आशीर्वाद को प्राप्त करने के लिये उनकी दरगाहों की यात्रा करने लगा। चिश्ती सम्प्रदाय के संतों और विशेषकर शेख सलीम चिश्ती मे अकबर का बड़ा विश्वास था और उनके आशीर्वाद की वह बड़ी कामना किया करता था। वह साधु–महात्मा बड़े उदार विचार तथा व्यापक दृष्टिकोण के थे और उसके विचारों का अकबर पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा।
तेरहवीं शताब्दी से सोलहवीं शताब्दी तक हिन्दुओं तथा मुसलमानों दोनों ही के जो धार्मिक तथा आध्यात्मिक आन्दोलन हुए उनका भी अकबर के मस्तिष्क तथा उसके विचारों पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा। इस काल में अनेक ऐसे हिन्दु तथा मुस्लिम साधु–महात्मा एवं सुधारक हुए जिन्होंने धर्म के बाह्याडम्बरों का खंडन किया और उसके आन्तरिक तत्त्वों पर बल दिया। इस प्रकार धार्मिक लौकिक एकता की खोज तथा धार्मिक समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न चल रहा था जो सामाजिक तथा धार्मिक जीवन में उदारता तथा सहिष्णुता के भाव उत्पन्न कर रहा था। अकबर जो बड़ा जिज्ञासु तथा चिन्तक था उन विचारों के प्रभाव से मुक्त न रह सका।
उदारता तथा सहिष्णुता के भाव धीरे–धीरे सामाजिक तथा धार्मिक क्षेत्र से राजनीतिक क्षेत्र में भी प्रविष्ट हो रहे थे। अनेक मुस्लिम शासकों ने इस बात का अनुभव किया कि उन्हें धार्मिक सहिष्णुता की नीति का अनुसरण करना चाहिये और अपनी हिन्दु–प्रजा के धर्म में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये और सभी धार्मिक आन्दोलनों के प्रति सुहानुभूति रखनी चाहिये। कई प्रान्तीय शासकों ने उदारता तथा सहिष्णुता की नीति का अनुसरण करना आरम्भ कर दिया था। अकबर ने अपने शासन–काल के आरम्भ से ही इस नीति को अपनाया और धार्मिक तथा आध्यात्मिक आन्दोलनों के प्रति उदारता तथा सुहानुभूति दिखलाना आरम्भ किया।
अकबर ने मानसिक गठन, उसके राजनीतिक अनुभवों, सामाजिक सम्बन्धों तथा विवाहों ने भी उसे अत्यधिक प्रभावित किया जिसके फलस्वरूप उसने उदारता तथा सहिष्णुता की नीति को अपनाया। अकबर स्वभाव से ही उदार तथा सहिष्णु था। उसने राजपूतों को अपना अभिन्न मित्र बना लिया और उन्हें अपने दरबार में तथा अपने राज्य में ऊँचे–ऊँचे पद प्रदान किये। इन लोगों के सम्पर्क तथा सहवास का अकबर पर बहुत प्रभाव पड़ा। अकबर को हिन्दू रानियों ने भी अपनी धर्म–परायणता, अपने प्रेम तथा सरल एवं मधुर व्यवहार से सम्राट को अत्यधिक प्रभावित किया जिससे वह उदार तथा सहिष्णु बन गया।
आत्म चिन्तन का भी सम्राट के मस्तिष्क पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा। अपने सामरिक तथा प्रशासकीय कार्यों में व्यस्त रहने पर भी वह आत्म–चिन्तन किया करता था और ऐसे मार्ग की खोज कर रहा था जो उसकी प्रजा को ईर्ष्या–द्वेष तथा घृणा के कुमार्गों से मुक्त कर उसमें प्रेम, सहयोग तथा एकता की सद्भावना का संचार करे। अपनी प्रजा का पथ–प्रदर्शन करने के लिये यह आवश्यक था कि सम्राट स्वयं उदारता तथा सहिष्णुता का उच्चादर्श उसके सामने स्थापित करे।
अकबर के अन्तिम दिन: यद्यपि अकबर ने अपने बाहु–बल से एक विशाल साम्राज्य की स्थापना कर ली थी और उसकी कीर्ति–पताका दूर–दूर तक फहरा रही थी परन्तु उसके अन्तिम दिन सुख से न बीते। उसके दुख का प्रधान कारण उसका सबसे बड़ा पुत्र सलीम था। उसके अन्य दो पुत्र मुराद तथा दानियल मद्यपान के वशीभूत हो कर परलोक सुधार गये थे। अतएव अब सलीम ही उसका सहारा था। परन्तु सलीम की आदतें तथा उसका व्यवहार सम्राट के लिये पीड़ाजनक बन गया। शहज़ादा शराबी तथा विलास–प्रिय बन गया और सम्राट की आदेशों की उपेक्षा करने लगा। इससे सम्राट को बड़ी निराशा तथा बड़ा दुख हुआ। इसका सम्राट के स्वास्थय पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा और वह बीमार रहने लगा। सलीम में कोई सुधार न हुआ और वह अपने कर्तव्यों की उपेक्षा करता ही गया। सलीम ने राजधानी के सन्निकट ही रहने का निश्चय कर लिया और जब कभी सम्राट उसे पश्चिमोत्तर प्रदेश अथवा दक्षिण में जाने का आदेश देता तो वह अपनी अनिच्छा प्रकट कर देता। फलत: दक्षिण के युद्धों का संचालन करने के लिये सम्राट को स्वयं जाना पड़ा। सम्राट की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर सलीम इलाहाबाद को अपना निवास–स्थान बनाकर स्वतन्त्र रूप से शासन करने लगा।
जब सम्राट को इसकी सूचना मिली, तो उसे बड़ी चिन्ता हुई। २१ अप्रैल १६०१ को उसने बुरहानपुर से आगरे के लिये प्रस्थान कर दिया। सलीम ने खुल्ल्म–खुल्ला विद्रोह कर दिया, परन्तु सम्राट ने धैर्य से काम लिया और तुरन्त शहज़ादे के विरुद्ध कोई कार्यवाही न की।
सम्राट ने दक्षिण से अबुलफ़ज़ल को बुला भेजा, परन्तु सलीम ने मार्ग में ही ओरछा के सरदार वीरसिंह देव बुन्देला के द्वारा उसका वध करा दिया। जब सम्राट को इसकी सूचना मिली तो उसके हृदय पर गहरी चोट लगी और कुछ समय तक वह बेहोश पड़ा रहा। वह कई दिनों तक रोता रहा। अबुलफ़ज़ल की मृत्यु का सम्राट के स्वास्थय पर बुरा प्रभाव पड़ा। इस घृणित कार्य के कारण सम्राट सलीम से और अधिक अप्रसन्न हो गया। परन्तु हरम की स्त्रियों के प्रयास से बाप–बेटे में समझौता हो गया। सलीम फ़तेहपुर सम्राट के पास गया और उसे मनाया। सम्राट ने अपनी पगड़ी सलीम के सिर पर रख दी और उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।
इस समझौते के बाद भी सलीम की आदतों तथा व्यवहारों में कोई परिवर्तन न हुआ और सम्राट का दुःख समाप्त न हुआ। वह पेट की पीड़ा का शिकार बन गया, जो संग्रहणी का रोग बन गया। रोग असाध्य सिद्ध हुआ और तेईस दिन की बीमारी के उपरान्त १६ अक्तूबर, १६०५ ई० को सम्राट ने सदैव के लिये अपनी आँखे बंद कर लीं।
शब्दार्थ
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अभ्यास
मौखिक:
- मुगल राज्य वंश का परिचय दीजिये।
- भारतीय इतिहास में मुगल राज्य-वंश का क्या महत्व है?
- मुगल सम्राटों की नई नीति की मुख्य विशेषताएँ स्पष्ट कीजिये।
- क्यों अकबर एक कुशल शासक समझा जाता है?
- अकबर के धार्मिक विचारों के बारे में आप क्या जानते हैं?
- अकबर के अंतिम दिन क्यों सुख से न बीते?
लिखित:
1. निम्नलिखित शब्दों के अर्थ लिख कर अपने वाक्यों में उनका प्रयोग कीजिये : पहेली, धमनी, लड़ाकू, प्रस्थान, कोरा
2. निम्नलिखित शब्दों के कुछ पर्यायवाची याद करके लिखिये।
- संचालन
- फहराना
- उपेक्षा
- सहिष्णु
3. आपके अनुसार क्यों अकबर को भारतीय इतिहास में मुख्य स्थान दिया जाता है?
4. नीचे लिखे शब्दों के पर्यायवाची शब्द पाठ में से चुनकर लिखिये:
- _________ = दाता, दानशील, श्रेष्ठ, ऊँचे दिल का, शिष्ट. उम्दा, उत्कृष्ट
- _________ = तंगी, संकरापन, नीचता, क्षुद्रता, ओछापन
- _________ = पुरखा, पूर्ववर्ती, परदादा
- _________ = ऐक्य, मेल, समानता, बराबरी
- _________ = मिलाप, संग, संबंध, ताल्लुक, ज्ञान
- _________ = गुणवर्णन, स्तुति, बड़ाई
2. निम्नलिखित शब्दों के निकटतम विपरीतार्थक शब्द पाठ से चुनिये :
- _________ = कट्टर, कटु, कड़वा
- _________ = परवर्ती, वंशज
सूक्ष्म अन्तर वाले पर्यायवाची शब्द
मृत्यु, निधन: मृत्यु सब के लिए प्रयुक्त हो सकता है। राम की मृत्यु, पशु की मृत्यु, पक्षी की मृत्यु, कीड़े-मकोड़े की मृत्यु इत्यादि। निधन का प्रयोग विशेष-विशेष मनुष्यों के संबंध में किया जाता है। गाँधी जी के निधन से देश की बड़ी हानि हुई।
राजा, सम्राट: राजा छोटे-बड़े सभी शासकों के लिये प्रयुक्त होता है, पर सम्राट बड़े राज्य वाले के लिये प्रयुक्त होता है। देशी राजाओं का संगठन देश के लिये बड़ा हितकर हुआ है। नेपाल के महाराजा अब वैधानिक शासक के रूप में राज्य करेंगे। सम्राट अशोक बौद्ध थे।
उद्योग, उद्यम, परिश्रम, प्रयास, यत्न, चेष्टा: किसी कार्य की सिद्धि के लिये विशेष रूप से किये जाने वाले परिश्रम को उद्योग कहते हैं। किसी वस्तु के व्यवसाय को भी उद्योग कहते हैं। उद्योग करने से सफ़लता प्राप्त होती है। हमारे देश में इस समय कपड़े का उद्योग उन्नति पर है। उद्यम, उद्योग के ही अर्थ में ही प्रयुक्त होता है, किन्तु निर्माण संबंधी व्यवसाय के अर्थ में वह प्रयुक्त नहीं होता। वह नौकरी-चाकरी अथवा व्यापार के अर्थ में प्रयुक्त होता है। राम उद्यमी पुरुष है। आलसी लोग उद्यम से दूर भागते हैं। बिना कोई उद्यम किये धन इकट्ठा नहीं होता। किन्तु हमारे देश में कपड़े का उद्यम उन्नति पर है, ऐसा कहना अशुद्ध होगा। उद्यम कोई व्यक्ति करता है, किसी कार्य के लिये उद्यम किया जाता है, पर किसी वस्तु का उद्योग होता है। परिश्रम किसी भी कार्य की सिद्धि के लिये किये जाता है। विद्यार्थी परीक्षा के लिये परिश्रम करता है। व्यापारी व्यापार में परिश्रम करता है। मज़दूर दिन भर परिश्रम करता है। परिश्रमी को हर जगह सफलता मिलती है। परिश्रम शारीरिक, मानसिक दोनों होता है। साधारण दौड़-धूप भी परिश्रम है। किसी विशेष कार्य के लिये विशेष रूप से किये जाने वाले परिश्रम को प्रयास कहते हैं। राम के प्रयास से मोहन और सोहन में मेल होगा। हरि के प्रयास से श्याम जेल जाने से बच गया। गाँव वालों ने बहुत प्रयास करके स्कूल खोला। महात्मा गाँधी के प्रयास से देश में जागृति की लहर दौड़ गई। यत्न और चेष्टा का प्रयोग बहुधा श्रम के ही अर्थ में होता है। प्रयास से जहाँ दीर्घ-कालीन परिश्रम का बोध होता है, वहाँ यत्न से केवल अल्पकालीन परिश्रम का बोध होता है। यत्न से शारीरिक परिश्रम का बोध न होकर उपाय का बोध होता है। बहुधा यत्न से सावधानी का भी बोध होता है। राम के यत्न से हरि को अच्छी नौकरी मिल गई। छात्र अपनी पुस्तकें यत्न से रखते हैं। कंजूस अपने धन की रक्षा यत्न से करता है। चेष्टा विशेष उद्योग को कहते हैं। बहुधा यह प्रयास के अर्थ में आता है। कांग्रेस ह्यूम साहब की चेष्टा का फल है। नेहरू जी की चेष्टा से भारत और पाकिस्तान में सदभावना उत्पन्न हुई है। पर तालाब राम की चेष्टा से तैयार हुआ है।
होशियार, चतुर, दक्ष, चालाक, बुद्धिमान, ज्ञानी: सामान्य बुद्धि का उपयोग करने वाला होशियार कहलाता है। बहुधा निपुण के अर्थ में भी होशियार का प्रयोग होता है। राम होशियार आदमी है। श्याम चरखा कातने में होशियार है। कभी-कभी सावधान के अर्थ में भी इसका प्रयोग होता है। दुष्टों से होशियार रहना चाहिये। पहाड़ पर होशियारी से कदम बढ़ाना चाहिये। चतुर से साधारण बुद्धि की तीव्रता और निपुणता का भाव निकलता है। राज सभा में चतुरों की कदर होती है। चतुर कारीगर पुरस्कार पाता है। हरि चित्र-कला में चतुर है। दक्ष निपुण और कुशल का पर्यायवाची है। राम काव्यशास्त्र में दक्ष है। मोहन गान विद्या में दक्ष है। निपुण के अर्थ में चतुर, होशियार और दक्ष समानार्थक है। चालाक से सामान्य बुद्धि की तीव्रता के साथ-साथ बहुधा धूर्तता का भी बोध होता है। इस लड़के की चालाकी के आगे किसी की नहीं चल पाती। मोहन चालाक है, वह अपना रुपया नहीं डूबने देगा। मोहन सीधा आदमी है, पर साधो चालाक है। संस्कृति या विद्या से उत्पन्न विवेचना शक्तिवाले को बुद्धिमान कहा जाता है। बुद्धिमान का प्रयोग सदा अच्छे ही भाव में किया जाता है। राम बुद्धिमान है, इसीलिये सभी उसकी सलाह लेते हैं। बुद्धिमान मनुष्य मुकदमा करने की अपेक्षा पंचायत से मामले का फ़ैसला करा लेना अधिक पसंद करता है। सौ मूर्ख पुत्रों की अपेक्षा एक बुद्धिमान पुत्र का होना कहीं अच्छा है। आध्यात्मिक विषयों की जानकारी और अनुभूति रखने वाले व्यक्ति को ज्ञानी कहते हैं। वशिष्ठ ज्ञानी थे। अपनी स्त्री की कृपा से तुलसीदास ज्ञानी हो गए।